Saturday, August 31, 2019

वैयक्तिक भिन्नता / Individual Variation

वैयक्तिक भिन्नता / Individual Variation

वैयक्तिक भिन्नता / Individual Variation

    "भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में उनके स्वभाव, बुद्धि, शरीरिक-मानसिक क्षमता के अन्तर को वैयक्तिक भिन्नता कहते है"। शिक्षण के क्षेत्र में वैयक्तिक भिन्नता का अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण होता है। वैयक्तिक भिन्नता के विचार का शिक्षण में प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांसीसी मनोवैज्ञानिक गाल्टन ने किया था। वैयक्तिक भिन्नता के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों ने कुछ परिभाषाएं दी है जो इस प्रकार है-
स्किनर के अनुसार, “वैयक्तिक भिन्नता से हमारा तात्पर्य व्यक्तित्व के उन सभी पहलुओं से है, जिनका मापन व मूल्यांकन किया जा सकता है।”
जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “कोई व्यक्ति अपने समूह के शारीरिक तथा मानसिक गुणों के औसत से जितनी भिन्नता रखता है, उसे वैयक्तिक भिन्नता कहते है।”
टॉयलर के अनुसार, “शरीर के रूप-रंग, आकार, कार्य, गति, बुद्धि, ज्ञान, उपलब्धि, रुचि, अभिरुचि आदि लक्षणों में पाई जाने वाली भिन्नता को वैयक्तिक भिन्नता कहते है।”

वैयक्तिक भिन्नता के प्रकार 

वैयक्तिक भिन्नता के प्रकार निम्नलिखित है-
  • भाषायी भिन्नता 
  • लैंगिक भिन्नता 
  • बौद्धिक भिन्नता 
  • पारिवारिक एवं सामुदायिक भिन्नता 
  • जातिगत भिन्नता 
  • संवेगिक भिन्नता 
  • धार्मिक भिन्नता 
  • शारीरिक भिन्नता 
  • अभिवृतिक भिन्नता 
  • व्यक्तित्व भिन्नता 
  • गत्यात्मक कौशल पर आधारित भिन्नता 

वैयक्तिक भिन्नता के कारण  

वैयक्तिक भिन्नता होने के निम्नलिखित कारण है-
  • वंशानुक्रम 
  • वातावरण या परिवेश 
  • आयु एवं बुद्धि 
  • परिपक्वता 
  • लैंगिक भिन्नताएं 

वैयक्तिक भिन्नता को जानने की विधियाँ

वैयक्तिक भिन्नताओं को जानने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित  है-
  • बुद्धि परीक्षण 
  • उपलब्धि परीक्षण 
  • संवेग परीक्षण 
  • अभिक्षमता परीक्षण 
  • अभिरुचि परीक्षण 
  • व्यक्तित्व परीक्षण 

शिक्षा में वैयक्तिक भिन्नता का स्वरूप   

शिक्षा के क्षेत्र में वैयक्तिक भिन्नता महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर शिक्षण प्रक्रिया में निम्नलिखित बातों का निर्धारण आसानी से किया जाता है-
  1. शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण  
  2. पाठ्यक्रम का  निर्धारण 

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Friday, August 30, 2019

वयस्क अध्येता Adult Leaner

वयस्क अध्येता Adult Leaner

वयस्क अध्येता Adult Leaner

     18 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति को वयस्क अवस्था में रखा जाता है। वयस्क अध्येता की प्रमुख विशेषताओं को हम निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझ सकते है-

  • शैक्षिक 
  • सामाजिक 
  • भावनात्मक 
  • संज्ञानात्मक 

शैक्षिक

    वयस्क अध्येता में स्वयं ही परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति का उचित विकास होता है। इस अवस्था में वयस्क अध्येता को जिम्मेदारी का एहसास होता है। अतः वयस्क अध्येता शिक्षण कार्य को अपनी कर्मनिष्ठा तथा उत्तरदायित्व की भावना से करने के प्रति समर्पित होता है।

