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Friday, December 1, 2023

भारतीय तर्कशास्त्र / न्याय दर्शन / तर्कशास्त्र / प्रमाणशास्त्र / हेतुविद्या / वादविद्या / अन्वीक्षिकी


न्याय दर्शन एक सामान्य परिचय 

     न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम थे। इनका पूरा नाम मेधातिथि गौतम है। वे अक्षपाद के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। अक्षपाद नाम के कारण ही न्याय दर्शन का अन्य नाम 'अक्षपाद दर्शनभी है। न्याय दर्शन में शुद्ध विचार के नियमों तथा तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के उपायों का वर्णन किया गया है। न्याय दर्शन का अन्तिम उद्देश्य शुद्ध विचार अथवा तार्किक आलोचना करना नहींबल्कि मोक्ष की प्राप्ति है। जीवन के दुःखों का किस तरह से नाश होइसका उपाय निकालना ही इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है। वात्स्यायन कहते हैं- "प्रमाणों के द्वारा किसी विषय की परीक्षा करना ही न्याय है। "

    न्याय दर्शन का मूल ग्रन्थ न्याय सूत्र है। न्याय सूत्र के बाद भी अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैंजो निम्नलिखित हैं-

ग्रन्थ

ग्रन्थकार

न्याय भाष्य

वात्स्यायन

न्याय-वार्तिक

उद्योतकर

न्याय-वार्तिक तात्पर्य टीका

वाचस्पति

न्याय-वार्तिक तात्पर्य परिशुद्धि

उदयन

न्याय मंजरी

जयन्त

कुसुमांजलि

उदयन

     प्राचीन समय का न्याय प्राचीन न्याय तथा आधुनिक काल का न्याय नव्य न्याय कहलाता है। नव्य न्याय का प्रारम्भ गणेश की तत्त्व चिन्तामणि से हुआ है।

न्याय दर्शन निम्नलिखित चार भागों में वर्णित है-

प्रथम भाग

प्रमाण सम्बन्धी

द्वितीय भाग

भौतिक जगत सम्बन्धी

तृतीय भाग

आत्मा एवं मोक्ष

चतर्थ भाग

ईश्वर (सम्बन्धीविचार

      न्याय दर्शन में 16 पदार्थों या तत्त्वों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है तथा बताया गया है कि इनके सम्यक् ज्ञान के द्वारा ही अपवर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकता है। ये तत्त्व हैं

  1. प्रमाण
  2. प्रमेय
  3. संशय
  4. प्रयोजन
  5. दृष्टान्त
  6. सिद्धान्त
  7. अवयव
  8. तर्क
  9. निर्णय
  10. वाद
  11. जल्प
  12. वितण्डा
  13. हेत्वाभास
  14. छल
  15. जाति तथा
  16. निग्रह-स्थान

उपरोक्त तत्त्वों में प्रमाण तथा प्रमेय ही मुख्य माने गए हैं।

न्याय दर्शन में प्रमा तथा अप्रमा का स्वरूप 

      न्याय दर्शन में प्रमा तथा अप्रमा की अवधारणा को समझने हेतु प्रमाण मीमांसा को समझने की जरूरत है। वस्तुतन्याय दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रमाण मीमांसा है। न्याय दर्शन की प्रमाण मीमांसा वस्तुवादी है। इसमें ज्ञान एवं उसके साधनों का गहन चिन्तन प्राप्त होता है। इसमें आत्मा को ज्ञान का आश्रय माना जाता है। ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। आत्मा में ज्ञान तब उत्पन्न होता है जब ज्ञेय के सम्पर्क में आता है। ज्ञान अपने विषय को प्रकाशित करता है। ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं हैवह केवल विषय प्रकाशक है। “न्याय दर्शन ज्ञान को अनुभव कहता है। " प्रमाण मीमांसा के अन्तर्गत अनुभव (ज्ञानदो प्रकार के होते हैं

न्याय दर्शन में प्रमा का विचार

     यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं। तर्क संग्रह के अनुसारकिसी वस्तु का जो वह हैउसी रूप में ज्ञान यथार्थ अनुभव है अथवा जहाँ जो हैवहाँ उसी रूप में उसका अनुभव प्रमा है। इस प्रकार न्याय दर्शन यथार्थता को प्रमा का लक्षण मानता है। न्याय दर्शन में प्रमा के चार भेद हैं

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमिति,
  3. उपमिति एवं
  4. शब्द।

    प्रत्यक्ष प्रमा का प्रमाण प्रत्यक्षअनुमिति का अनुमानउपमिति का अनुमान एवं शब्द प्रमा का शब्द प्रमाण माना जाता है। प्रत्येक प्रमा का विशिष्ट प्रमाण होता है।

न्याय दर्शन में अप्रमा का स्वरूप 

     किसी वस्तु के अन्यथा अनुभव को अप्रमा कहते हैं। यह संशयात्मक ज्ञान होता हैक्योंकि इसमें असंदिग्ध ज्ञान नहीं होता है। यह विषय का यथार्थ रूप प्रकाशित नहीं करता। अप्रमा तीन प्रकार की होती है-

  1. संशय
  2. भ्रम या विपर्यय और
  3. तर्क।

     संशय अनिश्चित ज्ञान है। इसमें मन दो कोटियों के बीच डोलता रहता है। भ्रम या विपर्यय अयथार्थ प्रत्यक्ष है। इसमें एक वस्तु भिन्न रूप में दिखाई देती है और देखने वाले को पक्का विश्वास रहता है कि वह सही चीज देख रहा है। सीप को चाँदी के रूप में देखना विपर्यय का एक उदाहरण है। विपर्यय में ज्ञान का वस्तु से संवाद नहीं होता हैजबकि तर्क किसी बात को परोक्ष तरीके से सिद्ध करना है। इसका उद्देश्य यह दिखाना रहता है कि असत्य कल्पना से अनिष्ट परिणाम निकलता है। तर्क से निश्चित ज्ञान नहीं होता है।

न्याय दर्शन की प्रमाण मीमांसा 

प्रमाण के सिद्धान्त

     न्याय दर्शन का प्रतिपादन गौतम ने किया था। यह एक ज्ञानमीमांसीय दर्शन हैक्योंकि इसमें ज्ञानमीमांसा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है अर्थात् ज्ञान क्या हैयह कैसे प्राप्त होता है तथा इसकी प्रामाणिकता क्या हैआदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। न्याय दार्शनिकों के अनुसारज्ञान दो प्रकार का होता है-

  1. यथार्थ ज्ञान तथा
  2. अयथार्थ ज्ञान।

     वस्तु जैसी हैजब ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त होता हैतो ऐसे ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैंकिन्तु जब वस्तु जैसी होती हैठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त नहीं होतातो ऐसे ज्ञान को अयथार्थ ज्ञान कहते हैं। न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए चार स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किए गए हैं

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमान,
  3. उपमान तथा
  4. शब्द।

प्रत्यक्ष प्रमाण

    शाब्दिक दृष्टि से एवं संकीर्ण अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है-आँखों के सामने एवं व्यापक अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य हैज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान। न्याय दर्शन के प्रतिपादक गौतम ने प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए कहा है कि-'इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानम् प्रत्यक्षम्।अर्थात् इन्द्रियअर्थसन्निकर्ष से जो ज्ञान प्राप्त होता हैवह प्रत्यक्ष है। भारतीय दर्शन में कुल छइन्द्रियाँ मानी गई हैं। इनमें से पाँच इन्द्रियाँ-आँखनाककानजिह्वा तथा त्वचा को बाह्य इन्द्रिय कहते हैं। इसके अतिरिक्त मन को आन्तरिक इन्द्रिय कहते हैं। आन्तरिक इन्द्रिय मन के द्वारा हम अन्त:प्रत्यक्ष करते हैं तथा बाह्य इन्द्रियों के द्वारा हम बाह्य प्रत्यक्ष करते हैं।

