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Sunday, December 10, 2023

वैशेषिक दर्शन / कणाद दर्शन / औलूक्य दर्शन / काश्यपीय दर्शन

वैशेषिक दर्शन एक सामान्य परिचय 

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं। उनका वास्तविक नाम उलूक था।यह दर्शन कणाद या औलक्य दर्शन के नाम से भी जाना जाता है।इस दर्शन में 'विशेषनामक पदार्थ की विशद् रूप से विवेचना हैइसलिए यह दर्शन वैशेषिक कहलाता है।वैशेषिक साहित्य पर कणाद का 'वैशेषिक सूत्रप्रमुख ग्रन्थ है।

पदार्थ की अवधारणा तथा इसके प्रकार

     अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति वैशेषिक दर्शन में भी 'मोक्षको जीवन का परम आध्यात्मिक लक्ष्य माना गया है तथा इस मोक्ष की प्राप्ति हेतु तत्त्वज्ञान को आवश्यक माना गया है। अतः तत्त्व के सम्यक् ज्ञान के लिए पदार्थ की विवेचना प्रासंगिक है। पदार्थ क्या हैशाब्दिक दृष्टिकोण से पदार्थ का अर्थ हैपद से सांकेतिक वस्तु अर्थात् पद का अर्थ ही पदार्थ है। शिवादित्य के 'सप्त पदार्थीके अनुसार यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के जो विषय हैंवही पदार्थ हैं।

     वैशेषिक सूत्र के भाष्यकार प्रशस्तपाद के अनुसार, 'पदार्थ वह है जो सत् हैज्ञेय है तथा अभिधेय है'। तात्पर्य-पदार्थ वह हैजिसका अस्तित्व हैजिसका ज्ञान हम प्राप्त कर सकते हैं तथा जिसका कोई नाम है। वैशेषिक दर्शन के अनुसारजिसका भी अस्तित्व है या जो भी सत् है वह सात पदार्थों में से कोई एक पदार्थ है। तात्पर्य-समस्त विषय इन्हीं सात पदार्थों में ही समाहित हैंये सात पदार्थ हैं-

  1. द्रव्य,
  2. गुण,
  3. कर्म,
  4. सामान्य,
  5. विशेष,
  6. समवाय तथा
  7. अभाव।

1- द्रव्य

     द्रव्यगुण तथा क्रिया का आधार तथा समस्त सावयव वस्तुओं का उपादान कारण है। वैशेषिकों के अनुसार द्रव्य 9 प्रकार के हैं-

    पंचमहाभूत, (पृथ्वीअग्निजलवायु तथा आकाश)

    दिक्-काल,

    मन और

    आत्मा।

     उल्लेखनीय है कि पंचमहाभूतों-पृथ्वीअग्निजलवायु तथा आकाश में से आकाश के परमाणु नहीं होतेशेष चार भूतों के परमाणु होते हैं तथा ये परमाणु नित्य हैंकिन्तु इनके मिलने से जो कुछ भी बनता है वह अनित्य है अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होता है। संसार की समस्त वस्तुएँ इन्हीं भूतों के संयोग से उत्पन्न हुई हैं तथा अनित्य हैं। वस्तु के नष्ट होने पर भी परमाणु नष्ट नहीं होतेक्योंकि परमाणु नित्य हैं। वैशेषिकों के अनुसारद्रव्य पर ही 'गुणतथा कर्म ये दोनों पदार्थ निर्भर करते हैं।

वैशेषिक दर्शन में पदार्थ एवं द्रव्य

पदार्थ                      

द्रव्य

द्रव्य                       

पृथ्वी

गुण                        

जल

कर्म                        

तेज

सामान्य                   

वायु

विशेष                     

आकाश

समवाय                    

काल

अभाव                     

दिक

 

आत्मा

 

मन

2- गुण

   वैशेषिक के अनुसार पंचमहाभूतों के पाँच गुण-रूपरसगन्धस्पर्श तथा शब्द तथा आत्मा के छगुण-इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःख तथा ज्ञान आदि तथा अन्य कुछ गुणों को मिलाकर कुल 24 गुणों का उल्लेख किया गया है।

वैशेषिक दर्शन में गुणों की संख्या

  1. रूप
  2. रस
  3. गन्ध
  4. स्पर्श
  5. संख्या
  6. परिणाम
  7. पृथकत्व
  8. संयोग
  9. वियोग
  10. दूरी
  11. समीपता
  12. बुद्धि
  13. सुख
  14. दुःख
  15. इच्छा
  16. द्वेष
  17. प्रयत्न
  18. गुरुत्व
  19. द्रवत्व
  20. स्नेह
  21. संस्कार
  22. धर्म
  23. अधर्म
  24. शब्द