सामाजिक 

    वयस्क अध्येता सामाजिक परिवेश में अच्छी तरह से समन्वित रहता है। वह सामाजिक रीति-रिवाजों, परम्पराओं आदि को जनता है। वयस्क अध्येता सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते हुए शिक्षण कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होता है।

भावनात्मक 

    वयस्क अध्येता भावनात्मक रूप से सही निर्णय लेने तथा किसी भी कार्य को करने में सक्षम होता है। वह तर्क के माध्यम से सभी निष्कर्ष प्राप्त करता है। अतः शिक्षण इसकी तार्किक एवं भावनात्मक प्रवृत्ति के विकास को और अधिक उन्नत करती है।

संज्ञानात्मक 

    वयस्क अध्येता के मस्तिष्क का विकास लगभग पूर्ण होता है। वह कल्पना, मनोविज्ञान, तथ्यहीन तर्क आदि के समाधान में समर्थ होता है। अतः वयस्क अध्येता उचित संज्ञानात्मक निर्णय लेकर उचित निष्कर्ष प्रदान करता है।

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Sunday, August 25, 2019

किशोर अध्येता Teenager Learner


किशोर अध्येता Teenager Learner

किशोर अध्येता Teenager Learner

    12 वर्ष से 18 वर्ष तक के आयु के बालक को किशोर अवस्था में रखा जाता है। किशोर अध्येता की प्रमुख विशेषताओं को हम निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझ सकते है-

  • शैक्षिक 
  • सामाजिक 
  • भावनात्मक 
  • संज्ञानात्मक 

शैक्षिक

     किशोर अवस्था अध्येता में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। इसी लिए इस स्तर पर शिक्षण का स्वरूप भी मानसिक विकास, शारीरिक विकास एवं व्यक्तिगत भिन्नता के अनुरूप होना चाहिए।

सामाजिक 

    किशोर अवस्था में अध्येता को जीवन में नए-नए अनुभव का ज्ञान होता है जिससे उसमें इच्छा, निराशा, असफलता आदि का संचार होता है। निराशा और असफलता आदि के कारण ही उसमें आपराधिक प्रवृत्ति का जन्म होता है। इसी अवस्था में ही उसमें समाजसेवा का भाव भी उत्पन्न होता है। अतः शिक्षण की इस अवस्था में उसे सही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।

भावनात्मक 

     किशोर अवस्था में अध्येता भावनात्मक रूप से किसी भी तथ्य को समझने में जल्दी करते है। कल्पना, सत्य व असत्य, नैतिक व अनैतिक का सही ज्ञान न होने के कारण वह गलत प्रवृत्तियों का शिकार भी हो जाते है। अतः इस स्तर पर शिक्षण का प्रारूप सही मार्गदर्शन वाला होना चाहिए।

संज्ञानात्मक 

    किशोर अवस्था में अध्येता के मस्तिष्क का विकास लगभग सभी दिशाओं में होता है। वह कल्पनाओं, नैतिक तथा अनैतिक विषयों के बारें मे सजग रहता है। अतः शिक्षण के इस स्तर पर किशोर अध्येता को संज्ञानात्मक प्रवृत्ति का ज्ञान आवश्यक हो जाता है।


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Sunday, August 18, 2019

अध्येता या अधिगमकर्ता Learner

अध्येता या अधिगमकर्ता Learner

अध्येता या अधिगमकर्ता Learner

     अध्येता का शाब्दिक अर्थ होता है- “अध्ययन करने वाला”। इसके अलावा अध्येता को शिक्षार्थी, विद्यार्थी या अधिगमकर्ता भी कहते है, जो कि शिक्षण का केन्द्रबिन्दु होता है। प्रारम्भ में अध्येता अपरिपक्व अवस्था में होता है, किन्तु बाद में धीरे-धीरे वह सामाजिक एवं सांस्कृतिक गुणों के माध्यम से परिपक्व अवस्था में आ जाता है। अध्येता में अनुशासन की प्रवृत्ति शिक्षण के माध्यम से ही विकसित होती है और वह धीरे-धीरे एक आदर्श नागरिक बन कर राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अध्येता की मुख्य विशेषताएं 