प्रत्यक्ष प्रमाण के चरण

न्याय दार्शनिकों के अनुसारबाह्य प्रत्यक्ष तीन चरणों में सम्पन्न होता है-

    निर्विकल्प प्रत्यक्ष - यह प्रत्यक्ष की प्रारम्भिक भाषा है। इसमें हम वस्तु का प्रत्यक्ष तो करते हैंपरन्तु समझ नहीं पाते कि वस्तु क्या है। जैसे-हमने दूर से किसी को आते देखापरन्तु समझ नहीं पाए कि कौन आ रहा हैनिर्विकल्प प्रत्यक्ष है।

    सविकल्प प्रत्यक्ष - यह प्रत्यक्ष की दूसरी अवस्था है। इसमें इन्द्रियों से प्राप्त संवेदना में अर्थ भी जोड़ देते हैं और स्पष्टतजान लेते हैं कि अमुक वस्तु 'यहहै। सविकल्प प्रत्यक्ष में वस्तु का स्पष्टनिश्चित एवं निर्णायक ज्ञान होता है।

    प्रत्यभिज्ञा - यह तीसरा प्रत्यक्ष है। इसका तात्पर्य है ‘पहचानना। कई बार प्रत्यक्षीकरण में हमें वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ-ही-साथ यह ज्ञान भी होता है कि हमने इसे पहले भी देखा हैतो यह प्रत्यभिज्ञा है।

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार बताए गए हैं-

  1. लौकिक प्रत्यक्ष
  2. अलौकिक प्रत्यक्ष

लौकिक प्रत्यक्ष

    लौकिक प्रत्यक्ष जब इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष साधारण ढंग से होता हैतो इसे लौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। लौकिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है-

  1. बाह्य प्रत्यक्ष और
  2. मानस बाह्य

बाह्य प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का होता है-

  1. चाक्षुष प्रत्यक्ष (आँखों द्वारा)
  2. श्रावण (कानों द्वारा)
  3. घ्राणज (नाक द्वारा)
  4. रासन (जिह्वा द्वारा)
  5. त्वक (त्वचा द्वारा)

मानस बाह्य प्रत्यक्ष मन के द्वारा होता है।

अलौकिक प्रत्यक्ष

    अलौकिक प्रत्यक्ष जब इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता हैतो इसे अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है-

  1. सामान्य लक्षण
  2. ज्ञान लक्षण
  3. योगज लक्षण

सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष - सामान्य लक्षण सामान्यों का प्रत्यक्ष हैन्याय-वैशेषिक की तत्त्वमीमांसा के अनुसार सामान्यों का वस्तुगत अस्तित्व है एवं सामान्य विशेष में अनुगत रहते हैं तथा विशेष को देखने पर सामान्य का अलौकिक प्रत्यक्ष हो जाता है। इस सामान्य के आधार पर उस वर्ग विशेष की समस्त वस्तुओं का (जो अन्य कहीं विद्यमान हैंप्रत्यक्ष प्राप्त हो जाता हैजैसे-हमने जब धुएँ को देखा तो साथ ही धुएँ के सामान्य तत्त्व धूम्रत्व को भी देखा। इस सामान्य तत्त्व के आधार पर हमें अन्यत्र व्याप्त सभी धुओं का अलौकिक प्रत्यक्ष हो जाता है।

ज्ञान लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष - ज्ञान लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा किसी वस्तु के उस गुण का ज्ञान होता हैजिसका सम्पर्क इन्द्रियों से नहीं होता फिर भी हमें उससे गुण का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। जैसेबर्फ को देखकर ठण्ड का ज्ञान तथा पुष्प को देखकर सुगन्ध का ज्ञान हो जाता हैजबकि ठण्डक या सुगन्ध का सम्पर्क इन्द्रियों से नहीं हुआ होता है।

योगज अलौकिक प्रत्यक्ष - योगज अलौकिक प्रत्यक्ष का तीसरा भेद हैजो योगाभ्यास से प्रसूत होता है। योगियों को योग शक्ति के द्वारा दूर से दूर तक की वस्तुओं का अनुभव हो जाता है। वे अपने स्थान से बैठे-बैठे ही हजारों किलोमीटर दूर की घटना को देख-सुन सकते हैंक्योंकि यह सन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता हैअतइसे योगज अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं।

अनुमान प्रमाण

    चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शनों के समान ही न्याय दर्शन में भी अनुमान को यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। अनुमान दो शब्दों के योग से बना है-अनु एवं मान। यहाँ 'अनुका अर्थ है- पश्चात् तथा मान का अर्थ है 'ज्ञानअर्थात् अनुमान का शाब्दिक अर्थ है 'पश्चात् ज्ञान। अन्य शब्दों में पूर्व ज्ञान के पश्चात् और उसी पर आधारित होकर होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अतस्पष्ट है अनुमान का आधार पूर्व में किए गए अनुभव हैं। उदाहरणार्थ-सामने पहाड़ी पर धुआँ दिख रहा है। धुएँ को देखकर यह ज्ञान हो जाना कि वहाँ आग हैयह एक अनुमान है। आग का ज्ञान हमें इसलिए प्राप्त हो गयाक्योंकि जब-जब हमने धुआँ देखातब-तब उसके साथ हमें आग भी दिखाई दी। अतधुएँ और आग के बीच अनिवार्य सम्बन्ध (व्याप्तिका हमें ज्ञान था। इस व्याप्ति के आधार पर ही हमने पहाड़ी में धुएँ को देखकर आग का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस उदाहरण में धुआँ हेतुआग साध्य तथा पहाड़ी पक्ष को निर्धारित करते हैं। अतअनुमान में तीन अवयव होते हैं हेतुसाध्य तथा पक्षा नैयायिकों ने अनुमान को परिभाषित करते हुए कहा है कि-हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्य सम्बन्ध के आधार पर पक्ष में साध्य का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुमान है।

न्याय दर्शन में अनुमान के प्रकारों का वर्गीकरण

    न्याय दर्शन में अनुमान के प्रकार बताने के लिए दो वर्गीकरण मिलते हैं-प्रथम वर्गीकरण के अनुसार अनुमान दो प्रकार के होते हैं-

  1. स्वार्थ अनुमान तथा
  2. परार्थ अनुमान

द्वितीय वर्गीकरण के अनुसार अनुमान तीन प्रकार के होते हैं-

  1. पूर्ववत्,
  2. शेषवत् तथा
  3. सामान्यतोदृष्ट अनुमान।

प्रथम वर्गीकरण के अन्तर्गत जो अनुमान स्वयं के लिए किया जाता हैउसे स्वार्थ अनुमान कहते हैंकिन्तु जो अनुमान पाँच अवयवों-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन

    पंचावयव का प्रयोग करते हुए अन्य को ज्ञान प्राप्त कराने के लिए किया जाता हैउसे परार्थ अनुमान कहते हैं। द्वितीय वर्गीकरण के अन्तर्गत जब कारण का प्रत्यक्ष करके कार्य के होने का अनुमान किया जाता हैतो उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। जब कार्य का प्रत्यक्ष करके कारण के होने का अनुमान किया जाता हैतो उसे शेषवत् अनुमान कहते हैं तथा जब दो वस्तुओं में साहचर्य होता है तथा जिस साहचर्य को हम प्रायदेखते हैं तो एक वस्तु को देखकर दूसरी वस्तु का ज्ञान हो जाना सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता हैजैसेबैल के एक सींग को देखकर दूसरे सींग का सहज ही ज्ञान हो जाता हैक्योंकि दोनों में साहचर्य है। उपरोक्त दो वर्गीकरण के अतिरिक्त नव्य नैयायिकों ने अनुमान का एक तीसरा वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इस वर्गीकरण के अनुसारअनुमान तीन प्रकार के होते हैं-

