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Sunday, February 4, 2024

वेदान्त दर्शन

वेदान्त परिचय 

संस्थापक – महर्षि बादरायण व्यास। 

मुख्य ग्रन्थ – वेदान्त दर्शन का मूल ग्रन्थ महर्षि बादरायण व्यास का ब्रह्म-सूत्र है। इसके अतिरिक्त इस दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित हैं –

  • गौड़पाद की माण्डूक्यकारिका। 
  • आचार्य शंकर का ब्रह्मसूत्र पर शारीरकभाष्य। 
  • आचार्य रामानुज का ब्रह्मसूत्र पर श्रीभाष्य, वेदान्तसार, वेदान्तदीप, वेदान्तसंग्रह।  
  • मध्वाचार्य का ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य। 
  • निम्बार्क का ब्रह्मसूत्र पर वेदान्तपारिजातसौरभ। 
  • वल्लभाचार्य का ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य।    

वेदान्त की प्रसिद्ध उक्तियाँ 

  • अहं ब्रह्मास्मि (बृह० उप०, 1/4/10)।  
  • तत्त्वमसि (छान्दोग्य, 6/87)।  
  • अयमात्मा ब्रह्म (बृहदा० उप०, 2/5/19)। 
  • एकमेवाद्वितीयम् (छा ० 622)। 
  • सर्व खल्विदं ब्रह्म (छा०, 3/14/1)। 
  • नेह नानास्ति किंचन (बृह, 4/4/19)।  
  • आत्मा का इदमेक एवाग्र आसीत् (ऐत०, 2/1/1)। 

प्रमुख सम्प्रदाय 

उपनिषद् को ही वेदान्त कहा गया है (वेदान्तो नामोपनिषद् प्रमाणम्, वेदान्तसार) क्योंकि वे वेद के अन्तिम भाग कहलाते हैं। उपनिषदों में जिस ब्रह्म को जगत् का कारण आत्मा का आधार तथा मुक्तिदाता कहा गया है, उसी की और भी विस्तृत व्याख्या करना वेदान्त का मुख्य उद्देश्य है। मीमांसा जहाँ वेदों के कर्मकाण्ड की व्याख्या करता है वही वेदान्त दर्शन उपनिषदों के ज्ञानकाण्ड की व्याख्या करता है। उपनिषद् वेदों के उत्तर- भाग है, इसलिए इसे उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है। वेदान्त दर्शन परम्परा में एक लम्बी श्रंखला मिलती है जिनमें से प्रमुख इस प्रकार है –

अद्वैत वेदान्त – आचार्य शंकर। 

विशिष्टाद्वैत – आचार्य रामानुज।  

द्वैत – मध्वाचार्य।  

द्वैताद्वैत – आचार्य निम्बार्क।  

शुद्धाद्वैत –  वल्लभाचार्य।  

  अद्वैत वेदान्त परिचय 

संस्थापक – आचार्य शंकर।  

मुख्य ग्रन्थ – अद्वैत वेदान्त दर्शन का आधार महर्षि बादरायण का ब्रह्म-सूत्र है। इसी का भाष्य आचार्य शंकर ने शारीरिकभाष्य में किया है। इसके अतिरिक्त इस दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित है –

पद्यपाद की पंचदीपिका।  

विद्यारण्य की विवरण प्रमेह संग्रह। 

वाचस्पति मिश्र की भामती।  

चित्तसुख की चित्तसुखी। 

दयानंद की वेदान्त सार। 

धर्मराज की वेदान्त परिभाषा। 

मध्वाचार्य की पंचदशी और जीवनमुक्ति विवेक।  

प्रमुख सिद्धान्त 

अध्यास – स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृष्टावभास अर्थात् किसी जगह पहले देखे हुए की प्रतीति, स्मृति रूप अध्यास है। रज्जु में सृप की प्रतीति अध्यास का उदाहरण है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार, आत्मा में अनात्मा और अनात्मा में आत्मा का बोध होना ही अध्यास है। अध्यास को ही अद्वैत वेदान्त में अविद्या कहा गया है। 

माया - आचार्य शंकर के दर्शन में ब्रह्म की रहस्यमयी शक्ति का नाम माया है, जिसके द्वारा ईश्वर जगत् का निर्माण करता है। माया का अर्थ है – जो जीव को मोहित करे अथवा जो जीव को मोहित कराये। माया की दो शक्तियाँ हैं –

आवरण शक्ति  - जो सत्य को ढंकता है अथवा छिपाता है। 

विक्षेप शक्ति - जो वास्तविक वस्तु के स्थान पर अवास्तविक को प्रस्तुत करती है। 

विवर्तवाद - वेदान्त का कारण सम्बन्धी सिद्धान्त विवर्तवाद कहलाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, कार्य, कारण का विवर्त अर्थात् आभास होता है। अतः जगत् ब्रह्म का विवर्त है। 

त्रिविध सत्ता - आचार्य शंकर केवल एक ही सत्ता स्वीकार करते हैं। इसे वे अद्वैत ब्रह्म कहते हैं, परन्तु अनुभूत पदार्थों के अस्तित्व के लिए वे सत्ता के अन्य स्तर बताते हैं – 

1. प्रातिभासिक सत्ता - ऐसी सत्ता जिसका हमें केवल आभास हो, जिसकी सत्यता पर हमें स्वयं अविश्वास हो, जैसे- स्वप्न के पदार्थों की सत्ता आदि। 