  • अध्येता ज्ञान की प्राप्ति करता है।
  • अध्येता स्मरण एवं अनुभव को संगठित व परिष्कृत करता है।   
  • अध्येता के अधिगम की प्रेरणा, स्वाभाविक रूचियाँ, अभिरुचियाँ, एवं अभिवृत्तियों को निर्धारित करता है।  
  • अध्येता अधिगम प्रक्रिया को सफल अथवा असफल करता है। 
  • अध्येता अधिगम प्रक्रिया में व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताओं को जागृत करता है। 
  • अध्येता राष्ट्र के निर्माण एवं समाज के चारित्रिक सद्गुणों के विकास की अभिवृद्धि करता है।
  • अध्येता प्रशिक्षण या निर्देशात्मक योजना निर्माण में सहायक तत्व की तरह कार्य करता है।
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Saturday, August 17, 2019

शिक्षण की विशेषताएं एवं आधारभूत अवश्यकताएं Features and Basic Requirements of Teaching

शिक्षण की विशेषताएं एवं आधारभूत अवश्यकताएं Features and Basic Requirements of Teaching

शिक्षण की विशेषताएं एवं आधारभूत अवश्यकताएं Features and Basic Requirements of Teaching

     शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक शिक्षार्थी का ज्ञान, कौशल तथा अभिरुचियों आदि को सीखने में सहायता करता है। इस आधार पर शिक्षण की निम्नलिखित विशेषताएं है-

  • शिक्षण एक व्यवसायिक प्रक्रिया है। 
  • शिक्षण एक पारस्परिक अन्तःक्रिया है जिसमें अध्यापक विद्यार्थी का मार्गदर्शन और विकास करता है। 
  • शिक्षण विविध में रूपों सम्पन्न होती है, जैसे- औपचारिक, अनौपचारिक, निदेशात्मक एवं अनुदेशात्मक प्रशिक्षण आदि। 
  • शिक्षण का अवलोकन एवं विश्लेषण वैज्ञानिक ढंग से होता है। 
  • शिक्षण में सम्प्रेषण कौशल का आधिपत्य होता है। 
  • शिक्षण, शिक्षक के परिश्रम का परिणाम होता है। 
  • शिक्षण में अपेक्षित सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है। 
  • शिक्षण के द्वारा छात्र बौद्धिक विकास होता है। 
  • शिक्षण के द्वारा छात्र के चरित्र का विकास होता है।

शिक्षण की आधारभूत अवश्यकताएं

शिक्षण की मूलभूत अवश्यकताएं निम्नलिखित है-
  • शिक्षण प्रक्रिया में मुख्य रूप से शिक्षक, विद्यार्थी और पाठ्यक्रम की आवश्यकता होती है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक एक स्वतन्त्र चर, विद्यार्थी एक परतन्त्र चर एवं पाठ्यक्रम एक हस्तक्षेप चर की भूमिका में होते है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया में छात्रों के व्यवहारों में परिवर्तन होना आवश्यक होता है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया का आधारभूत केन्द्र-बिन्दु अधिगम होता है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया की आवश्यकता छात्रों को वांछित ज्ञान और कौशल सिखाने एवं अधिग्रहण से होती है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक ज्ञान का परिमार्जन करता है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया ज्ञान, बोध तथा संकल्प शक्ति के द्वारा ही सम्भव है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया प्रेरक और प्रतिक्रिया के बीच में नए सम्बन्ध स्थापित करती है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया में कौशल, वातावरण, संस्थागत संरचना आदि सभी आवश्यकता होते है। 

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Friday, August 16, 2019

हण्ट शिक्षण मॉडल Hunt Teaching Model

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हण्ट शिक्षण मॉडल Hunt Teaching Model