  1. केवल अन्वयी,
  2. केवल व्यतिरेकी तथा
  3. अन्वय व्यतिरेकी अनुमान।

     जब हेतु और साध्य के बीच भावमूलक साहचर्य के आधार पर व्याप्ति स्थापना करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो इसे केवल अन्वयी अनुमान कहते हैं। जब अभावमूलक साहचर्य के आधार पर व्याप्ति स्थापना करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो इसे केवल व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। जब व्याप्ति स्थापना भावमूलक तथा अभावमूलक साहचर्य दोनों के आधार पर करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता हैतो इसे अन्वय व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं।

     परार्थ अनुमान को पाँच क्रमबद्ध वाक्यों में प्रकाशित किया जाता है। इन वाक्यों को अवयव कहा जाता है। चूंकि परार्थ अनुमान में पाँच क्रमबद्ध अवयव होते हैंअतइसे पंचअवयव अनुमान भी कहा जाता है। ये पाँच अवयव हैं-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन।

  • प्रतिज्ञा - इसके अन्तर्गत पक्ष में साध्य के होने का ज्ञान कराया जाता है। माना हम पहाड़ पर आग को सिद्ध करना चाहते हैंतो ऐसा करने से पूर्व सर्वप्रथम हम अन्य के सामने वह स्पष्ट रूप से प्रकाशित करते हैं कि 'पहाड़ पर आग है। यह निर्देश ही प्रतिज्ञा है।।
  • हेतु - जिस हेतु से साध्य का अनुमान होता हैउस हेतु का वर्णन किया जाता है। उदाहरण के लिए पहाड़ पर आग को सिद्ध करने के लिए हम पर्वत पर उठ रहे धुएँ का वर्णन करते हैं।
  • दृष्टान्त - इसके अन्तर्गत व्याप्ति का उल्लेख एवं उसकी पुष्टि में दिए गए उदाहरण का उल्लेख किया जाता है। माना हमें यह सिद्ध करना है कि पहाड़ पर आग हैक्योंकि पहाड़ पर धुआँ है। हमें दृष्टान्त देना होगा कि रसोई में जब-जब हमने धुआँ देखा तब-तब आग थीअतः धुएँ और आग के बीच अनिवार्य सम्बन्ध है।
  • उपनय - दृष्टान्त के माध्यम से हेतु और साध्य में व्याप्ति दिखाने के पश्चात् अब अपने पक्ष अर्थात् पहाड़ पर हेतु अर्थात् धुआँ दिखलाना ही उपनय है।
  • निगमन - इसके अन्तर्गत साध्य के सिद्ध होने का प्रतिपादन किया जाता है अर्थात् पर्वत पर आग हैहमें यही सिद्ध करना थाजो सिद्ध हो गया।

परार्थानुमान का उदाहरण

    पर्वत पर आग है-प्रतिज्ञा

    क्योंकि वहाँ धुआँ है-चिह्न (हेतु)

    जहाँ-जहाँ धुआँ हैवहाँ-वहाँ आग है-उदाहरण

    पर्वत पर धुआँ है-उपनय

    इसलिए पर्वत पर आग है-निगमन

     न्याय दार्शनिकों के अनुसारपरार्थ अनुमान का चौथा चरण उपनय ही तृतीय लिंग परामर्श कहा जाता है तथा इसी के द्वारा हमें साध्य का ज्ञान प्राप्त होता है। यह तृतीय लिंग परामर्श ही हमें अनुमान कराता है। नैयायिकों के अनुसारपरार्थ अनुमान का जो स्वरूप है इसमें प्रथम एवं पाँचवाँ तथा दूसरा एवं चौथा वाक्य समान है। अतया तो प्रथम दो या अन्तिम दो कथनों को हटाया जा सकता है। इस प्रकार परार्थ अनुमान को स्वार्थ अनुमान में परिवर्तित किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य न्याय वाक्य तथा नैयायिकों के पंचअवयव अनुमान में भेद है। जहाँ पाश्चात्य न्याय वाक्य में तीन ही वाक्य होते हैं-

  1. वृहद् वाक्य,
  2. लघु वाक्य तथा
  3. निष्कर्ष,

वहीं नैयायिकों के पंच अवयव अनुमान में पाँच वाक्य हैं-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन।

     पंचअवयव अनुमान में जो दृष्टान्त हैवह पाश्चात्य न्याय वाक्य के वृहत वाक्य से मिलता-जुलता है। पाश्चात्य न्याय वाक्य में उदाहरण के लिए कोई स्थान नहीं हैपरन्तु पंचअवयव अनुमान में 'निगमनको सबल बनाने के लिए उदाहरण का प्रयोग होता है। पाश्चात्य न्याय वाक्य में निष्कर्ष का तीसरा स्थान रहता है परन्तु पंचअवयव अनुमान में निष्कर्ष ‘प्रतिज्ञाके रूप में प्रथम वाक्य में रहता है और निगमन के रूप में पाँचवें वाक्य के स्थान पर रहता है। नैयायिकों का मत है कि पंचअवयव अनुमान में पाँच वाक्यों के रहने से निष्कर्ष अधिक सबल हो जाता हैपरन्तु पाश्चात्य न्याय वाक्य में तीन ही वाक्य रहने से निष्कर्ष भारतीय न्याय की तरह सबल नहीं हो पाता।

व्याप्ति 

प्रमा प्रकार के ज्ञान के रूप में अनुमान प्रमाण की वैधता को चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं। अनुमान ज्ञान व्याप्ति पर आधारित है। व्याप्ति अनुमान का प्राण है। व्याप्ति के अभाव में अनुमान का ज्ञान सम्भव नहीं है। अनुमान की प्रणाली में व्याप्ति महत्त्वपूर्ण है। व्याप्ति से तात्पर्य है-हेतु एवं साध्य का व्यापक सम्बन्ध। यह हेतु एवं साध्य का अनौपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध हैजैसे-

जहाँ-जहाँ धुआँ है,

वहाँ-वहाँ आग होती है।

    उपरोक्त कथन एक व्याप्ति वाक्य है। यह वाक्य धुएँ (हेतुएवं आग (साध्यके मध्य साहचर्य सम्बन्ध को व्यक्त करता है। इस प्रकार हेतु एवं साध्य में जो स्वाभाविक अविच्छेद्य एवं व्यापक सम्बन्ध होता हैउसे व्याप्ति कहते हैं। व्याप्ति से सम्बन्धित पदों में एक व्याप्य होता है एवं दूसरा व्यापक। अतव्याप्ति व्याप्य एवं व्यापक का स्वाभाविक सम्बन्ध हैजैसे-धुएँ एवं आग की व्याप्ति में धुआँव्याप्य एवं आग व्यापक हैक्योंकि जहाँ धुआँ होगावहाँ आग अवश्य होगी। संसार में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है जहाँ धुएँ के साथ अग्नि न होपरन्तु यह अवश्य सम्भव है कि अग्नि तो होपरन्तु धुआँ न हो। उदाहरण के लिए तपा हुआ आग का गोला। हेतु एवं साध्य में व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एवं नियत साहचर्य सम्बन्ध ही व्याप्ति है।