2. व्यावहारिक सत्ता - जगत् के पदार्थों की सत्ता, जैसे- घर आदि। 

3. पारमार्थिक सत्ता - पारमार्थिक सत्ता उसकी है, जिसका तीनों कालो में बाध (नाश) नहीं होता अर्थात् जो अनश्वर, नित्य सत्ता है। ऐसी सत्ता केवल ब्रह्म की है। 

अनिर्वचनीयख्यातिवाद - यह मत अद्वैतवादियों का है। अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादक आदिगुरु शंकराचार्य ने 'अनिर्वचनीयख्यातिवाद' के नाम से बोध अथवा भ्रम विषयक किसी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया, किन्तु परवर्ती वेदान्तियों ने शंकराचार्य के अध्यास भाष्य, जगत् विचार और मायावाद के आधार पर बोध विषयक इस मत का निरूपण किया। इस सिद्धान्त के अनुसार, भ्रम का विषय न सत् है न असत् बल्कि अनिर्वचनीय है।

ब्रह्म का स्वरूप

अद्वैत दर्शन में द्वितीय किसी भी वस्तु का यथार्थ स्वीकार नहीं किया जाता है। अतः द्वितीय के निषेध से यह अद्वैत कहलाता है। जैसे-

द्विधेतं द्वतीमित्याहुः तद्भावो द्वैतमुच्यते।

तन्निषेधेन चाद्वैतं प्रत्यग्वस्त्वभिधीयते॥

अद्वैत दर्शन में जो ब्रह्म का स्वरूप प्रतिपादित है, वह सच्चिदानन्द स्वरूप है और वह निर्गुण, निष्क्रिय, शान्त और अवाङ्मनसगोचरम् (मन के द्वारा अग्राह्य) है। इस प्रकार ब्रह्म का स्वरूप वाणी द्वारा प्रकाशित नहीं किया जा सकता। अतः नेति नेति मुख द्वारा सर्वत्र उपदिष्ट है। 

अद्वैत शब्द का अर्थ, द्वैत का निषेध होता है, का प्रतिपादन न हो सकने के कारण। जैसे श्रुतियाँ हैं- न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः (केन. उ. 2.4), यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह (तै. उ. 2.4), न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा (मं. उ. 3.1.8), अदृश्यमव्यवहार्यम् अग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमत्यपदेश्यम् (मा. उ. 2.5), अस्थूलमनु। ब्रह्म के एकत्व को प्रतिपादित करने के लिए श्रुति में उक्त है - एकमेवाद्वितीयम् जिसका अर्थ होता है - सजातीय-विजातीय-स्वगत भेदशून्य ब्रह्म। तीन प्रकार के भेद कैसे होते हैं, इस विषय में पञ्चदशी में स्पष्ट कहा गया है -

"वृक्षस्य स्वगतो भेदः पत्रपुष्पफलादितः। 

वृक्षान्तरात् सजातीयो विजातीयः शिलादितः॥ (2/20)

ब्रह्म सर्व विस्तृत सर्व व्यपक, सभी पदार्थों में अनुस्यूत रूप से विद्यमान रहता है। प्रमाण है, यथा - सर्वं खल्विदं ब्रह्म ऐतदात्म्यमिदं सर्वम् और ब्रह्मैवेदम् अमृतं पुरस्तात् ब्रह्म पश्चात् ब्रह्म दक्षिणतृचोत्तरेण। अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्॥ (मं. उ. 2.1.11) स्मृति में भी उक्त है - मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव। अतएव ब्रह्म विज्ञान होने पर ही सर्वज्ञान होता है, यह अद्वैत सिद्धान्त है। ब्रह्म से भिन्न को अस्वीकार करने तथा अद्वैत सिद्धान्त की स्थापना के लिए यह छान्दोग्य वाक्य दृढ़ प्रमाण है - तमादेशमप्राक्ष्य येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातमिति (छ. उ. 6.1.3) तथा मुण्डकवाक्य - कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति (मु. उ. 1.1.3)। यहाँ एक को जानने पर सभी जान लिया जाता है। द्वितीय किसी भी वस्तु की सत्ता स्वीकार करने पर यह प्रतिज्ञा सिद्ध नहीं होती है। यह ब्रह्म ही जगत् का उपादान कारण और निमित्त कारण है क्योंकि अद्वैत दर्शन में ब्रह्म से भिन्न अन्य किसी की भी सत्ता स्वीकार नहीं की जाती है, अतः दोनों कारण ब्रह्म ही होते हैं, अन्य कोई भी नहीं। जगत् के जन्म आदि का कारणत्व ही ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। इस कथन में द्वितीय सूत्र प्रमाण है - जन्माद्यस्य यतः। ब्रह्म के जगत्कारणत्व में ये श्रुतियाँ उदाहरण हैं - यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिज्ञसंविशन्ति (तैं. उ. 3.1) तथा क्षराद्विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति (मुं. उ. 2.1.1) यथोर्णनाभिः सृजते गह्यते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति। यथा स्वतः पुरूषात् केशलोमानि तथाक्षरात् सम्भवतीह विश्वम्॥ (मु. उ. 3.1.1.7 )।