हण्ट शिक्षण मॉडल Hunt Teaching Model

      हण्ट शिक्षण मॉडल को चिन्तन  स्तर की शिक्षण व्यवस्था भी कहते है। चिन्तन के स्तर पर शिक्षक अपने छात्रों में चिन्तन, तर्क तथा कल्पना शक्ति को बढ़ता है , जिससे छात्र इन उपगमों के माध्यम से अपनी समस्या का समाधान कर सके। इस स्तर पर शिक्षण में स्मृति तथा बोध दोनों स्तरों का शिक्षण निहित होता है। इसके बिना चिन्तन-स्तर का शिक्षण सफल नहीं हो सकता।

     चिन्तन स्तर का शिक्षण समस्या केन्द्रित होता है, इसमें छात्र को मौलिक चिन्तन करना होता है। इस स्तर पर छात्र विषय-वस्तु के सम्बन्ध में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते है। इस स्तर पर छात्र सीखे हुये तथ्यों तथा सामान्यीकरण की जाँच करता है और नवीन तथ्यों की खोज करता है।

     इस शिक्षण के सम्बन्ध में विग्गी का कथन है कि "चिन्तन स्तर के शिक्षण में कक्षा में एक ऐसा वातावरण विकसित किया जाता है, जो अधिक सजीव, प्रेरणादायक, सक्रिय, आलोचनात्मक, संवेदनशील हो और नवीन एवं मौलिक चिन्तन को खुला अवसर प्रदान करे। इस प्रकार का शिक्षण बोध स्तर के शिक्षण की अपेक्षा अधिक कार्य-उत्पादक को बढ़ावा देता है।"

     यह शिक्षण का सर्वोत्त्म स्तर है, जिसमें छात्र अपनी अभिव्यक्ति, धारणा, विचार, मान्यता तथा ज्ञान के अनुसार समस्या का समाधान, विचार एवं तर्क के द्वारा करता है तथा नवीन ज्ञान की खोज भी करता है। इस स्तर पर शिक्षक छात्रों के बौद्धिक व्यवहार के विकास के लिए अवसर प्रदान करता है और सृजनात्मक क्षमताओं के विकास में सहायक होता है। चिन्तन स्तर का शिक्षण स्मृति तथा बोध स्तर के शिक्षण से भिन्न होता है, परन्तु चिन्तन स्तर के शिक्षण के लिए स्मृति तथा बोध का स्तर, शिक्षण स्तर पहले होना आवश्यक है। हण्ट को चिन्तन स्तर के शिक्षण का प्रवर्तक माना जाता है।

चिन्तन स्तर के शिक्षण प्रतिमान के प्रारूप का अध्ययन चार सोपनों में किया जाता है-
  1. उद्देश्य
  2. संरचना
  3. सामाजिक प्रणाली
  4. मूल्यांकन प्रणाली

उद्देश्य

चिन्तन स्तर के शिक्षण के प्रमुख तीन उद्देश्य होते है-
  1. समस्या, समाधान की क्षमताओं का छात्रों में विकास करना। 
  2. छात्रों में आलोचनात्मक तथा सृजनात्मक चिन्तन का विकास करना। 
  3. छात्रों की मौलिक तथा स्वतन्त्र चिन्तन क्षमताओं का विकास करना। 

संरचना

चिन्तन स्तर के शिक्षण की संरचना का प्रारूप समस्या की प्रकृति पर निर्धारित किया जाता है। समस्याएँ दो प्रकार की होती है- व्यक्तिगत एवं सामाजिक। व्यक्तिगत समस्या के समाधान के लिए प्रमुख दो आयामों का अनुसरण किया जाता है- डी. बी. की समस्यात्मक परिस्थिति एवं कर्ट लेविन की समस्यात्मक परिस्थिति। 