     व्याप्ति उपाधिरहित नियत साहचर्य सम्बन्ध हैजैसेजहाँ धुआँ हैवहाँ आग हैइसमें व्याप्ति अनौपाधिक हैक्योंकि साध्य (आगबिना किसी उपाधि या शर्त के हेतु (धुएँका अनुगामी हैपरन्तु आग एवं धुएँ का सम्बन्ध सोपाधिक हैक्योंकि आग धुएँ का अनुगामी तभी होगाजब जलावन आर्द्र होगा। अतयथार्थ व्याप्ति के लिए हेतु एवं साध्य के मध्य का सम्बन्ध अनौपाधिक होना चाहिए।

व्याप्ति के प्रकार

व्याप्ति के दो प्रकार होते हैं-

  1. सम व्याप्ति
  2. विषम व्याप्ति

  • सम व्याप्ति - जब समान विस्तार वाले दो पदों में व्याप्ति सम्बन्ध होता है अर्थात् व्याप्य से व्यापक का अनुमान सम्भव हो तथा व्यापक से व्याप्य का भी अनुमान सम्भव हो तभी दोनों पदों में व्याप्ति सम व्याप्ति कहलाती हैजैसे-अभिधेय और प्रमेयजो अभिधेय हैवह प्रमेय है और जो प्रमेय हैवह अभिधेय है।
  • विषम व्याप्ति - न्यूनाधिक विस्तार वाले दो पदों में जब व्याप्ति का सम्बन्ध होता है तो उसे विषम व्याप्ति या असम व्याप्ति कहते हैंजैसे-धुएँ एवं आग में। जहाँ धुआँ हैवहाँ आग हैयह सामान्य कथन सत्य हैपरन्तु जहाँ आग हैवहाँ धुंआ हैयह कथन सत्य नहीं है। अतयदि व्याप्य एवं व्यापक न्यूनाधिक विस्तार वाले होंव्याप्य से व्यापक का अनुमान किया जा सकेपरन्तु व्यापक से व्याप्य का अनुमान न किया जा सके तो दोनों में व्याप्ति विषम व्याप्ति होती है। व्याप्ति के विषय में सर्वव्यापी निर्णयों पर आगमनात्मक सम्बन्धों की उपलब्धि पर चार्वाक कहते हैं कि व्याप्ति अनुभव के दौरान हमारे मन में स्थापित हो जाने वाले साहचर्यों का फल है। इस प्रकार व्याप्ति-ग्रहण विशुद्ध मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसमें तार्किक अनिवार्यता का होना आवश्यक नहीं है। बौद्ध दार्शनिक अनुमान को ज्ञान का प्रमाण स्वीकार करते हैं तथा व्याप्ति को अनुमान का आधार मानते हैं।

व्याप्तिग्रहोपाय

न्याय दर्शन में एक विशिष्ट पद्धति से व्याप्ति ज्ञान की सम्भावना स्वीकार की जाती है। इस पद्धति में निम्नलिखित सोपान हैं

    अन्वय विधि,

    व्यतिरेक विधि,

    अन्वय एवं व्यतिरेक की संयुक्त विधि,

    व्यभिचाराग्रह,

    उपाधिनिरास,

    तर्क एवं

    सामान्य लक्षण प्रत्यक्षा

इनकी चर्चा इस प्रकार है-

अन्वय विधि - न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति ज्ञान का मुख्य साधन अतीत में दो पदार्थों का बार-बार एक साथ अनुभव किया जाना है जिसका कभी भी व्यभिचार न होजैसे-जब रसोईघर आदि स्थानों में धुएँ के साथ आग का प्रत्यक्ष बिना किसी अपवाद के अनेक बार होता हैतब हमारे मन में यह धारणा बन जाती है कि धुएँ एवं आग में सहचर सम्बन्ध है। यह प्रक्रिया अन्वय विधि है।

व्यतिरेक विधि - न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति निश्चय के लिए अन्वय विधि के साथ व्यतिरेक विधि भी उपयोगी है। साध्य एवं हेतु का अभाव विषयक सहचर व्यतिरेक विधि कहलाती है।

अन्वय-व्यतिरेक की संयुक्त विधि - न्याय दर्शन अन्वय एवं व्यतिरेक की संयुक्त विधि का उपयोग व्याप्ति-ग्रहण में करता है। यह अन्वय विधि से धुएँ के साथ आग के साहचर्य की प्रकल्पना पर पहुँचता है। जब आग के अभाव में धुएँ का भी अभाव दिखाई देता हैतब अन्वय विधि से जिस प्रकल्पना की प्राप्ति होती हैवह व्यतिरेक विधि से प्रामाणिक सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार के अनुमान का आधार अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों व्याप्तियाँ हैं। इसमें हेतु के उपस्थित रहने पर साध्य भी उपस्थित रहता है और साध्य के अनुपस्थित रहने पर हेतु भी अनुपस्थित रहता हैजैसे-

जहाँ धुआँ हैवहाँ आग है।

पर्वत पर धुआँ है।

अतः पर्वत पर आग है।

जहाँ आग नहीं हैवहाँ धुआँ नहीं।

पर्वत पर धुआँ है।

अतः पर्वत पर आग है।

यह अन्वय व्यतिरेकी अनुमान हैक्योंकि इसका आधार अन्वय-व्याप्ति भी है और व्यतिरेकी व्याप्ति भी है।

व्यभिचाराग्रह - न्याय दार्शनिक अन्वय एवं व्यतिरेक विधि द्वारा स्थापित निष्कर्ष को पुष्ट करने के लिए 'व्यभिचाराग्रहपर बल देते हैं। नैयायिकों के अनुसार सहचर दर्शन के साथ व्यभिचार का अदर्शन भी आवश्यक है। यद्यपि अन्वय एवं व्यतिरेक से यह ज्ञात हो जाता है कि जहाँ धुआँ हैवहाँ आग है और जहाँ आग नहीं हैवहाँ धुआँ नहीं है। तथापि न्याय दार्शनिक इस बात पर भी बल देते हैं कि धुएँ और आग के सहचर का व्यभिचार भी किसी को ज्ञात नहीं होना चाहिए।

उपाधि निरास - चूँकि व्याप्ति हेतु एवं साध्य का अनौपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध हैइसलिए न्याय दार्शनिक व्याप्ति की यथार्थता हेतु उपाधि-निरास पर भी बल देते हैं। जो धर्म साध्य का व्यापक हो तथा हेतु का अव्यापक हो उसे उपाधि कहते हैंजैसे-यदि कोई व्यक्ति कहता है कि लोहे का गोला धूम्रवान हैक्योंकि उसमें आग है तो यह अनुमान अप्रामाणिक होगा। अतव्याप्ति के विषय में यह निश्चय कर लेना आवश्यक है कि कहीं स्थापित व्याप्ति में कोई उपाधि तो नहीं है।

तर्क - परवर्ती न्याय दर्शन में निषेधात्मक दृष्टान्तों पर बल देते हुए तर्क या अप्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी व्याप्ति को पुष्ट करने का प्रयास किया गया हैजैसे-जहाँ धुआँ हैवहाँ आग है। यदि यह व्याप्ति वाक्य सत्य नहीं है तो उसका विरोधी वाक्यकभी-कभी धुएँ के साथ आग नहीं रहती हैअवश्य सत्य होना चाहिएपरन्तु यह वाक्य सामान्य अनुभव के विरुद्ध हैक्योंकि इसका खण्डन कारण-कार्य नियम से हो जाता है। अतजहाँ-जहाँ धुआँ हैवहाँ-वहाँ आग है यह कथन सत्य होगा। इस प्रकार नैयायिक विचारक तर्क द्वारा व्याप्ति की सत्यता को स्थापित करते हैं।

सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष

     अन्त में नैयायिक व्याप्ति ज्ञान के लिए सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष का आश्रय लेते हैं। उनके अनुसार उपरोक्त सोपानों के अन्तर्गत केवल व्यक्तिगत घटनाओं का प्रत्यक्ष होता है अर्थात् हम यह जानते हैं कि केवल स्थल विशेषों पर ही धुएँ के साथ आग दिखाई देती हैसब स्थलों पर नहींपरन्तु विशेष दृष्टान्तों के प्रत्यक्ष से सामान्य तर्कवाक्यजहाँ धुआँ हैवहाँ आग हैकैसे स्थापित हो सकता है?