जगत् का स्वरूप 

अद्वैत में जिस प्रकार ब्रह्म प्रतिपादित है, उसी प्रकार ब्रह्म से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती है तो दृश्यमान जगत् कैसे सम्भूत हुआ, यह प्रश्न स्वाभाविक है। इसमें कहा जाता है, जैसे मृदा से घट उत्पन्न होता है, वैसे ब्रह्म से जगत् उत्पन्न नहीं है। अद्वैतियों के मत में जगत् तो सत्य नहीं है अपितु मिथ्याभूत है। जैसे अज्ञान के कारण शुक्ति में रजत् प्रतीत होता है, वैसे ही ब्रह्म में जगत् उत्पन्न होता है। अतः जगत् के मिथ्यात्व में कोई भी आपत्ति नहीं है और निधर्म, निर्गुण निष्क्रिय ब्रह्म से उत्पन्न होने में भी नहीं। अद्वैत सम्प्रदाय में यह प्रसिद्ध वचन होता है - ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जोवो ब्रह्मैव नापर: अज्ञान के कारण यथा सर्प रूप में प्रतीत होता है वैसे ही निर्विशेष ब्रह्म ही जगत् के रूप में प्रतीत होता है। रज्जु में यथा परमार्थतः सर्प कभी भी नहीं था, वैसे ही जगत् परमार्थ रूप में कभी नहीं होता है क्योंकि जगत् उत्पन्न नहीं होता है, उससे उसका नाश अथवा विनास सम्भव नहीं होता है। गौड़पदाचार्य के द्वारा माण्डूक्यकारिका में कहा गया है - प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशय। अतः अद्वैतवाद अजातवाद भी कहलाता है। यद्यपि अद्वैतियों के द्वारा भी व्यावहारिक दशा में जगत् की सत्ता स्वीकार की जाती है।

माया का स्वरूप 

माया ब्रह्म की शक्ति विशेष है और उससे ही उत्पन्न है। माया के अन्य नाम हैं - यह माया अज्ञान, अविद्या, प्रकृति, अक्षर, अव्यक्त इत्यादि शब्दों से व्यवहृत है। कुछ इस प्रकार कहते हैं, सत्व, रज और तम गुणों की साम्यावस्था प्रकृति कहलाती है। उसके ही दो भेद हैं। शुद्ध सत्व प्रधान माया होती है। मलिन, सत्व प्रधान अविद्या होती है। इन्ही के मत में ईश्वर की उपाधि माया और जीव की उपाधि अविद्या है।

यह माया सद्सदविलक्षण है अर्थात् न सत् है और न असत्। तीनों कालों में जिसका बाधा नहीं होता है, वह सत् है। सत् पदार्थ तो ब्रह्म ही है, माया नहीं, उसके ब्रह्म-ज्ञान के अतिरिक्त बाधित होने के कारण जो कभी भी प्रतीत नहीं होता है, वह असत् हैं। यथा - आकाश-कुसुम, खरगोश के सींग इत्यादि। माया तो प्रतीत होती है, अत: असत् नहीं है। इस प्रकार माया सदसद्भ्यामनिवर्चनीय है। शंकर भगवत्पाद द्वारा विवेकचूडामणि में माया का स्वरूप कहा गया है - सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका सान्नाप्यनन्नाप्युभयात्मिका नो महाभुतानिर्वचनीयरूपा नौ। माया गुणत्रय - सत्व, रजस् तमस् का समूह होती है। माया के त्रिगुणत्व में विद्वान इस प्रकार श्रुतिवाक्य को प्रमाण रूप में देखते हैं - अजामेका लोहितशुक्लकृष्णाम्। यहाँ लोहित, शुक्ल, कृष्ण वर्णीय यथाक्रम रजस्, सत्व, तमस् के लिंग के भूत हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है - दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुख्या। माया अज्ञान शब्द के द्वारा व्यवहृत है। अज्ञान शब्द का अर्थ हैं - ज्ञान का अभाव। अज्ञान अभाव पदार्थ नहीं है। इसमें अज्ञान शब्द नए अर्थ अभाव में नहीं अपितु विरोध अर्थ में स्वीकरणीय है। इस प्रकार अज्ञान शब्द का अर्थ ज्ञानविरोधी होता है। जो ज्ञान को आच्छादित करता है वह अज्ञान है। यह भी मन में स्थापित करके सदानन्दयोगी के द्वारा अज्ञान का लक्षण उक्त है - अज्ञानं तु सदसद्भयामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मक ज्ञानविरोधियत्किञिचत, ऐसा कहते हैं।

जीव का स्वरूप

अद्वैत में ब्रह्म से जीव भिन्न नहीं है। ब्रह्म ही माया के संसर्ग से उपाधि परिच्छिन्न सत् जीव रूप में कहा जाता है। अतएव यहाँ बहुजीववाद सम्भव नहीं होता है। जीव का परिणाम भी विभु परिणाम कहलाता है। जीव के विषय में अद्वैत में तीन मत हैं और वे प्रतिबिम्बवाद पर आश्रित अवच्छेदवाद पर आश्रित और आभासवाद पर आश्रित होकर उत्पन्न होते हैं। प्रतिबिम्बवाद में अज्ञान में चित्प्रतिबिम्ब ही जीव है। अवच्छेद पक्ष में अन्तः करण से अवच्छिन्न चैतन्य ही जीव है। किन्हीं का मत हैं कि ब्रह्म का आभासमात्र ही जीव है।