3- कर्म

     कर्म या क्रिया का आधार द्रव्य है। कर्म मूर्त द्रव्यों का गतिशील व्यापार है। कर्म का निवास सर्वव्यापी द्रव्यों (जैसे-आकाशमें नहीं होताक्योंकि वे स्थान परिवर्तन से शून्य हैं। द्रव्य की दो विशेषताएँ होती हैंसक्रियता तथा निष्क्रियता। कर्म द्रव्य का सक्रिय रूप तथा गुण द्रव्य का निष्क्रिय रूप है।

कर्म के प्रकार

   कर्म या क्रिया पाँच प्रकार की होती हैं-

  1. उत्प्रेक्षण-ऊपर जाना
  2. अवक्षेपण-नीचे जाना
  3. संकुचन
  4. प्रसारण-विस्तार
  5. गमन

4- सामान्य

     सामान्य वह पदार्थ है जिसके कारण एक ही प्रकार के विभिन्न व्यक्तियों या वस्तुओं को एक जाति के अन्दर रखा जाता है। एक ही वर्ग के व्यक्तियों या वस्तुओं का एक सामान्य होता हैकभी भी अकेली वस्तु का सामान्य नहीं हो सकताजैसे-आकाश। सामान्य द्रव्यगुण और कर्म में रहता है विशेषसमवाय तथा अभाव का सामान्य नहीं होता।

     सामान्य का ज्ञान सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त होता है। यद्यपि सामान्य वास्तविक है तथापि यह अन्य व्यक्तियों और वस्तुओं के समान देश और काल में स्थित नहीं है। यह सत्ताभाव मात्र है अस्तित्व नहीं। व्यापकता की दृष्टि से सामान्य की तीन श्रेणियाँ हैं-

  1. पर सामान्य,
  2. अपर सामान्य तथा
  3. पर-अपर सामान्य।

   पर सामान्य संसार की प्रत्येक वस्तु में सर्वाधिक व्यापक सामान्य है। इसके अन्तर्गत अस्तित्व या सत् को सम्मिलित किया जाता हैक्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु सत् है अतसत् एक उच्चतर सामान्य (सर्वाधिक व्यापकहै।

    अपर सामान्य को निम्नतर सामान्य भी कहते हैंइसके अन्तर्गत उन सामान्यों को सम्मिलित किया जाता हैजिनकी व्यापकता सबसे कम हैजैसे-गोत्वमनुष्यत्व आदि। 

    पर-अपर सामान्य वह सामान्य हैजिसकी व्यापकता पर सामान्य से कम तथा अपर सामान्य से ज्यादा होती है।

सामान्य के प्रकार

सामान्य के तीन प्रकार हैं

  1. पर जो सर्वाधिक व्यापक हैजैसे-सत्ता
  2. अपर जो सबसे कम व्यापक हैजैसे-घटत्व
  3. पर-अपर जो पर एवं अपर के बीच व्यापकता रखता हैजैसे-द्रव्यत्व

5- विशेष

    एक ही प्रकार के दो परमाणुओं का विभेदक 'विशेषकहलाता हैजैसे-पृथ्वी के दो परमाणु जिनका गुण तो गन्ध ही है किन्तु दोनों एक-दूसरे से पृथक् हैंक्योंकि दोनों का अपना-अपना विशेष है। अतविशेष वह पदार्थ है जो एक ही प्रकार के दो नित्य द्रव्यों का विभेदक है।

6- समवाय

    यह नित्य सम्बन्ध सूचक पदार्थ है। यह नित्य सम्बन्ध दो ऐसे पदार्थों में पाया जाता है जो सदैव साथ साथ रहते हैं। इनमें से एक पदार्थ ऐसा होता है जो दूसरे पर आश्रित होकर रहता है। ये दोनों पदार्थ एक-दूसरे से अपृथक् होते हैंजैसे-द्रव्य और गुणभाग और पूर्णक्रियावान और क्रियाविशेष और सामान्यनित्य द्रव्य और विशेष आदि। वैशेषिकों ने समवाय को एक भाव पदार्थ के रूप में स्वीकार किया है तथा कहा है कि जिन दो पदार्थों के बीच समवाय सम्बन्ध पाया जाता है यदि उन्हें पृथक् किया जाए तो उनमें से एक का विनाश अपरिहार्य है।

7- अभाव

     न्याय-वैशेषिक दर्शन में अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इनके अनुसार किसी स्थान विशेषकाल विशेष में किसी वस्तु का उपस्थित नहीं होना 'अभावहै। यहाँ अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया हैक्योंकि अभाव का शाब्दिक अर्थ 'नहीं होना। किसी वस्तु के अभाव को सूचित करता हैइसे ज्ञान का विषय बनाया जा सकता हैइसे नाम दिया जा सकता है। यदि अभाव को स्वीकार न किया जाए तो असत्कार्यवाद तथा मोक्ष की संगत व्याख्या सम्भव नहीं है। वैशेषिक में अभाव के दो प्रकार बताए गए हैंअन्योन्याभाव तथा संसर्गाभाव को पुनतीन भागों में बाँटा गया है