    नैयायिक कहते हैं कि जिस समय नेत्र एवं धुएँ का सम्पर्क होने पर धुएँ का प्रत्यक्ष होता हैउसी समय संयुक्त समवाय सम्बन्ध से हमें धूम्रत्व का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। चूँकि धूम्रत्व जाति नित्य हैधुएँ से कभी उसका वियोग नहीं हो सकता अतएक ही स्थान पर धुआँ और धूम्रत्व तथा अग्नि एवं अग्नित्व को देखकर सभी अविद्यमान धूम्रों एवं अग्नियों का भी प्रत्यक्ष हो जाता है और हम जान लेते हैं कि जहाँ-जहाँ धुआँ हैवहाँ-वहाँ अग्नि है।

उपमान प्रमाण

     सादृश्यता के प्रत्यक्ष से नाम (संज्ञाऔर नामी (संज्ञीके सम्बन्ध का ज्ञान कराने वाले प्रमाण को उपमान कहते हैं। उदाहरणार्थ-हमें नाम का ज्ञान हो गया या तो कहीं पढ़ने से या सुनने से। माना हमें नीलगाय का ज्ञान हो गया कि नीलगाय वह पशु है जो गाय जैसी होती हैकिन्तु अभी हमें नीलगाय का प्रत्यक्ष रूप में ज्ञान नहीं है कि वह कैसी होती है। हमने अभी सिर्फ उसके बारे में सुन रखा है कि वह गाय जैसी होती है। हम जंगल में गए वहाँ हमें गाय की तरह एक पशु दिखाई दिया और हमें ज्ञान हो गया कि यह नीलगाय है अर्थात् अब हमें नाम और नामी का ज्ञान हो गया। यह ज्ञान कैसे हुआहमने नीलगाय और गाय में सादृश्यता या समानता का प्रत्यक्ष किया फलतः हमें ज्ञात हो गया कि वह गाय की तरह दिखने वाला पशु नीलगाय है।

शब्द प्रमाण

    यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में शब्द एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। न्याय दर्शन में शब्द को प्रत्यक्षअनुमान एवं उपमान के बाद चौथा प्रमाण स्वीकार किया गया है। नैयायिकों के अनुसारपद और वाक्य का अर्थ जानने से जो ज्ञान प्राप्त होता हैज्ञान के उस प्रमाण को ‘शब्द प्रमाणकहते हैं।

    न्याय दर्शन में पद को शक्त कहा गया है अर्थात् किसी विशेष पद से कोई विशेष अर्थ ही व्यक्त होता है। नैयायिकों की मान्यता है कि पदों में यह शक्ति ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। नैयायिकों ने पदों के दो वर्गीकरण प्रस्तुत किए। प्रथम वर्गीकरण ज्ञान के स्रोत के आधार पर प्रस्तुत किया गयाजिसके अन्तर्गत वैदिक पद तथा लौकिक पदों को सम्मिलित किया गया तथा द्वितीय वर्गीकरण में ज्ञान के विषय के आधार पर दो पदों दृष्टा तथा अदृष्टा पदों को प्रस्तुत किया गया-

  • वैदिक पद- वेदों में उल्लिखित जो पद और वाक्य हैंनैयायिकों के अनुसार इनकी रचना वैदिक मानवअलौकिक मानवईश्वर द्वारा की गई हैइसलिए वेदों में उल्लिखित जो भी ज्ञान हैउसकी प्रामाणिकता पर सन्देह नहीं किया जा सकता। वेद ईश्वर के वचन हैं। अतउनकी प्रामाणिकता पूर्णनिश्चित एवं असंदिग्ध है।
  • लौकिक पद- नैयायिकों के अनुसार जिन लौकिक वाक्यों की रचना उनके विशेषज्ञों ने की हैकेवल उन वाक्यों को ही प्रामाणिक माना जा सकता है। इन विशेषज्ञों को नैयायिकों ने 'आप्त पुरुषकी संज्ञा दी हैजैसेरोगरोगों के कारण तथा रोगों के उपचार के बारे में जो धन्वन्तरि ने कहा है वह सत्य माना जाएगाक्योंकि धनवन्तरि विशेषज्ञ थेआप्त पुरुष थे। इसी प्रकार ज्योतिष के बारे में जो भी पराशर तथा जैमिनी आदि ने कहा है वह सत्य हैक्योंकि वे भी ज्योतिष के विशेषज्ञ अर्थात् आप्त पुरुष थे। नैयायिकों के अनुसार ये आप्त पुरुष परमात्मा एवं जीवात्मा दोनों का संयुक्त रूप हैं।
  • दृष्टा पद- यदि पदों या वाक्यों से प्राप्त होने वाले ज्ञान का प्रत्यक्ष किया जा सकता हैतो ऐसे पदों को दृष्टा पद कहते हैंजैसे-इलाहाबाद में संगम है।
  • अदृष्टा पद- यदि शब्दों से (पदों सेप्राप्त होने वाले ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता हो तो ऐसे पदों को अदृष्टा पद कहते हैं। इसके अन्तर्गत पाप-पुण्यनैतिक-अनैतिकधर्म-अधर्म आदि से सम्बन्धित पदों को सम्मिलित किया जाता हैजैसेईश्वर सर्वशक्तिमान हैगरीबों की सहायता करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है आदि।

   नैयायिकों के अनुसारशब्द अनित्य हैंक्योंकि ये उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं। शब्दों के अर्थ देने की जो योग्यता है उसे शब्द शक्ति कहते हैं। नैयायिकों के अनुसार शब्द शक्ति ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करती हैक्योंकि शब्द शक्ति ईश्वर द्वारा निश्चित की गई है। अगली सृष्टि में (प्रलय के बादहो सकता है कि ईश्वर किसी शब्द का दूसरा अर्थ निश्चित कर देअतशब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य हैक्योंकि यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है।

शब्द प्रमाण की आलोचना

    अनीश्वरवादियों के अनुसार शब्द उत्पन्न व नष्ट नहीं होतेबल्कि आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है। अतशब्द नित्य हैंसाथ ही शब्दों के अर्थ भी नित्य हैं। क्योंकि हम यह स्वीकार नहीं करते हैं कि ईश्वर जैसी कोई चीज है और वह चाहे तो शब्दों के अर्थ में परिवर्तन कर सकता है। शब्दों के अर्थ एक लम्बे समय तक भाषीय व्यवहार के प्रचलन के कारण निश्चित हुए हैं। इसलिए शब्दों के अर्थ परिवर्तित नहीं होते अर्थात् नित्य हैं।