प्रमाण विचार

अद्वैत वेदान्त में छः प्रमाण स्वीकार किये जाते हैं। वे हैं - प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान शब्द अर्थापत्ति, अनुपलब्धि।

मोक्ष का स्वरूप और उनके साधन

ब्रह्मेक्य अनुभूति ही मोक्ष है। इसीलिए निर्गुण ब्रह्म विद्यानुशीलनकारियों की अहं ब्रह्मास्मि, इस कारिका की अनुभूति ही मोक्ष कही जाती है। यह मोक्ष अद्वैत में किसी नूतन वस्तु की प्राप्ति नहीं है। यथा कण्ठस्थ मणिमाला अज्ञान के कारण गई हुई प्रतीत होती है। तत्पश्चात् उसका ज्ञान होने पर वह प्राप्त होती है, वैसे ही जीवों की मोक्ष प्राप्ति है। वस्तुतः जीव का ब्रह्म के साथ अभेद ही है परन्तु अज्ञान के कारण भेद माना जाता है। अज्ञान नाश होने पर ही अपने स्वरूप का ज्ञान सम्भव होता है, तब मुक्ति होती है। अतः ज्ञान से ही मोक्ष है, कर्म से नहीं। कर्म तो चित्तशुद्धि के प्रति परम्परा से कारण हो सकता है। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है - ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्वः ततस्तु तं पश्यति निष्फलं ध्यायमानः। (3.1.8)

मोक्ष प्राप्ति के लिए कैसे यत्न करने चाहिए - शम, दम आदि षटक् सम्पत्ति सम्पन्न अधिकारी निष्काम रूप में नित्य नैमित्तिक आदि कर्म का आचरण करता है तो उसका अन्तःकरण शुद्ध होता है। शुद्ध अन्तःकरण से ही आत्मदर्शन सम्भव होता है। इसीलिए शंकराचार्य का वचन है कि शास्त्रचार्योपदशे युक्ति शम, दम आदि से संस्कृत मन आत्मदर्शन में करण होता है। इस प्रकार शुद्ध-चित्त अधिकारी के द्वारा श्रवण-मनन-निदिध्यासन का अभ्यास किया जाना चाहिए। आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य: इस श्रुति प्रमाण के कारण श्रवण, मनन, निदिध्यासन ही आत्म साक्षात्कार में उपायभूत हैं और इनके अभ्यास के द्वारा जब अहं ब्रह्मास्मि, यह कारिका अनुभूत होती है तब यथार्थ अनुभव होता है। तभी सर्वं खल्विदं ब्रह्म इसका सम्यक् अनुभव होता है और जगत् स्वप्न के साथ मिथ्या प्रतीत होता है।

मोक्ष का फल

जन्म मरण के लक्षण रूप संसार चक्र से मुक्ति ही मोक्ष है। संसार ही बन्ध है। जब ब्रह्मैक्य की अनुभूति होती है तब जगत् मिथ्या प्रतीत होता है। इस प्रकार मिथ्याभूत जगत् में जीव का पुनरागमन सम्भव नहीं होता है। श्रुति में भी उसका पुनरार्वतन नहीं होता है। इस मुक्त का पुनः संसार चक्र में आवर्तन निरूद्ध है। स्मृति में भी उक्त है - मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते। इस प्रकार दुःख रूप संसार-चक्र को भेद कर ब्रह्म रूप होकर आनन्द का अनुभव ही मोक्ष का फल है।

  विशिष्टाद्वैत वेदान्त का परिचय 

संस्थापक – आचार्य रामानुज।

दर्शन का अन्य नाम – श्रीसम्प्रदाय। 

मुख्य ग्रन्थ – विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन का आधार बोधायन का ब्रह्म-सूत्र-वृत्ति है। यह ग्रन्थ वर्तमान में लुप्त है। आचार्य रामानुज को इस ग्रन्थ की एक प्रति कश्मीर से प्राप्त हुई थी। इसी के आधार पर आचार्य रामानुज ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य, श्रीभाष्य के रूप में किया है। इसके अतिरिक्त इस दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित हैं –

रामानुज की गीताभाष्य, वेदार्थ संग्रह, वेदान्त दीप और वेदान्त सार।

आचार्य सूरि की सुदर्शन श्रुतप्रकाशिका।

श्रीनिवसाचार्य की यतीन्द्र मतदीपिका।

वेंकटनाथ की तात्पर्य चंद्रिका और वेदान्त कौस्तुभ।

प्रमाण विचार

प्रमा का करण प्रमाण कहलाता है। सभी ज्ञेय पदार्थ का ज्ञान प्रमाण के अधीन होता है। प्रमाण ही ज्ञान का द्वार है। विशिष्टाद्वैत दर्शन में तीन प्रमाण स्वीकार किये जाते हैं। वे हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। 

