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चार्वाक दर्शन/लोकायत दर्शन

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चार्वाकदर्शन - लोकायतदर्शन      इस मत का प्रवर्तक बृहस्पति हुआ है । बृहस्पति का विश्वास था कि जो कुछ है, यही लोक है, इसलिये इसी की चिन्ता करनी चाहिये और इसी को सुखदायी बनाना चाहिये। परलोक के लिये व्यर्थ व्यय और व्यर्थ परिश्रम नहीं उठाना चाहिये। इस विश्वास को लेकर उन्होंने अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ मानकर धर्म और मोक्ष के विषयों का खण्डन किया है। प्रमाण निर्णय      प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है क्योंकि यथार्थज्ञान के साधन केवल इन्द्रिय ही हैं। इन्द्रिय पांच बाहर हैं और एक अन्दर। नेत्र, श्रोत्र, घ्राण, रसना और त्वचा बाह्य इन्द्रिय हैं और मन अन्तरिन्द्रिय है। बाह्य इन्द्रियों से बाहर का अनुभव होता है और अन्तरिन्द्रिय से अन्दर का। नेत्र से रूप, श्रोत्र से शब्द, घ्राण से गन्ध, रसना से रस और त्वचा से स्पर्श का अनुभव होता है और मन से सुख दुःख का वा इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और ज्ञान का। बस इतना ही अनुभव है। यहां तक ही हमारे इन्द्रियों का साक्षात् सम्बन्ध है। इसी को प्रत्यक्ष कहते हैं और यही प्रमाण है। जिस ज्ञान में इन दोनों प्रकार के इन्द्रियों में से किसी का भी साक्षात ...