शब्द बोध के आवश्यक घटक

    न्याय दर्शन के अनुसारशब्द अक्षरों से बनता है जिससे अभिधा या लक्षणा से किसी पदार्थ का संकेत मिलता है। प्रत्येक शब्द का कुछ अर्थ होता है। अर्थ ही शब्द तथा उस पदार्थ के मध्यजिसे यह धोतित करता हैसम्बन्ध बताता है। सार्थक शब्द को अथवा जिस शब्द में किसी अर्थ को व्यक्त करने की शक्ति होती हैपद कहते हैं। हम जैसे ही पद के अन्तिम अक्षर को सुनते हैंहमें उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है। नैयायिकों के अनुसार पद से व्यक्तिउसकी आकृति और उसकी जाति तीनों की अलग-अलग मात्रा में जानकारी मिलती है। प्रत्येक अर्थपूर्ण वाक्य का अर्थ समझने के लिए निम्नलिखित चार शर्तों का पूरा होना जरूरी है

  1. आकांक्षा
  2. योग्यता
  3. सन्निधि
  4. तात्पर्य ज्ञान

  • आकांक्षा - पदों की परस्पर अपेक्षा को 'आकांक्षाकहते हैं। यदि दूसरे पद का उच्चारण किए बिना किसी पद का अर्थ ज्ञान न हो तो इन दोनों पदों क परस्पर सम्बन्ध को परस्पर अपेक्षा कहते हैंजैसे-दरवाजा खुला है तात्पर्य है कि अन्दर आ जाओ से सार्थक बन जाता है एवं आकांक्षा पूरी हो जाती है।
  • योग्यता - पदों के सामंजस्य को योग्यता कहते हैं अर्थात् वाक्य के पदों द्वारा जिन वस्तुओं का अर्थबोध होता हैउनके विरोध के अभाव को योग्यता कहते हैंजैसे-'पानी से कपड़े सुखा लो', इन पदों में योग्यता का अभाव हैक्योंकि कपड़े धूप या हवा से सुखाते हैंपानी से नहीं।
  • सन्निधि - वाक्य का अर्थबोध कराने की तीसरी शर्त सन्निधि हैपदों का व्यवधान रहित पूर्वापद क्रम से उच्चारण सन्निधि है। यदि किसी वाक्य के विभिन्न पदों के उच्चारण में काफी समय का अन्तराल होगा या उन्हें पर्याप्त विलम्ब के साथ बोला जाएगा तो बुद्धि द्वारा इन पदों के पारस्परिक सम्बन्ध को ग्रहण करनापरिणामस्वरूप उनका अर्थबोध असम्भव होगा; 'एक गाय लाओइन तीनों शब्दों को अलग-अलग लिखने से वाक्य अर्थपूर्ण नहीं होगा।
  • तात्पर्य ज्ञान - नव्य न्याय दर्शन में शब्द बोध के लिए 'तात्पर्य ज्ञानभी आवश्यक माना गया है। वक्ता के अभिप्राय को समझना तात्पर्य ज्ञान है। कुछ पद अनेकार्थक होते हैं। किसी पद का किस समय कौन-सा अर्थ अभीष्ट हैयह केवल उस प्रसंग के ज्ञान से ज्ञात होता है जिसमें वह पद बोला जाता है। वाक्य के अर्थ निर्धारण में वक्ता के तात्पर्य को समझना आवश्यक है। इन शर्तों के पूरा न होने पर शब्दबोध सम्भव नहीं होगा।

हेत्वाभास

    न्याय दर्शन में अनुमान को यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अन्तर्गत हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्यसार्वभौम तथा शर्तरहित सम्बन्ध के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है। किन्तु कभी-कभी जब दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में जो दोष पैदा हो जाते हैंतो अनुमान के दोष को 'हेत्वाभासकहते हैं। हेत्वाभास का अर्थ होता है कि वस्तु देखने में तो हेतु के समान हैपरन्तु वास्तव में हेतु नहीं है। भारतीय दर्शन में अनुमान का सम्बन्ध वास्तविकता से हैक्योंकि इसके मूल में प्रत्यक्ष होता है अतयहाँ अनुमान में जो दोष पाया जाता हैवह भी वास्तविक है। नैयायिकों ने दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में दोष दिखाने के लिए तर्क की जो विधि अपनाई हैवह तो सही हैकिन्तु तथ्य सही नहीं है। परिणामस्वरूप अनुमान में जो दोष उत्पन्न होते हैंवे वास्तविक हैं न कि आकारिक। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य दर्शन में निगमनात्मक अनुमान के दोष आकारिक हैंक्योंकि निगमन का सम्बन्ध तर्कवाक्यों की सत्यता या असत्यता से न होकर विधि की सत्यता या असत्यता से है। यदि आधार वाक्यों से निष्कर्ष तर्कतनिगमित हो रहे हैं तो विधि सत्य है अन्यथा असत्य। जबकि भारतीय दर्शन में नैयायिकों के अनुमान के समस्त दोष तथ्यात्मक वस्तुपरक असत्यता से उत्पन्न होते हैंअतअनुमान के समस्त दोष वस्तुपरक हैं न कि आकारिक। नैयायिकों के अनुसार दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में पाँच प्रकार के वास्तविक दोष उत्पन्न होते हैं-

  1. सव्यभिचार
  2. विरुद्ध
  3. सत्प्रतिपक्ष
  4. असिद्ध (साध्य सम)
  5. बाधित

सव्यभिचार - यह दोष अनुमान में तब आता हैजब हेतु व्यभिचारी (अपवादहो। व्यभिचारी हेतु उसे कहते हैंजिस हेतु का व्याप्ति के साथ सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ '

सभी द्विपद बुद्धिमान होते हैं।

हंस द्विपद है।

अतः हंस बुद्धिमान है (अनुमान में दोष)

विरुद्ध - यदि हेतु साध्य का खण्डन करने वाला है तो अनुमान में जो दोष आ जाता हैऐसे दोष को विरुद्ध कहते हैं। उदाहरणार्थ

'जो-जो उत्पन्न होते हैंवे नित्य होते हैं। '

शब्द उत्पन्न होते हैं

अतः शब्द नित्य हैं (अनुमान का दोष)

उपरोक्त तथ्य ‘जो-जो उत्पन्न होते हैंवे नित्य होते हैंदोषपूर्ण हैक्योंकि उत्पन्न होना नित्यता का खण्डन करता है। अतः यहाँ हेतु साध्य का खण्डन करने वाला है। परिणामस्वरूप इस तथ्य के आधार पर किया गया यह अनुमान कि ‘शब्द नित्य हैदोषपूर्ण हो गया।

सत्प्रतिपक्ष - जिस अनुमान के हेतु दोष को हम किसी अन्य अनुमान द्वारा दिखा सकते हैं तो ऐसे दुष्ट अनुमान के दोष को सत्प्रतिपक्ष कहते हैं। उदाहरणार्थ इस दोष को समझने के लिए दो अनुमान लेने पड़ेंगे

    प्रथम अनुमान

'सभी अदृश्य पदार्थ नित्य होते हैं। '

शब्द अदृश्य हैं

अतः शब्द नित्य हैं।

    द्वितीय अनुमान

'जो-जो उत्पन्न होता है वह अनित्य होता है। '

शब्द उत्पन्न होते हैं

अतशब्द अनित्य हैं (सही अनुमान)

यहाँ द्वितीय अनुमान दिखाकर हमने प्रथम वाले अनुमान को गलत सिद्ध कर दिया।

असिद्ध (साध्य सम) - यदि हेतु वास्तविक ही न हो तब उस हेतु के आधार पर जो अनुमान किया जाता है तो ऐसा अनुमान दोषपूर्ण हो जाता हैअतअनुमान के इस दोष को असिद्ध कहा जाता है। उदाहरणार्थ

'आकाश कमल कमल है। '