1. प्रत्यक्ष - साक्षात्कारिप्रमाकरणं प्रत्यक्षम् ऐसा कहा जाता है। प्रत्यक्ष प्रमा के प्रति असाधारण कारण ही साक्षात्कारी प्रमा का करण है। वहाँ प्रत्यक्ष प्रमा के उत्पत्ति के प्रकार इस प्रकार होते हैं – आत्मा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थेन इति। विशिष्टाद्वैत दर्शन प्रक्रिया के अनुसार सभी इन्द्रियों के प्राप्य प्रकाशकारित्व को स्वीकार किया जाता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ भी विषय सम्बन्ध तथा उस विषय का ज्ञान उत्पन्न करती है। प्राप्य प्रकाशकारित्व इन्द्रिय सन्निकट विषय का द्योतकत्व है। यह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है - सविकल्पक प्रत्यक्ष और निविकल्पक प्रत्यक्ष। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्रव्यगत गुण संस्थान आदि को अविषयीकृत प्राथमिक पिण्डमात्र ग्रहण (द्रव्यमात्र ग्रहण) है। जो द्रव्यगत गुणसंस्थान आदि को विषयीकृत करता है, वह सविकल्पक प्रत्यक्ष कहा जाता है।

इस दर्शन में सभी ज्ञान यथार्थ है, ऐसा निर्णय है। ज्ञान के अयथार्थत्व को विशिष्टाद्वैत प्रक्रिया में अनुमति नहीं है। यथार्थ सर्वविज्ञानमिति वेदविदां मतम् (श्रीभाष्य 1.1.1), ऐसा रामानुजाचार्य ज्ञान के यथार्थत्व को मानते हैं। इस दर्शन में यथार्थ ख्याति स्वीकृत है। 

यथार्थख्याति ख्याति

वेदोक्त पञ्चीकरण प्रक्रिया द्वारा सभी वस्तु में सभी वस्तु अनुगत है। अतः इदं रजतम्, यहाँ भी शुक्ति में रजतांश होता है। इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष होने पर शुक्तिगत रजतांश गृहीत होता है, उससे व्यवहार "इदं रजतम्" होता है। ज्ञान का विषय यदि बाधित होता है तो उस ज्ञानत्व का भी भ्रम रूपत्व बाधित हो। किन्तु ज्ञान का विषय "रजत" तो पञ्चीकरण प्रक्रिया के द्वारा होता ही है। अतः "इदं रजतमिति" यह ज्ञान भी यथार्थ है, ज्ञान के विषय के सत्य होने के कारण।

प्रश्न - उत्तरकाल में 'नेदं राजतमिति" (यह रजत नहीं है) उत्पद्यमान ज्ञान है, पूर्वोत्पन्न "इदं रजतमिति" ज्ञान बाधित होता है?

समाधान - यह रजत है, इस ज्ञान से वस्तुत: शुक्ति में विद्यमान अल्पांश का ही ग्रहण किया गया है। उसके उत्तरकाल में शुक्ति में विद्यमान अधिकांश ही गृहीत होता है। इससे उत्तरकाल में उत्पद्यमान 'नेदं रजतमिति' ज्ञान है, पूर्व का "इदं रजतमिति" यह ज्ञान जन्य व्यवहार का बाधक है, ज्ञानबाधक नहीं है। अतः वस्तु में अल्पांश ग्रहण से जो व्यवहार में विद्यमान अधिकांश ग्रहण द्वारा बोध होता है। अतः अल्पांश ग्रहण से उत्पन्न व्यवहार ही भ्रम है, वही बाधित है। इस प्रकार सभी ज्ञान यथार्थ है, ऐसा मत है।

2. अनुमान – अनुमितेः करणम् अनुमानम्। धूम वह्नि के व्याप्य-व्यापक भाव को जानकार पर्वत पर वह्नि रूप प्रमिति ही अनुमिति कहलाती है। उसके समान वह्नि रूप अनुमिति का करण ही अनुमान कहा जाता है। यहाँ अविनाभाव सम्बन्ध ही व्याप्ति है। न्यून देशवर्ती व्याप्यत्व तथा अधिक देशवर्ती व्यापकत्व है, ऐसा ज्ञेय है। अनुमान प्रक्रिया में प्रतिज्ञा-हेतु-उदाहरण-उपनय-निगमन नामक पाँच अवयव हैं। ये पाँच अवयव नियम से अनुमिति की उत्पत्ति में अपेक्षित नहीं होते हैं। अनुमिति ज्ञान की उत्पत्ति में पाँच अवयव भी अपेक्षित है, ऐसी विशिष्टाद्वैत प्रक्रिया होती है।

3. शब्द – अनाप्तैः अनुक्तं वाक्यं प्रमाणशब्देन अभिधीयते। अन्य शब्द अप्रमाण कहलाता है। वेद अनाप्त द्वारा प्रोक्त नहीं होते है और पुनः पौरूषेय ग्रन्थ इतिहास, पुराण आदि भी अनाप्त द्वारा अनुक्त ही होते हैं। अतः पौरूषेयापौरूषेयरूप वेद - इतिहास, पुराण आदि इस दर्शन में शब्द प्रमाण के रूप में स्वीकार किये जाते हैं। महाभारत में आये हुए पञ्चरत्न को शब्द प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और पञ्चरत्न हैं – 

गीतासहस्रनामानि स्तवराजो ह्यनुस्मृतिः। 

गजेन्द्रमोक्षणं चैव पञ्चरत्नानि भारते॥

भागवत् विष्णु पुराणों में विशिष्टाद्वैत परम्परा का परम प्रामाण्य है। आगमों में पाञ्चरात्र संहिता और पौष्कर संहिता प्रमाण रूप से स्वीकृत हैं। आलवार योगियों के द्वारा तमिल भाषा में विरचित दिव्य प्रबन्ध भी प्रमाण की कोटि में अन्तर्निहित है।