  1. प्राग् भाव,
  2. प्रध्वंसाभाव तथा
  3. अत्यन्ताभाव।

    न्याय वैशेषिक ने अपना उपरोक्त जो पदार्थ विचार प्रस्तुत किया है उसकी कई आधारों पर आलोचना होती हैजैसे-शंकर का विचार है कि वैशेषिक के बहुत्ववाद से सांख्य का द्वैतवाद बेहतर हैक्योंकि वह सांख्य जगत का विभाजन जड़ व चेतन नामक दो मौलिक कोटियों में करता हैजबकि वैशेषिक को सात कोटियों की आवश्यकता पड़ती है। यदि जगत का विभाजन करना ही है तो सात ही कोटियाँ क्योंइससे कम या अधिक क्यों नहींजगत का विभाजन अनन्त कोटियों में भी हो सकता है और यदि मौलिक कोटियों को भी स्वीकार करना है तो चित् व अचित् की दो कोटियाँ ही पर्याप्त हैं।

     वैशेषिक की द्रव्य की अवधारणा अन्तर्विरोधग्रस्त है। सापेक्ष द्रव्य आत्म व्याघाती है। द्रव्य अनिवार्यतनिरपेक्ष ही हो सकता हैकिन्तु वैशेषिक का द्रव्य गुण से सदैव संयुक्त रहता है। यह गुण से स्वतन्त्र द्रव्य की स्थापना नहीं कर पाता है। वैशेषिक की सामान्य अवधारणा भी तर्कपूर्ण नहीं हैक्योंकि वस्तुवादी होने के कारण वह सामान्य को वस्तुनिष्ठ घोषित करता हैजबकि वास्तविकता यह है कि सामान्य का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व सम्भव नहींक्योंकि सामान्य आकारिक (मानसिकहोता है। 'विशेषवैशेषिक की कल्पना मात्र हैविशेष कोई तात्त्विक तत्त्व नहीं है। यह दो तादात्म्यक वस्तुओं में उनकी पृथक्ता के कारण होता है न कि विशेष के कारण। समवाय विचार में अनावस्था दोष हैक्योंकि दो पदार्थों को जोड़ने के लिए एक तीसरे पदार्थ के रूप में समवाय पदार्थ को मानना आवश्यक है। चूंकि समवाय एक नित्य पदार्थ हैअतयह अकेला नहीं रह सकता। इसके साथ एक विशेष का होना अनिवार्य है। पुनः समवाय और विशेष को जोड़ने के लिए एक समवाय पदार्थ की आवश्यकता पड़ेगी और इस क्रम में अनावस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। रामानुज के अनुसारसमवाय एक आन्तरिक नहींबल्कि बाह्य सम्बन्ध हैक्योंकि समवाय से जुड़ी वस्तुएँ एक-दूसरे से पृथक् होती हैं।

वैशेषिक दर्शन में द्रव्य की अवधारणा 

     द्रव्यगुण तथा क्रिया का आधार तथा समस्त सावयव वस्तुओं का उपादान कारण है। वैशेषिकों के अनुसार द्रव्य 9 प्रकार के हैं-

    पंचमहाभूत, (पृथ्वीअग्निजलवायु तथा आकाश)

    दिक्-काल,

    मन और

    आत्मा।

     उल्लेखनीय है कि पंचमहाभूतों-पृथ्वीअग्निजलवायु तथा आकाश में से आकाश के परमाणु नहीं होतेशेष चार भूतों के परमाणु होते हैं तथा ये परमाणु नित्य हैंकिन्तु इनके मिलने से जो कुछ भी बनता है वह अनित्य है अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होता है। संसार की समस्त वस्तुएँ इन्हीं भूतों के संयोग से उत्पन्न हुई हैं तथा अनित्य हैं। वस्तु के नष्ट होने पर भी परमाणु नष्ट नहीं होतेक्योंकि परमाणु नित्य हैं। वैशेषिकों के अनुसारद्रव्य पर ही 'गुणतथा कर्म ये दोनों पदार्थ निर्भर करते हैं।

वैशेषिक दर्शन में गुणों की अवधारणा 

     वैशेषिक के अनुसार पंचमहाभूतों के पाँच गुण-रूपरसगन्धस्पर्श तथा शब्द तथा आत्मा के छगुण-इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःख तथा ज्ञान आदि तथा अन्य कुछ गुणों को मिलाकर कुल 24 गुणों का उल्लेख किया गया है।