सभी कमल सुगन्धित होते हैं

अतआकाश कमल सुगन्धित है।

उपरोक्त उदाहरण में हेतु (आकाश कमलवास्तविक नहीं हैअतइस हेतु के आधार पर किया गया अनुमान दोषपूर्ण है।

बाधित - यदि किसी अनुमान के दोष को अन्य प्रमाण द्वारा दिखा सकें तो ऐसे अनुमान के दोष को बाधित कहते हैं। उदाहरणार्थ

'सभी द्रव्य ठण्डे होते हैं। '

अग्नि द्रव्य है।

अतः अग्नि ठण्डी होती है।

इन अनुमान के दोष को हम प्रत्यक्ष द्वारा दिखा सकते हैं कि सभी द्रव्य ठण्डे नहीं होते हैं।

न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

     न्याय के ईश्वर सम्बन्धी विचार भारतीय दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। न्याय दर्शन ईश्वरवादी दर्शन है तथा ईश्वर को आत्मा का ही एक विशेष रूप मानते हैं। जिस प्रकार जीवात्मा में ज्ञान आदि गुण हैंउसी प्रकार ईश्वर में भी गुण हैइसलिए जीव व ईश्वर दोनों ही आत्मा हैं। जीवात्मा व ईश्वर में अन्तर यह है कि जीवात्मा के गुण अनित्यजबकि ईश्वर अनन्त नित्य गुणों से युक्त हैजिनमें छगुण-आधिपत्यवीर्ययशश्रीज्ञान तथा वैराग्य अत्यधिक प्रधान हैं। नैयायिकों के अनुसारईश्वर इस जगत का उत्पत्तिकर्तापालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। ईश्वर ने समस्त विश्व की रचना परमाणुओं से की हैइसलिए यह जगत का केवल निमित्त कारण है न कि उपादान कारण। इस विश्व को बनाने में ईश्वर का नैतिक व आध्यात्मिक उद्देश्य है। अतयह सृष्टि सप्रयोजन है। प्रयोजन यह है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोग सके अर्थात् जगत के ये विभिन्न पदार्थ हमारे कर्मों का फल भोगने के लिए हैंसुख-दु:ख भोगने के लिए हैं। इसके साथ ही नैयायिकों की मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही मानव मोक्ष प्राप्त करने में सफल होता है। नैयायिकों का यह मोक्ष सम्बन्धी विचार रामानुज तथा मध्वाचार्य से साम्यता को दर्शाता हैक्योंकि इनकी भी मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही मोक्ष प्राप्ति सम्भव है।

     न्याय दर्शन में अनुमान के आधार पर ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया हैजो निम्न प्रकार हैं-

    सावयव वस्तुएँ बिना निमित्त कारण के उत्पन्न नहीं हो सकती। ब्रह्माण्ड में समस्त वस्तुएँ सावयव हैंअतइनका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए और यह निमित्त कारण ईश्वर है।

    सावयव वस्तुएँ तभी उत्पन्न हो सकती हैं जब परमाणु आपस में संयुक्त हों। ये संयुक्त तभी हो सकते हैं जब उनमें गति होक्योंकि परमाणु अगतिशील होते हैं अतकोई ऐसी सत्ता अवश्य होनी चाहिएजो परमाणुओं में गति उत्पन्न करती हैयह सत्ता ही ईश्वर है।

    जगत में जितनी वस्तुएँ हैं उनका कोई--कोई आश्रय अवश्य होता है तो फिर तर्कतजगत का भी कोई आश्रय अवश्य है और वह आश्रय ईश्वर है।

    वेदों से हमें जो भी ज्ञान प्राप्त होता हैउसकी सत्यता के बारे में हम सन्देह कर ही नहीं सकते। ऐसा ज्ञान जिसकी सत्यता के बारे में सन्देह किया ही नहीं जा सकताऐसा ज्ञान मनुष्य द्वारा सम्भव नहीं है। ऐसा ज्ञान तो किसी सर्वज्ञ सत्ता को ही हो सकता है और वह सत्ता ईश्वर है।

    वेद प्रमाण हैअतवेद में जो कहा गया हैउसे स्वीकार करना चाहिए। वेदों में कहा गया है कि ईश्वर इस जगत को बनाने वाला है। अतः हमें स्वीकार करना चाहिए कि ईश्वर है।

    प्रलयकाल में संख्या नहीं होती और बिना संख्या के दो परमाणु संयुक्त होकर द्विअणु कैसे बनेंगे और सृष्टि कैसे हो पाएगी। अतकोई सत्ता अवश्य है जो संख्या उत्पन्न करती है और वह सत्ता ईश्वर है।

    सभी जीवों को संसार में उनके पूर्वजन्म के कर्मों का उपयुक्त फल प्राप्त होता हैपर कर्म तो अचेतन होते हैं जो अपने आप फल नहीं दे सकते। अतकोई ऐसी सत्ता अवश्य है जो यह व्यवस्था करती है कि सभी जीवों को उनके कर्मों का उपयुक्त फल मिले। यह सत्ता ही ईश्वर है।

    जगत में सर्वत्र व्यवस्था या नियमानवर्तिता या प्रयोजन दिखाई देता है। अतकोई--कोई व्यवस्थापक या नियामक या प्रयोजनकर्ता अवश्य है और वह ही ईश्वर है।

ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए युक्तियाँ

ईश्वर की अस्तित्व सिद्धि के लिए निम्नलिखित युक्तियाँ हैं-

    ईश्वर को निमित्त कारण मानकर न्याय दर्शन ने मानवीय भावों की कमजोरियों को उपस्थित कर दिया। क्योंकि यदि ईश्वर को इस जगत का केवल निमित्त कारण मान लिया जाए तो ऐसा ईश्वर पूर्ण और स्वतन्त्र नहीं हो सकताक्योंकि उसे जगत उत्पत्ति के लिए उपादान कारण पर आश्रित मानना पड़ेगा। यही कारण है कि वेदान्त ने ईश्वर की पूर्णता तथा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उसे इस जगत का उपादान एवं निमित्त कारण दोनों माना है।

    यदि ईश्वर इस विश्व का रचयिता है तो वह अवश्य ही शरीरधारी होगाक्योंकि बिना शरीर के कोई कार्य नहीं हो सकताकिन्तु नैयायिक इसे स्वीकार नहीं करते।

    वेदों को आधार बनाकर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में चक्रक दोष उत्पन्न होता हैक्योंकि न्याय दर्शन में वेद के आधार पर ईश्वर की सत्ता को तथा ईश्वर के आधार पर वेदों की प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास किया गया है।

    श्रुतियों को ईश्वर का प्रमाण नहीं माना जा सकताक्योंकि श्रुतियों की स्वयं की प्रामाणिकता सन्देहास्पद है।

बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

    भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैंजो सत्य ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करे। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त होउसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण व्यवस्था का अर्थ है प्रत्येक प्रमाण का अपना एक दायराक्षेत्राधिकार होता हैजो अन्य प्रमाण के दायरेक्षेत्राधिकार से अलग है। बौद्ध दर्शन भी प्रमाण व्यवस्था के अन्तर्गत यह मानता है कि प्रत्येक प्रमाण का क्षेत्राधिकार अलग हैजबकि प्रमाण संप्लव का अर्थ है विभिन्न प्रमाण एक-दूसरे से व्याप्त हो सकते हैं।