तत्व-त्रय विचार

भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा (श्वे. उ. 1.12 ) इस श्रुति द्वारा विशिष्टाद्वैत वेदान्त में विशेष रूप से तत्व-त्रय का चिन्तन विहित है। तत्व तीन हैं – चित् (जीव), अचित् (प्रकृति/ जगत्) और चित्-अचित् विशिष्ट ईश्वर (ब्रह्म)। उसमें शेष द्वार चिदचित्त का परमात्मा में आश्रय है। परमात्मा से चिदचित्त तत्व का आपृथग्भूत सम्बन्ध अंगा-अंगी भाव स्वीकार किया जाता है। यह तत्व-त्रय सत्य रूप है। उनमें चित्तत्व पर विचार किया जा रहा है।

चित् तत्व (जीव)

परमात्मा का शरीर स्थानीय (अंशरूप) चित् तत्व ही जीव है। उक्त है - अणुत्वे सति चेतनत्वं, स्वतः शेषत्वे सति चेतनत्वम् (यतीन्द्रमादीपिका)। जीव चेतन स्वभाव का होता है। यह स्वयं प्रकाश रूप में विद्यमान होता है। जीव का स्वाभाविक कर्तृत्व स्वीकार किया जाता है। विशिष्टाद्वैत दर्शन की प्रक्रिया में जीव अणुरूप है। इसीलिए कहा गया है - ऐषोऽणुरात्मा (मु. उ. 3.1.9)। जीव को ज्ञान स्वरूप में स्वीकार किया जाता है। जीव का परमात्मा में अधीनत्व और अंशत्व निरूपित है। वह जीव अस्वतन्त्र कर्म के अनुसार संसार-चक्र में सञ्चरण करता है। मुक्तात्मा के जीव का ज्ञान स्वरूप अन्य मुक्तात्माओं द्वारा समान रूप से स्वीकार किया जाता है। इस दर्शन में जीव के तीन प्रकार का निरूपण है, यथा-

1. बद्ध - अनादि कर्मपाशों के द्वारा बद्ध जीव देव, मनुष्य आदि से भिन्न होते हैं। 

2. मुक्त - जो कर्म पाश के नाश के लिये प्रकृति सम्बन्ध से युक्त ईश्वर सायुज्य ही प्राप्त करते है, वे मुक्त हैं।

3. नित्य - नित्यों का कभी भी कर्मबन्ध अथवा प्रकृतिसम्बन्ध नहीं होता है। नित्य बद्ध नहीं और उनकी मुक्ति की अपेक्षा भी नहीं होती हैं। ईश्वर की आज्ञा से नित्य-विभूति स्थान वैकुण्ठ में भगवान की नित्य सेवा में रत होते हैं।



अंचित् तत्व (प्रकृति/जगत् ) का स्वरूप

परमात्मा शेष रूप से अचित् रूप में माना जाता है। यह अचित् तत्व प्रकृति तत्व के रूप में व्यवहृत है। अचित् तत्व जड़ रूप है, ऐसा सिद्धान्त है। वह परमात्मा अङ्ग और अस्वतन्त्र होता है। जीव का भोग्य होने से ही अस्वतन्त्र रूप में व्यवहार होता है। अचित् तत्व त्रिगुणात्मक होता है। त्रिगुण - सत्व, रज और तमस् होते हैं। यह जड़ रूप अचित् तत्व सत्य है, ऐसा विशिष्टाद्वैत दर्शन का सिद्धान्त है।

ईश्वर (ब्रह्म) का स्वरूप 

चित्-अचित् विशिष्ट अद्वैत तत्व ही ईश्वर कहलाता है। परमात्मा में चिदचित्त तत्व अपृथक-विशेषण सम्बन्ध से (अङ्ग-अङ्गि भाव से) नित्य होता है। ईश्वर - नित्य, अनन्त, कल्याण गुण गण होता है। जड़त्व, अनित्यत्व अदि हेय गुण वर्जित होने से निर्गुण यह परमात्मा निर्विशेष होता है, ऐसा विशिटाद्वैत प्रक्रिया विद्यमान है। उपनिषद् में विद्यमान परमात्मा का निर्गुण बोधक वाक्यों के हैयगुणाभाव बोधकता द्वारा प्रामाण्य है। परमात्मा सदैव सविशेष है, उसकी सृष्टि भी सविशेष है, ऐसा विशिष्टाद्वैतवादी मानते हैं। परमात्मा का अभिन्न निमित उपादानरूप जगत्कारणत्व स्वीकार किया जाता है अर्थात् परमात्मा जगत्कार्य के प्रति उपादान कारण होते हुए निमित्त कारण भी होता है, यह सिद्धान्त है। परमात्मा के सर्वत्र स्वतन्त्र होने से लक्ष्मी स्वेच्छा से परमात्माधीन होती हैं, ऐसा उनका मानना है। भगवान् ही अनुग्रह शक्ति, करूणा शक्ति, स्वतन्त्र और नित्य यह विशिष्टाद्वैत दार्शनिक निरूपित करते हैं। ईश्वर सर्वात्मक, सर्वानुगत, सर्वव्यापक और देश, काल वस्तु परिच्छेद के अभाव से अनन्त है, ऐसा विशिष्टाद्वैत प्रक्रिया में सिद्ध होता है। भगवान् के ज्ञान शक्ति और सत्यानन्द आदि स्वरूप धर्म है।