वैशेषिक दर्शन में गुणों की संख्या

  1. रूप
  2. रस
  3. गन्ध
  4. स्पर्श
  5. संख्या
  6. परिणाम
  7. पृथकत्व
  8. संयोग
  9. वियोग
  10. दूरी
  11. समीपता
  12. बुद्धि
  13. सुख
  14. दुःख
  15. इच्छा
  16. द्वेष
  17. प्रयत्न
  18. गुरुत्व
  19. द्रवत्व
  20. स्नेह
  21. संस्कार
  22. धर्म
  23. अधर्म
  24. शब्द

वैशेषिक दर्शन में कर्म की अवधारणा 

    कर्म या क्रिया का आधार द्रव्य है। कर्म मूर्त द्रव्यों का गतिशील व्यापार है। कर्म का निवास सर्वव्यापी द्रव्यों (जैसे-आकाशमें नहीं होताक्योंकि वे स्थान परिवर्तन से शून्य हैं। द्रव्य की दो विशेषताएँ होती हैंसक्रियता तथा निष्क्रियता। कर्म द्रव्य का सक्रिय रूप तथा गुण द्रव्य का निष्क्रिय रूप है।

कर्म के प्रकार

कर्म या क्रिया पाँच प्रकार की होती हैं-

  1. उत्प्रेक्षण-ऊपर जाना
  2. अवक्षेपण-नीचे जाना
  3. संकुचन
  4. प्रसारण-विस्तार
  5. गमन

वैशेषिक दर्शन में सामान्य की अवधारणा 

    सामान्य वह पदार्थ है जिसके कारण एक ही प्रकार के विभिन्न व्यक्तियों या वस्तुओं को एक जाति के अन्दर रखा जाता है। एक ही वर्ग के व्यक्तियों या वस्तुओं का एक सामान्य होता हैकभी भी अकेली वस्तु का सामान्य नहीं हो सकताजैसे-आकाश। सामान्य द्रव्यगुण और कर्म में रहता है विशेषसमवाय तथा अभाव का सामान्य नहीं होता।

     सामान्य का ज्ञान सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त होता है। यद्यपि सामान्य वास्तविक है तथापि यह अन्य व्यक्तियों और वस्तुओं के समान देश और काल में स्थित नहीं है। यह सत्ताभाव मात्र है अस्तित्व नहीं। व्यापकता की दृष्टि से सामान्य की तीन श्रेणियाँ हैं-

  1. पर सामान्य,
  2. अपर सामान्य तथा
  3. पर-अपर सामान्य।

पर सामान्य 

    संसार की प्रत्येक वस्तु में सर्वाधिक व्यापक सामान्य है। इसके अन्तर्गत अस्तित्व या सत् को सम्मिलित किया जाता हैक्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु सत् है अतसत् एक उच्चतर सामान्य (सर्वाधिक व्यापकहै।

अपर सामान्य 

    अपर सामान्य को निम्नतर सामान्य भी कहते हैंइसके अन्तर्गत उन सामान्यों को सम्मिलित किया जाता हैजिनकी व्यापकता सबसे कम हैजैसे-गोत्वमनुष्यत्व आदि। 

पर-अपर सामान्य

    पर-अपर सामान्य वह सामान्य हैजिसकी व्यापकता पर सामान्य से कम तथा अपर सामान्य से ज्यादा होती है।

सामान्य के प्रकार

सामान्य के तीन प्रकार हैं

  1. पर जो सर्वाधिक व्यापक हैजैसे-सत्ता
  2. अपर जो सबसे कम व्यापक हैजैसे-घटत्व
  3. पर-अपर जो पर एवं अपर के बीच व्यापकता रखता हैजैसे-द्रव्यत्व

वैशेषिक दर्शन में विशेष की अवधारणा 

    एक ही प्रकार के दो परमाणुओं का विभेदक 'विशेषकहलाता हैजैसे-पृथ्वी के दो परमाणु जिनका गुण तो गन्ध ही है किन्तु दोनों एक-दूसरे से पृथक् हैंक्योंकि दोनों का अपना-अपना विशेष है। अतविशेष वह पदार्थ है जो एक ही प्रकार के दो नित्य द्रव्यों का विभेदक है।

वैशेषिक दर्शन में समवाय की अवधारणा 

     यह नित्य सम्बन्ध सूचक पदार्थ है। यह नित्य सम्बन्ध दो ऐसे पदार्थों में पाया जाता है जो सदैव साथ साथ रहते हैं। इनमें से एक पदार्थ ऐसा होता है जो दूसरे पर आश्रित होकर रहता है। ये दोनों पदार्थ एक-दूसरे से अपृथक् होते हैंजैसे-द्रव्य और गुणभाग और पूर्णक्रियावान और क्रियाविशेष और सामान्यनित्य द्रव्य और विशेष आदि। वैशेषिकों ने समवाय को एक भाव पदार्थ के रूप में स्वीकार किया है तथा कहा है कि जिन दो पदार्थों के बीच समवाय सम्बन्ध पाया जाता है यदि उन्हें पृथक् किया जाए तो उनमें से एक का विनाश अपरिहार्य है।

वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा 

    न्याय-वैशेषिक दर्शन में अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इनके अनुसार किसी स्थान विशेषकाल विशेष में किसी वस्तु का उपस्थित नहीं होना 'अभावहै। यहाँ अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया हैक्योंकि अभाव का शाब्दिक अर्थ 'नहीं होना। किसी वस्तु के अभाव को सूचित करता हैइसे ज्ञान का विषय बनाया जा सकता हैइसे नाम दिया जा सकता है। यदि अभाव को स्वीकार न किया जाए तो असत्कार्यवाद तथा मोक्ष की संगत व्याख्या सम्भव नहीं है। वैशेषिक में अभाव के दो प्रकार बताए गए हैंअन्योन्याभाव तथा संसर्गाभाव को पुनतीन भागों में बाँटा गया है

  1. प्राग् भाव,
  2. प्रध्वंसाभाव तथा
  3. अत्यन्ताभाव।

     न्याय वैशेषिक ने अपना उपरोक्त जो पदार्थ विचार प्रस्तुत किया है उसकी कई आधारों पर आलोचना होती हैजैसे-शंकर का विचार है कि वैशेषिक के बहुत्ववाद से सांख्य का द्वैतवाद बेहतर हैक्योंकि वह सांख्य जगत का विभाजन जड़ व चेतन नामक दो मौलिक कोटियों में करता हैजबकि वैशेषिक को सात कोटियों की आवश्यकता पड़ती है। यदि जगत का विभाजन करना ही है तो सात ही कोटियाँ क्योंइससे कम या अधिक क्यों नहींजगत का विभाजन अनन्त कोटियों में भी हो सकता है और यदि मौलिक कोटियों को भी स्वीकार करना है तो चित् व अचित् की दो कोटियाँ ही पर्याप्त हैं।

     वैशेषिक की द्रव्य की अवधारणा अन्तर्विरोधग्रस्त है। सापेक्ष द्रव्य आत्म व्याघाती है। द्रव्य अनिवार्यतनिरपेक्ष ही हो सकता हैकिन्तु वैशेषिक का द्रव्य गुण से सदैव संयुक्त रहता है। यह गुण से स्वतन्त्र द्रव्य की स्थापना नहीं कर पाता है। वैशेषिक की सामान्य अवधारणा भी तर्कपूर्ण नहीं हैक्योंकि वस्तुवादी होने के कारण वह सामान्य को वस्तुनिष्ठ घोषित करता हैजबकि वास्तविकता यह है कि सामान्य का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व सम्भव नहींक्योंकि सामान्य आकारिक (मानसिकहोता है। 'विशेषवैशेषिक की कल्पना मात्र हैविशेष कोई तात्त्विक तत्त्व नहीं है। यह दो तादात्म्यक वस्तुओं में उनकी पृथक्ता के कारण होता है न कि विशेष के कारण। समवाय विचार में अनावस्था दोष हैक्योंकि दो पदार्थों को जोड़ने के लिए एक तीसरे पदार्थ के रूप में समवाय पदार्थ को मानना आवश्यक है। चूंकि समवाय एक नित्य पदार्थ हैअतयह अकेला नहीं रह सकता। इसके साथ एक विशेष का होना अनिवार्य है। पुनः समवाय और विशेष को जोड़ने के लिए एक समवाय पदार्थ की आवश्यकता पड़ेगी और इस क्रम में अनावस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। रामानुज के अनुसारसमवाय एक आन्तरिक नहींबल्कि बाह्य सम्बन्ध हैक्योंकि समवाय से जुड़ी वस्तुएँ एक-दूसरे से पृथक् होती हैं।

वैशेषिक दर्शन का असत्कार्यवाद सिद्धान्त 

    असत्कार्यवाद वैशेषिक दर्शन का कारण कार्य नियम है। पुनः वैशेषिक दर्शन के अनुसार कारण-कार्य नियम स्वयं-सिद्ध है। कारण किसी वस्तु का पूर्ववर्ती एवं कार्य उत्तरवर्ती होता हैपरन्तु सभी पूर्ववर्ती को कारण नहीं कहा जा सकता है। पूर्ववर्ती दो प्रकार के होते हैं-