डी. बी. की समस्यात्मक परिस्थिति

डी. बी. की व्यक्तिगत समस्या को निम्न दो परिस्थितियों में प्रस्तुत किया जाता है-
  1. पथ-रहित परिस्थिति
  2. दो नोक वाली पथ परिस्थिति

1- पथ-रहित परिस्थिति

     छात्र जब अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है और मार्ग में बाधाएँ आ जाती है तब उसे तनाव हो जाता है, इसलिए वह उन बाधाओं पर विजय पाने के लिए समाधान सोचता है।

2- दो नोक वाली पथ परिस्थिति

जब छात्र को दो लक्ष्य समान रूप से आकर्षित करते है, तब उसके सामने यह समस्या उत्पन्न होती है।

कर्ट लेविन की समस्यात्मक परिस्थिति

     कर्ट लेविन का विचार है कि हर व्यक्ति का कोई न कोई लक्ष्य होता है, जिससे उसका व्यवहार नियंत्रित होता है।
प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन क्षेत्र होता है, जिसकी प्रकृति सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक होती है। व्यक्ति और लक्ष्य की स्थिति तनाव उत्पन्न करती है, जिससे समस्यात्मक परिस्थिति बन जाती है। कर्ट लेविन ने तनाव पथ-परिस्थिति के तीन रूप प्रस्तुत किए है-
  1. धनात्मक-आकर्षण
  2. ऋणात्मक-आकर्षण
  3. धनात्मक-ऋणात्मक आकर्षण

सामाजिक प्रणाली

     चिन्तन स्तर की सामाजिक प्रणाली में छात्र अधिक सक्रिय रहता है, और कक्षा का वातावरण खुला और स्वतंत्र होता है। सीखने की परिस्थितियाँ अधिक आलोचनात्मक होती है। इस स्तर पर छात्र की स्वतः अभिप्रेरण का महत्व अधिक होता है। इस स्तर पर छात्र समस्या के प्रति जितना अधिक संवेदनशील होगा, उतना ही मौलिक चिन्तन का अधिक विकास होगा। इस स्तर पर शिक्षक का कार्य छात्र की आकांक्षा स्तर को ऊपर उठाना होता है। इस स्तर पर सामाजिक अभिप्रेरण का विशेष महत्व है क्योंकि इसी से छात्र में अध्ययन के प्रति लगन उत्पन्न होती है। चिन्तन स्तर पर शिक्षक का स्थान गौण होता है, इसलिए इस स्तर पर शिक्षण के लिए वाद-विवाद तथा सेमिनार आदि विधियाँ अधिक प्रभावशाली होती है।

मूल्यांकन प्रणाली

चिन्तन स्तर के शिक्षण के प्रतिमान का मूल्यांकन करना कठिन होता है। अतः चिन्तन स्तर के शिक्षण की निष्पत्तियों के लिए निबंधात्मक परीक्षा अधिक उपयोगी होती है। चिन्तन स्तर के मूल्यांकन के शिक्षण के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षा अधिक उपयोगी नहीं होती है। इस स्तर की परीक्षा की व्यवस्था करते समय निम्नलिखित पक्षों को ध्यान में रखा जाता है-
  • छात्रों की अभिवृत्तियों तथा विश्वासों का मापन किया जाए। 
  • अधिगम की क्रियाओं में छात्रों की तल्लीनता की भी जाँच की जाए।  
  • छात्रों की समस्या-समाधान प्रवृति का भी मापन किया जाए। 
  • छात्रों की आलोचनात्मक तथा सर्जनात्मक क्षमताओं के विकास का भी मूल्यांकन किया जाए। 
चिन्तन स्तर के शिक्षण के लिए सुझाव
  • इस स्तर में शिक्षण के पूर्व स्मृति तथा बोध-स्तर का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। 
  • प्रत्येक संबन्धित सोपान का अनुसरण किया जाना चाहिए।  
  • छात्रों का आकांक्षा स्तर ऊँचा होना चाहिए। 
  • छात्र में सहानुभूति, प्रेम तथा संवेदनशीलता होनी चाहिए। 
  • छात्र को समस्याओं के प्रति तथा अपनी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में अधिक संवेदनशील होना चाहिए। 
  • चिन्तन स्तर के शिक्षण का महत्व बताया जाना चाहिए। 
  • ज्ञानात्मक विकास की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। 
  • छात्रों को अधिक से अधिक मौलिक तथा सृजनात्मक चिन्तन के लिए अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। 
  • शिक्षण का वातावरण प्रजातान्त्रिक होना चाहिए।  
  • छात्रों को अधिक से अधिक सही चिन्तन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।  
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Tuesday, August 13, 2019