    न्याय दर्शन के अनुसार यद्यपि सभी ज्ञान अनुभूतिअनुभव पर आधारित नहीं होते हैं फिर भी अधिकांश ज्ञान का आधार अनुभव ही है। विवाद का बिन्दु यह है कि विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के अलग-अलग प्रकार बताए गए हैंजैसे कि बौद्ध दर्शन में प्रमाण के दो ही प्रकार स्वीकार किए गए हैं-प्रत्यक्ष तथा अनुमानजबकि न्याय दर्शन में प्रमाण के चार प्रकार बताए गए हैं।

बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रमाण

     बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार प्रत्यक्ष उसे कहते हैंजो कल्पना रहित निभ्रान्त ऐसा ज्ञान हो जिसमें बिल्कुल सन्देह न हो। बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार 'प्रत्यक्ष यथार्थता काजैसा वह अपने आप में हैज्ञान है अर्थात् प्रत्यक्ष स्वलक्षण वस्तु का ज्ञान है। जातिगुणसामान्य आदि शब्द केवल सम्बन्ध नहीं हैं। जब हम वस्तु को मन के हस्तक्षेप के पूर्व प्रथम बार देखते हैंतब वही वस्तु का शुद्ध प्रत्यक्ष है। अतवस्तु की चेतनामात्र ही अर्थात् निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रत्यक्ष है। जब हम वस्तु को सविकल्प के रूप में जानते हैंउसे जाति-गुण आदि से विशेषित करके जानते हैंतब उससे मन के विकल्पों का योग होने के कारण वह शुद्ध प्रत्यक्ष नहीं रह जाता है। जब हम करके जानते हैंतब उसाता है।

     बौद्ध दर्शन के अनुसारसविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान व्यवहत होने के कारण पूर्वधारणा से स्वतन्त्र नहीं रहता है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष कल्पना प्रौढ़ होने के कारण वस्तु के स्वलक्षण का ही ग्रहण है। यथार्थजिसके हम सम्पर्क में आते हैं अवर्णनीय एवं निर्विकल्प है। हम जिसका वर्णन करते हैंवह सामान्य प्रत्यक्ष है। हम जैसे ही किसी वस्तु के विषय में कुछ कहते हैंउस पर मन के विकल्पों को आरोपित कर देते हैं। इस प्रकार वस्तु सविकल्प प्रत्यक्ष में अपना वास्तविक स्वरूप खो देती हैजैसे-हम कानों द्वारा कुछ सुनते हैंयह आवाज यथार्थ हैपरन्तु जब हम कहते हैं कि यह मक्खी की आवाज हैतब यह हमारी कल्पना है। इस प्रकार हम सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान में पदार्थ को तोड़-मरोड़ कर उसका स्वरूप बदल देते हैंइससे वह प्रामाणिक नही रह जाता है।

     इस प्रकार बौद्ध दार्शनिकों की दृष्टि में एकमात्र निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही यथार्थ है। सविकल्प प्रत्यक्ष अवास्तविक है। उसी प्रकार बौद्ध दार्शनिकों ने दूसरे प्रमाण अनुमान के बारे में भी बताया है।

न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाण

     न्याय दर्शन में भी प्रमाण की विवेचना की गई है जो अलग प्रकार की है। न्याय दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का होता हैयथार्थ ज्ञान तथा अयथार्थ ज्ञान। वस्तु जैसी हैजब ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त होता है तो ऐसे ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैंकिन्तु जब वस्तु जैसी होती हैठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता तो ऐसे ज्ञान को अयथार्थ ज्ञान कहते हैं।

     न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए चार स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किए गए हैंप्रत्यक्षअनुमानउपमान एवं शब्द। इन चारों प्रमाणों में से प्रत्यक्ष को प्रधान एवं ज्येष्ठ प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। अनुमान भी एक अन्य प्रमाण है जिस पर हमारा समस्त बौद्धिक ज्ञान निर्भर करता हैकिन्तु इस प्रमाण का क्षेत्र प्रत्यक्ष की तुलना में काफी व्यापक हैसाथ ही यह प्रमाण व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी है। इसके अतिरिक्त उपमान तथा शब्द प्रमाण न्याय दर्शन के अन्तर्गत दो अन्य स्वतन्त्र प्रमाण हैंजो सत्य ज्ञान प्राप्ति के माध्यम हैं। उसी प्रकार चार्वाकबौद्धसांख्यवैशेषिक सभी ने प्रमाण के अपने-अपने दृष्टिकोण बताए हैंजिससे प्रमाण संप्लव के विषय को लेकर विवाद उत्पन्न हो जाता है। लेकिन हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि भले ही अलग-अलग दर्शन स्कूल ने अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रमाण के प्रकार बताए। परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसका (प्रमाणका मूल लक्ष्यअर्थ सत्य ज्ञान या यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति से है।

न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

    न्यायवैशेषिक की अन्यथाख्याति में और कुमारिल की विपरीतख्याति में बहुत समानता देखने को मिलती है। न्याय के भ्रम के व्याख्यान का नाम ही अन्यथाख्याति है। अन्यथा का अर्थ है-अन्यत्र और अन्य रूप में और ये दोनों अर्थ अन्यथाख्याति में प्रयोग किए जाते हैं। कुमारिल और नैयायिक दोनों ही भ्रम को अन्यथाज्ञान या मिथ्याज्ञान मानते हैंजिसमें एक वस्तु किसी अन्य वस्तु के रूप में जो वह नहीं हैप्रतीत होती है। भ्रम में विषयीमूलकता या पुरुषतन्त्रता होती हैजिसके कारण बुद्धि दोष से एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में अन्यथा ग्रहण होता हैजैसे-शुक्ति का रजत के रूप में या रज्जु का सर्प के रूप में ग्रहण। दोनों वस्तुएँ अलग-अलग सत्य हैकेवल उनका सम्बन्ध मिथ्या है। सम्यक्ज्ञान से मिथ्याज्ञान का ही बोध होता है वस्तु का नहीं। कुमारिल स्पष्ट रूप से भ्रम में पुरुषतन्त्रता स्वीकार करते हैं और यहाँ अपने वस्तुवाद को त्याग देते हैंकिन्तु नैयायिक वस्तुवाद की रक्षा करने के लिए भ्रम में रजत के वास्तविक प्रत्यक्ष की कल्पना करते हैं और इसके लिए ज्ञान लक्षण नामक असाधारण प्रत्यक्ष का सहारा लेते हैं। शक्ति और रजत का समान गुणों (सफेदीचमक आदिके कारण पूर्वट्रस्ट रजत का स्मरण होता है और स्मृति में विद्यमान रजत-रूप का बाहर शुक्ति के स्थान पर ज्ञानलक्षणप्रत्यासति द्वारा असाधारण प्रत्यक्ष होता है। किन्तु यह वस्तुवाद की रक्षा करने का प्रयत्न है।

     कुमारिल भ्रम में ऐसा कोई असाधारण प्रत्यक्ष स्वीकार नहीं करते। नैयायिक यथार्थता को ज्ञान का स्वरूप और संवादिप्रवृत्ति या सफलवृत्ति को यथार्थता के परीक्षण का साधन मानते हैं। कुमारिल यथार्थता को ज्ञान का स्वरूप मानते हैंकिन्तु ज्ञान को स्वतप्रमाण मानकर कारणदोषरहितता एवं बाधकज्ञानरहितता या संवाद को प्रामाण्य स्वरूप मानते हैं। कुमारिल प्रमा और भ्रम के विवेचन में तटस्थ और वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हैं।

न्याय दर्शन वस्तुनिष्ठ प्रश्न संग्रह

प्राकृतिक आपदा से बचाव

Protection from natural disaster   Q. Which one of the following is appropriate for natural hazard mitigation? (A) International AI...