  1. नियत पूर्ववर्ती
  2. अनियत पूर्ववर्ती

नियत पूर्ववर्ती 

वह पूर्ववर्ती जो घटना विशेष के पूर्व निरन्तर आता हैजैसे-वर्षा के पूर्व आकाश में बादल का रहना।

अनियत पूर्ववर्ती 

    जो घटना के पूर्व कभी आता हैकभी नहीं आता है। वर्षा होने के पूर्व बच्चे का शोर करना अनियत पूर्ववर्ती हैक्योंकि जब-जब वर्षा होती है तब-तब बच्चे शोर नहीं करते। वैशेषिक के अनुसारकारण नियत पूर्ववर्ती होता है।

    कारण की एक अन्य विशेषता तात्कालिकता है अर्थात् जो पूर्ववर्ती घटना कार्य के ठीक पूर्व आयी होउसे कारण कहा जा सकता है। वैशेषिक के कारण की व्याख्या पाश्चात्य दार्शनिक मिल की तरह हैदोनों ही कारण को नियतनिरूपाधिक और तात्कालिक पूर्ववर्ती मानते हैं।

    वैशेषिक दर्शन में किसी एक कार्य के लिए अनेक कारणों को स्वीकार नहीं किया गया है। कार्य अपने कारण के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से उत्पन्न ही नहीं हो सकता। कारण अनेक तभी प्रतीत होते हैं जब हम कार्य की विशेषताओं पर पूर्ण रूप से ध्यान नहीं देते। यदि कारण को अनेक माना जाए तो अनुमान करना सम्भव नहीं है कि किसी कार्य का कारण क्या है।

असत्कार्यवाद की सिद्धि हेतु उक्तियाँ

न्याय दार्शनिकों ने अपने असत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिए निम्नांकित उक्तियाँ दी हैं-

    यदि कार्य उत्पत्ति से पूर्व कारण में निहित रहता तब निमित्त कारण की आवश्यकता नहीं होती। यदि मिट्टी में ही घड़ा निहित रहता तो कुम्हार की कोई आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए थी अर्थात् मिट्टी से घड़े को अपने आप उत्पन्न हो जाना चाहिए था।

    यदि कार्य उत्पत्ति से पूर्व कारण में रहता तब फिर कार्य की उत्पत्ति के बाद ऐसा कहा जाना कि कार्य की उत्पत्ति हई', यह उत्पन्न हुआ आदि सर्वथा अर्थहीन मालूम होतापरन्तु हम यह जानते हैं कि इन वाक्यों का प्रयोग होता हैजो सिद्ध करता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं था।

    यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में ही निहित रहता तब कारण और कार्य का भेद करना असम्भव हो जातापरन्तु हम कारण और कार्य के बीच भिन्नता का अनुभव करते हैं। मिट्टी और घड़े में भेद किया जाता है। अतः कार्य की सत्ता कारण में नहीं है।

    यदि कार्य व कारण अभिन्न हैं तो ऐसी स्थिति में दोनों से एक ही प्रयोजन की पूर्ति होनी चाहिएपरन्तु हम पाते हैं कि कार्य का प्रयोजन कारण के प्रयोजन से भिन्न होता हैजैसे-घड़े में पानी जमा किया जाता हैपरन्तु मिट्टी के द्वारा यह काम पूरा नहीं हो सकता।

    यदि कार्य कारण में निहित रहता तब ‘कारण व कार्यके लिए एक ही शब्द का प्रयोग किया जातापरन्तु दोनों के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग इसलिए हुआ हैक्योंकि न्याय दर्शन में बहुकारणवाद के सिद्धान्त का खण्डन हुआ है। न्याय के अनुसार कारण-कार्य में व्यतिरेकी सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध का यह अर्थ है कि जब कारण रहता है तभी कार्य होता है। कारण के अभाव में कार्य का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।

    वैशेषिक न्याय मतानुसारकार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं रहता। कार्य एक नई सृष्टि है। उसकी सत्ता का आरम्भ उसकी उत्पत्ति के साथ होता है। वैशेषिक के कारण-कार्य सिद्धान्त को असत्कार्यवाद कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पर्व कारण में अन्तर्भत नहीं है। अतः असत्कार्यवाद उस सिद्धान्त को कहते हैं जिसके अनुसार कार्य का अस्तित्व कारण में नहीं है। इस सिद्धान्त को 'आरम्भवादभी कहा जाता है क्योंकि यह कार्य को एक नवीन उत्पत्ति मानता है। इस प्रकार दर्शन के क्षेत्र में असत्कार्यवाद के सिद्धान्त का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। न्याय तथा वैशेषिक दर्शन के अतिरिक्त इस सिद्धान्त को जैनबौद्ध और मीमांसा दर्शन ने भी अपनाया है।

नोट- न्याय तथा वैशेषिक दर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त अर्थात् असत्कार्यवाद का सिद्धान्त एक ही है।