मॉरिसन शिक्षण मॉडल Morrison Teaching Model

मॉरिसन शिक्षण मॉडल Morrison Teaching Model

मॉरिसन शिक्षण मॉडल Morrison Teaching Model

     मॉरिसन शिक्षण मॉडल को बोध स्तर या समझ स्तर की शिक्षण व्यवस्था भी कहते है। शिक्षण के क्षेत्र में बोध एक बहुत व्यापक शब्द है। बोध शब्द को मनोवैज्ञानिको तथा शिक्षाशास्त्रीयों ने कई अर्थों में प्रयुक्त किया है, इसलिए शिक्षक भी इस शब्द को अनिश्चित ढंग से प्रस्तुत करता है। शब्दकोश में भी इसके कई अर्थ दिये गए है, जैसे-

  • अर्थ का प्रत्यक्षीकरण करना,
  • विचारों का बोध होना,
  • गहनता से परिचित होना 
  • प्रकृति एवं स्वभाव को समझना 
  • भाषा में प्रयुक्त होने वाले अर्थ को समझना तथा तथ्य के रूप में स्पष्ट हो जाना। 
       मौरिस एल विग्गी ने बोध का प्रयोग निम्नलिखित तीन पक्षों को स्पष्ट करने के लिए किया है-
  1. विभिन्न तथ्यों में सम्बन्ध देखना
  2. तथ्यों को संचालन के रूप में देखना
  3. तथ्यों के सम्बन्ध तथा संचालन दोनों को समन्वित करना

     बोध स्तर के शिक्षण के लिए यह आवश्यक है कि इससे पूर्व स्मृति स्तर पर शिक्षण हो चुका हो। इसके बिना बोध स्तर शिक्षण सफल नहीं हो सकता। शिक्षक इस स्तर पर छात्रों को सामान्यीकरण सिद्धांतों तथा तथ्यों के सम्बन्ध का बोध करता है और शिक्षण प्रक्रिया को अर्थपूर्ण तथा सार्थक बनाता है। बोध स्तर के शिक्षण में शिक्षक छात्रों के समक्ष पाठ्य-वस्तु को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि छात्रों को बोध के लिए अधिक-से अधिक अवसर मिले और छात्रों में अधिक सूझ-बूझ उत्पन्न हो सके। इस प्रकार के शिक्षण में शिक्षक और छात्र दोनों ही सक्रिय रहते है। बोध स्तर का शिक्षण उद्देश्य केन्द्रित तथा सूझ-बूझ से युक्त होता है। मूल्यांकन के लिए निबंधात्मक तथा वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार की प्रणाली का अनुसरण किया जाता है। प्रणाली का प्रयोग तथ्यात्मक तथा विवरणात्मक दोनों प्रकार से किया जाता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रत्यास्मरण, अभिज्ञान तथा लघु उत्तर विधियों का प्रयोग किया जाता है।

मॉरिसन का बोध स्तर शिक्षण मॉडल

मॉरिसन ने बोध स्तर के शिक्षण मॉडल को चार चरणों में प्रस्तुत किया है, जिनका विवरण इस प्रकार है-
1- उद्देश्य
2- संरचना
3- सामाजिक प्रणाली
4- मूल्यांकन प्रणाली