वैशेषिक दर्शन का कारणता सिद्धान्त  

     कार्य के नियत रूप में पूर्ववर्ती को कारण कहा जाता है। स्पष्ट है कि कार्य के पहले कारण को होना ही चाहिएकिन्तु कारण के अतिरिक्त कार्य से पूर्व अन्य भी अनेक पदार्थ रह सकते हैं। उदाहरण के लिए घट बनाने से पूर्व घट बनाने की मिट्टी बैलगाड़ी में भी आ सकती है और गधे पर भी। किन्तु ये दोनों ही घड़े के कारण नहीं माने जाएंगेक्योंकि वे घट के पूर्व नियत रूप से नहीं रहते।

कारण के प्रकार

सामान्यतया किसी कार्य को करने के दो कारण होते हैं-

  1. उपादान कारण और
  2. निमित्त कारण

जैसेकुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है। यह कुम्हार निमित्त कारण तथा मिट्टी (सामग्रीउपादान कारण हैपरन्तु वैशेषिक दर्शन में

  1. समवायी
  2. असमवायी एवं
  3. निमित्त।

ये तीन कारण माने गए हैंजो इस प्रकार हैं

समवायी कारण

    समवायी सम्बन्ध नित्य सम्बन्ध होता हैजो दो ऐसे पदार्थों के मध्य होता है जिन्हें अलग नहीं किया जा सकताजैसे-घड़े एवं मिट्टी के मध्य सम्बन्ध। घड़े को मिट्टी से पृथक् करना सम्भव नहीं होता। यहाँ मिट्टी समवायी कारण है। अन्य दर्शन इसे उपादान कारण कहते हैं।

असमवायी कारण

   जो समवाय सम्बन्ध से समवायी कारण में रहता हो तथा समवायी कार्य का जन्म होवह असमवायी कारण कहा जाता हैजैसेपट (कपड़ाकार्य में तन्तुओं का रंगा

निमित्त कारण

     जिसके बिना कार्य उत्पन्न ही न हो सकेउसे निमित्त कारण कहते हैं। घड़े के प्रसंग में कुम्हारउसका चाकदण्ड आदि निमित्त कारण हैं।

वैशेषिक दर्शन का परमाणुकारणवाद या परमाणुवाद

     परमाणुवाद न्याय-वैशेषिक दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हैजिसके आधार पर वे विश्व की सावयव वस्तुओं की उत्पत्ति एवं विनाश की व्याख्या करते हैं। चूँकि यहाँ परमाणुओं के आधार पर भौतिक विश्व की सृष्टि एवं विनाश की व्याख्या की जाती हैइसलिएउनका सृष्टि सम्बन्धी सिद्धान्त परमाणुवाद कहलाता है। महर्षि गौतम परमाणु को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि परं वा गुटे अर्थात् जिसे और अधिक विभाजित न किया जा सकेवही परमाणु है अतः स्पष्ट है कि परमाणु निरवयव है तथा निरवयव होने के कारण अविभाज्य हैअविभाज्य होने के कारण नित्य है।

     वैशेषिक के अनुसारसंख्यात्मक दृष्टि से परमाणु अनन्त हैं तथा सभी परमाणु स्वभावतनिष्क्रिय हैं। यद्यपि परमाणु नित्य हैंकिन्तु इनसे उत्पन्न होने वाली समस्त सावयव वस्तुएँ अनित्य हैं। अतपरमाणु संसार की समस्त सावयव वस्तुओं के उपादान का कारण है। प्रत्येक परमाणु का अपना एक विशेष महत्त्व होता हैजो इसे अन्य परमाणुओं से अलग करता है अर्थात् कोई भी परमाणु अन्य के समान नहीं हैचाहे वे एक ही वर्ग के क्यों न हो।

परमाणुओं के प्रकार

    न्याय-वैशेषिक में चार प्रकार के परमाणुओं को स्वीकार किया गया है-पृथ्वीअग्निजल तथा वायु के परमाणु। इन चार भूतों के अतिरिक्त आकाश एकमात्र ऐसा भूत हैजिसके परमाणु नहीं होतेक्योंकि आकाश विभू है। आकाश चार भूतों के परमाणुओं के संयोग व वियोग के लिए अवकाश प्रदान करता है। इन परमाणुओं में गुणात्मक तथा संख्यात्मक भेद पाया जाता है। जैसे-वायु के परमाणु में स्पर्श का गुण पाया जाता हैकिन्तु पृथ्वी के परमाणुओं में रसगन्ध आदि गुण भी पाए जाते हैंकिन्तु इनमें गन्ध का गुण प्रमुख है। चूंकि सभी परमाणु सूक्ष्मतम हैं। अतइन्द्रियों के द्वारा उनका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है। परमाणुओं की सत्ता का ज्ञान अनुमान के आधार पर किया जाता है। आकाश नामक भूत का ज्ञान भी अनुमान पर ही आधारित है।