उद्देश्य

मॉरिसन के प्रतिमान का उद्देश्य प्रत्यय का स्वामित्व प्राप्त करना है। इसमें शिक्षण की क्रियाओं द्वारा तथ्यों के रहने पर ही बल नहीं दिया जाता, अपितु पाठ्य-वस्तु के स्वामित्व पर भी बल दिया जाता है। इस स्तर पर छात्रों के व्यक्तित्व के विकास को भी ध्यान में रखा जाता है।

संरचना

मॉरिसन ने बोध स्तर की शिक्षण व्यवस्था को पाँच सोपानों में विभाजित किया है-
1- अन्वेषण
2- प्रस्तुतीकरण
3- परिपाक
4- व्यवस्था
5- वर्णन

1- अन्वेषण

इस सोपान में निम्नलिखित क्रियाएँ सम्मिलित की जाती है-
  • पूर्व ज्ञान का पता लगाने के लिए परीक्षण करना, जिसमें प्रश्न पूछे जाते है। इसे पूर्व व्यवहार भी कहते है।
  • शिक्षक पाठ्य-वस्तु का विश्लेषण करके उसके अवयवों को क्रमबद्ध रूप में तर्कपूर्ण ढंग से व्यवस्थित करता है। इसमें यह ध्यान रखना होता है कि पाठ्य-वस्तु का क्रम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वैध हो।
  • अन्वेषण की तीसरी क्रिया में शिक्षक यह निश्चित करता है कि नवीन पाठ्य-वस्तु की इकाइयों को किस प्रकार प्रस्तुत किया जाए।

2- प्रस्तुतीकरण

इस सोपान में निम्नलिखित तीन क्रियाएँ शामिल होती है-
  • शिक्षक को नवीन पाठ्य-वस्तु की छोटी-छोटी इकाइयों में प्रस्तुत करना होता है जिससे कि शिक्षक का छात्रों से सम्बन्ध स्थापित हो सके।
  • इस सोपान में शिक्षक को प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ छात्रों की समस्याओं का निदान भी करना होता है।
  • निदान के आधार पर शिक्षक को यह निर्णय लेना होता है कि पाठ्य-वस्तु की पुनरावृति कितनी बार की जानी चाहिए। 
  • नवीन पाठ्य-वस्तु की पुनरावृति तीन बार तक की जा सकती है।

3- परिपाक

जब छात्र प्रस्तुतीकरण की परीक्षा को उत्तीर्ण कर ले, तब उन्हें परिपाक की ओर अग्रसर करना चाहिए।
इस सोपान की निम्नलिखित विशेषताएँ है-
  • परिपाक का लक्ष्य पाठ्य-वस्तु की गहनता पर बल देना है । 
  • परिपाक के समय छात्रों की व्यक्तिगत क्रियाओं पर अधिक बल दिया जाता है। 
  • परिपाक के समय छात्रों को पुस्तकालय तथा प्रयोगशाला में अधिक समय दिया जाता है।  
  • परिपाक क्रिया के समय छात्र को गृह कार्य दिया जाता है। 
  • परिपाक के समय शिक्षक का मुख्य कार्य छात्रों को निर्देश देना और उनकी क्रियाओं का पर्यवेक्षण करना है
  • परिपाक का मौलिक उद्देश्य छात्रों को सामान्यीकरण के लिए अवसर देना है, जिससे कि वे प्रत्यय पर स्वामित्व प्राप्त कर सके। 
  • परिपाक के कालांश के अन्त में पाठ्य-वस्तु के स्वामित्व का परीक्षण किया जाए और इसमें असफल छात्रों को पुनः अवसर दिया जाना चाहिए । 

4- व्यवस्था

जब छात्र स्वामित्व परीक्षा में सफल हो जाता है तब परिपाक का कालांश समाप्त हो जाता है।
इसके बाद छात्र व्यवस्था कालांश अथवा वर्णन कालांश में प्रवेश करता है। यह पाठ्य-वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है कि छात्र परिपाक के बाद व्यवस्था की ओर अथवा वर्णन की अग्रसर हो। मॉरिसन के व्यवस्था कालांश से तात्पर्य छात्र द्वारा पाठ्य-वस्तु को अपनी भाषा में लिखित रूप में प्रस्तुत करना से है। बोधगम्यता का यह अन्तिम सोपान स्वामित्व का सोपान माना जाता है। व्यवस्था सोपान में यह सुनिश्चित किया जाता है कि छात्र पाठ्य-वस्तु की प्रमुख इकाइयों को लिखित रूप में बिना किसी सहायता से पुनः प्रस्तुत कर सकता है अथवा नहीं। व्यवस्था स्तर पर विषय-वस्तु को विस्तार रूप से समझने का प्रयास किया जाता है। सीखने की एक इकाई से अनेक तथ्यों का बोध किया जाता है। व्याकरण, गणित और अंकगणित में लिखित रूप में बिना किसी की सहायता के पुनः प्रस्तुतीकरण नहीं होता अतः इस विषय में छात्र व्यवस्था कालांश को छोड़कर सीधे वर्णन कालांश में प्रवेश करता है।

5- वर्णन

वर्णन कालांश में प्रत्येक छात्र को मौखिक रूप में पाठ्य-वस्तु को शिक्षक तथा अपने साथियों के सामने प्रस्तुत करना होता है। इस सोपान में वह सीखे हुये विषय का सारांश सबके सामने प्रस्तुत करता है। मॉरिसन का स्वामित्व, वर्णन की एक विधि है, जिसमें प्रत्येक दिन का वर्णन कालांश में होता है।  वर्णन स्तर को लिखित रूप में भी दिया जा सकता है।

सामाजिक प्रणाली 

बोध स्तर में शिक्षण की सामाजिक प्रणाली विभिन्न सोपनों में बदलती रहती है। सामाजिक प्रणाली के विभिन्न सोपान निम्नलिखित है-
  • इस प्रणाली में शिक्षक व्यवहार का नियंत्रक होता है। 
  • शिक्षक एवं छात्र दोनों सक्रिय रहते है। 
  • छात्र अपने विचार प्रदर्शित कर सकता है। 
  • इस प्रणाली में बाह्य एवं आंतरिक दोनों प्रकार की प्रेरणाएँ उपयोगी होती है। 
  • सामाजिक व्यवस्था के प्रथम दो सोपनों में शिक्षक और अन्तिम तीन सोपनों में छात्र-शिक्षक दोनों ही अधिक क्रियाशील हो जाते है। 

मूल्यांकन प्रणाली

मूलयांकन प्रणाली में आवश्यकतानुसार लिखित, मौखिक, निबंधात्मक तथा वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन विधियों का प्रयोग किया जाता है। इस स्तर पर प्रत्ययों के स्पष्टीकरण पर अधिक बल दिया जाता है।

बोध-स्तर के शिक्षण के लिए सुझाव

  1. स्मृति-स्तर शिक्षण की परीक्षा में सफल होने पर ही छात्र को बोध-स्तर के शिक्षण में प्रवेश दिया जाना चाहिए
  2. बोध-स्तर के सोपानों का अनुसरण समुचित ढंग से किया जाना चाहिए। 
  3. बोध-स्तर के विभिन्न सोपनों की परीक्षाओं में सफल होने पर ही अगले सोपान में प्रविष्ट किया जाना चाहिए। 
  4. शिक्षक को पाठ्य-वस्तु में तल्लीन होने के साथ-साथ छात्रों को मनोवैज्ञानिक ढंग से अभिप्रेरणा भी देनी चाहिए। 
  5. शिक्षक को कक्षा के आकांक्षा स्तर को भी उठाने का प्रयास करना चाहिए, जिससे छात्रों में अध्ययन के प्रति लगन हो सके। 
  6. इस स्तर की शिक्षण व्यवस्था की समस्याओं को ध्यान में रखकर उनके लिए समाधान भी ज्ञात करना चाहिए।

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