वैशेषिक दर्शन में परमाणु सिद्धि के तर्क

वैशेषिक दर्शन में परमाणु सिद्धि के लिए निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं-

  • वैशेषिक के मतानुसार जितने भी सावयव पदार्थ हैंवे अनित्य हैं। यदि इन सावयव पदार्थों का विभाजन किया जाए तो एक स्थिति ऐसी आएगी जब इनका और अधिक विभाजन सम्भव नहीं होगा। यदि हम इस विभाजन की प्रक्रिया को स्थिर नहीं जानेगे तो 'अनावस्था दोषउत्पन्न हो जाएगा। अतइस दोष से बचने के लिए निरवयवअविभाज्य तथा सूक्ष्मतम तत्त्व के रूप में इन परमाणुओं का मानना आवश्यक है।
  • वैशेषिक के मतानुसारजिस प्रकार हम बड़े परिमाण की ओर बढ़ते-बढ़ते आकाश तक पहँचते हैं जिससे बड़ा कोई परिमाण नहीं हैठीक उसी प्रकार सबसे छोटा परिमाण भी होना चाहिएक्योंकि संसार में प्रत्येक वस्तु की एक विरोधी वस्तु विद्यमान है। अतः परमाणु ही वह सबसे छोटा परिमाण है।
  • न्याय-वैशेषिक मतानुसारपरमाणु स्वभावतः निष्क्रिय हैं। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उभरकर सामने आता है कि निष्क्रिय परमाणुओं से जगत की रचना क्यों और कैसे तथा किसके द्वारा की गई है?
  • न्याय-वैशेषिक मतानुसारजीवों को उनके कर्मों का उचित फल प्रदान करने के लिए ईश्वर द्वारा इस जगत की रचना निष्क्रिय परमाणुओं में गति को उत्पन्न करके की है। इस क्रम में सर्वप्रथम ईश्वर दो परमाणुओं को आपस में मिलाकर द्विअणु की रचना के पश्चात् तीन द्विअणुओं के संयोग से एक त्रयणुक का निर्माण करता है। यह त्रयणुक सृष्टि का सूक्ष्मतम दृष्टिगोचर होने वाला द्रव्य हैपरमाणुओं का यह संयोग क्रम चलता रहता है और इस प्रकार सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

परमाणुवाद की मुख्य विशेषताएँ

न्याय-वैशेषिक परमाणुवाद की कुछ मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • न्याय-वैशेषिक परमाणुवादईश्वरवाद तथा अनीश्वरवाद का समन्वय करता है। ईश्वरवाद ईश्वर को जगत का कारण मानता है तथा अनीश्वरवाद भौतिक तत्त्वों या परमाणुओं के आधार पर जगत की उत्पत्ति एवं विकास की व्याख्या करता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में परमाणुओं के संयोग से जगत की उत्पत्ति की बात की गई हैपरन्तु साथ में यह भी कहा गया है कि यह सृष्टि ईश्वर की इच्छा से स्वयं ईश्वर द्वारा की गई है।
  • न्याय-वैशेषिक का यह परमाणुवाद केवल अनित्य या सावयव जगत की उत्पत्ति एवं विनाश की व्याख्या करता है। यहाँ देश-कालमन तथा आत्मा आदि नित्य द्रव्यों की व्याख्या परमाणुओं के आधार पर नहीं की गई है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में परमाणुवाद की उक्त विवेचना की गई हैजिसके विरुद्ध अद्वैत के प्रतिपादक शंकर ने निम्न आक्षेप लगाए हैं-

    1. यदि परमाणु स्वभावतः निष्क्रिय हैतो ऐसी स्थिति में सृष्टि उत्पत्ति की व्याख्या नहीं हो पाती।
    2. यदि परमाणुओं को सदैव सक्रिय माना जाए तो ऐसी स्थिति में सदैव सृष्टि ही होती रहेगीविनाश की व्याख्या नहीं हो पाएगी।
    3. यदि परमाणुओं को निष्क्रिय एवं सक्रिय दोनों माना जाए तो आत्मविरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होती है और यदि परमाणुओं को न निष्क्रिय माना जाएन सक्रिय माना जाए तो ऐसी स्थिति अकल्पनीय होगी।
    4. परमाणु नित्य नहीं हो सकते क्योंकि ये भौतिक वस्तुओं की मूल इकाई हैं। ये निरवयव भी नहीं हो सकतेक्योंकि इनकी वस्तुगत सत्ता है। 
    5. परमाणुवाद में ईश्वर की कल्पना बाह्य आरोपित है।


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