बन्ध - मोक्ष विचार

अनादि, कर्म, वासना के द्वारा जीव का स्वरूप आवृत्त होता है। जीव का कर्म-निमित्त से प्रकृति सम्बन्ध से ही बन्ध होता है। बन्ध परमात्मा के अंश का विस्मरण ही है। बद्ध जीव के कर्म-बन्धन नाश से प्रकृति सम्बन्ध का विरह होता है। प्रकृति-सम्बन्ध के वियोग से स्वरूप अवस्थान ही कैवल्य है, ऐसा विशिष्टाद्वैत वेदान्ती निरूपित करते हैं। कैवल्य क्या है? तो कहते हैं, ज्ञान योग द्वारा चित् मात्र के स्वरूपावगति है। कैवल्य परमार्थ नहीं किन्तु ईश्वर सायुज्य ही मोक्ष हैं, वही परम पुरूषार्थ है। सालोक्य-सामीप्य-सारूप्य-सायुज्य में ईश्वर-सायुज्य ही मोक्ष है, अन्यत्र मोक्ष शब्द गौण है, तो उक्त है - सालोक्याद्याः प्रभेदाः सायुज्यस्यैव तत्वात् तदितरविषये मोक्षशब्दस्तु भाक्तः (तत्वमुक्ताकलाप)। इस दर्शन में युक्तात्मा परमात्मा के आनन्दानुभव में तारतम्य स्वीकार नहीं है। सायुज्य परम मुक्ति में मुक्त भगवान के शेषरूपत्व को प्राप्त कर उनकी सेवा में रत (संलग्न) होते हैं। विशिष्टाद्वैत परम्परा में ईश्वर सायुज्य ही मुक्ति है। इनके द्वारा जीवन्मुक्ति स्वीकृत नहीं है।

मोक्षोपाय विचार

बद्ध जीव के मोक्ष के लिए प्रकृष्ट उपकारक ही मोक्ष का उपाय हैं। वह दो प्रकार का है - सिद्धोपाय और साध्योपाय। परमात्मा का अनुग्रह ही जीव के मोक्ष प्राप्ति में सिद्धोपाय कहलाता है। अतः नित्य सिद्ध ईश्वर ही सिद्धोपाय है। साध्योपाय कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग और प्रतिपत्ति है। विशिष्टाद्वैतदर्शन के अनुसार भक्ति और प्रतिपत्ति प्रधान रूप से मोक्षोपाय है। कहा गया है - भक्ति प्रपत्तिभ्यां प्रपन्न ईश्वर एवं मोक्ष ददाति। अतस्तयोरेव मोक्षोपायत्वम् (यतीन्द्रमतदीपिका)। कर्म योग और ज्ञान योग में अविच्छिन्न भगवद् भक्ति की व्युत्पत्ति मुख्य रूप से मोक्षोपायत्व है। ज्ञानयोग से जीव की स्वरूपावगति, जड़ प्रकृति से आत्मा का भेद और परमात्मा का शेषत्व ये विषय ज्ञात होते हैं। ईश्वर के शेषत्व द्वारा अपनी स्वरूपावगति ही ज्ञानयोग कहलाती है।

भक्ति

भागवत्प्रीति रूप ज्ञान ही भक्ति है। निष्कल्मष-निष्कारण-प्रीतिरूप ज्ञानसन्तति भक्ति है, ऐसा व्याख्यायित है। कहा भी गया है -

भक्तिः मुक्तेरूपाय: श्रुतिशतविहितः सा च धीः प्रीतिरूपाः। (तत्वमुक्ताकलापः)

महनीयविषये प्रीतिः भक्तिः प्रीत्यादयश्च ज्ञानविशेषाः (सर्वार्थसिद्धि व्याख्या)

प्रपत्ति

विशिष्टाद्वैत दर्शन में प्रपत्ति स्वतन्त्र रूप से मोक्षोपाय के रूप में निरूपित है। न्यास, शरणागति, आत्म समर्पण और आत्मनिक्षेप शब्द तात्पर्य से प्रपत्ति रूप अर्थ के लिए प्रपञ्च करते हैं। इस प्रपत्ति के पाँच अंग होते हैं। यथा -

1. अभिगमन - जप आदि द्वारा भगवदुसमर्पण।

2. उपादान - पूजा द्रव्य संग्रह।

3. इज्या - विष्णु पूजा।

4. स्वाध्याय - आगम का अध्ययन।

5. योग - अष्टाङ्ग योग का अनुष्ठान।

मोक्ष अथवा मोक्षसाधन के सम्पादन में "अहम् समर्थ:" ऐसा निश्चित कर परिपूर्ण श्रद्धा द्वारा भगवान में शरणागति ही प्रपत्ति कहलाती है। कहा गया है -

अनन्यसाध्ये स्वाभीष्टे महाविश्वासपूर्वकम्। 

तदेोपायतायां च प्रपत्तिः शरणागतिः। (प्रपन्नपारिजात)

विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के अनुसार भक्ति मार्ग में वैसे त्रैवर्णिकों का ही अधिकार हैं। किन्तु प्रपत्ति मार्ग में तारतम्य के बिना सभी का अधिकार निरूपित है। प्रपत्तिः भक्तिमार्गात् भिद्यते। भक्ति तो प्रारब्ध कर्म को छोड़कर अन्य सभी कर्मों का नाश करती है। प्रारब्ध का भोग द्वारा ही क्षय होता है। किन्तु प्रपत्ति सभी प्रकार के कर्म के साथ प्रारब्ध का भी नाश करने के कारण से आशुमोक्षकारिणी कहलाती है।

विशिष्टद्वैत दर्शन में माया का निराकरण 

मायावाद की आलोचना - सप्तविध अनुपपत्तियाँ 

आचार्य शंकर ने जगत् के मिथ्यात्व की सिद्धि के लिए माया सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उनके मन में जगत् की सत्ता अज्ञान के कारण सत्य या नित्य जान पड़ती हैं। वह पदार्थ जो जगत् का उपादान कारण है और जिसके कारण अद्वितीय ब्रह्मन् पर नानात्व आरोपित कर जगत् की उत्पत्ति की जाती है, माया कहलाता है। माया भाव-रूप एवं अनिर्वाच्य है। इसके कारण ही हमें ब्रह्म में जगत् की प्रतीति का भ्रम होता है। माया अनादि है परन्तु इसका अन्त सम्भव है। ब्रह्मज्ञान माया का निवर्तक ज्ञान है। माया नामधेय मात्र है। नाम-रूप के नाश के साथ ही इसका भी अन्त हो जाता है। रामानुज माया के उपयुक्त सिद्धान्त को मिथ्यावाद कहते हैं। उन्होंने इसका सशक्त खण्डन किया है। मायावाद के खण्डन के लिए रामानुज ने कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं जिन्हें अनुपपत्ति कहते हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत अनुपपत्तियाँ संख्या में सात हैं। जो 'सप्तविध अनुपपत्ति' के नाम से प्रसिद्ध हैं। संक्षेप में इन अनुपपत्तियों का वर्णन हम इस प्रकार कर सकते हैं – 

1. आभयानुपपत्ति - शंकर द्वारा प्रणीत माया के विरुद्ध रामानुज का पहला तर्क यह है कि भाव-रूप अनिर्वाच्य माया का कोई आश्रय नहीं है। माया स्वयं अपना आश्रय नहीं है, ऐसा शंकर भी मानते हैं क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त कोई भी स्वाश्रय सत्ता नहीं है, ब्रह्म माया का आश्रय नहीं हो सकता। ब्रह्मन् एक पूर्ण सत्ता है। ब्रह्मन् स्वयंप्रकाश है। स्वयंप्रकाश सत्ता किसी भी कारण से आच्छन्न नहीं हो सकती। माया की सत्ता ब्रह्म की विरोधी सत्ता है जो ब्रह्म के स्वरूप को आच्छन्न करती है। फलस्वरूप माया का आश्रय ब्रह्म नहीं हो सकता, क्योंकि माया के लिए ब्रह्म को तिरोहित करना आवश्यक है और ब्रह्मन् का स्वरूप तिरोहित नहीं किया जा सकता। ब्रह्मन् की सत्ता अविनाशी सत्ता है। माय से उसका नाश नहीं किया जा सकता। अतः ब्रह्मन् माया का आश्रय नहीं सिद्ध होता। यदि जीव को माया का आश्रय कहा जाय तो यह भी उचित नहीं है, ऐसा करने पर तार्किक दृष्टि से अन्योन्याश्रय दोष होगा। जीव माया द्वारा उत्पन्न है, उसकी सत्ता माया से पहले सिद्ध नहीं होती। अतः जीव की माया का आश्रय नहीं हो सकता। इस प्रकार माया का कोई आश्रय नहीं रह जाता। 

2. तिरोधानानुपपत्ति – माया को अविद्या कहते हैं। अविद्या ज्ञान का नष्ट हो जाना है। परन्तु शुद्ध शान नष्ट नहीं होता। उसकी सत्ता अनन्त है। शुद्ध ज्ञान या परम ज्ञान मानसिक वृत्तियां विकल्प नहीं है। उसका उद्भव नहीं होता। इसलिए उसका विनाश भी सम्भव नहीं है। शुद्ध ज्ञान स्वयं प्रकाश हैं। इसलिए उसका तिरोधान नहीं हो सकता। ज्ञान का तिरोध न करना ही माया का कार्य है, परन्तु हम देख चुके हैं कि ज्ञान का तिरोधान असम्भव है। इसलिए माया असिद्ध है। 

3. स्वरूपानुपपत्ति - तीसरी असंगति माया के स्वरूप के विषय में है। अविद्या सत्य नहीं है, क्योंकि अद्वैतवाद में ब्रह्मन् के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है। इसे असत्य भी नहीं कह सकते क्योंकि अविद्या जगत् का कारण है। इसलिए इसे असत्य जगत् का असत्य कारण कहा जाय तो तार्किक दृष्टि से अनवस्था दोष होगा। यदि मिथ्या जगत् का मिथ्या ज्ञान अविद्या (मिथ्या) द्वारा उत्पन्न होता है तो अविद्या के ज्ञान के लिए भी किसी अन्य मिथ्या सत्ता को स्वीकार करना होगा। उस सत्ता के लिए किसी अन्य सत्ता की आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रकार यह क्रम अनन्त होगा। यदि यह कहा जाय कि माया ब्रह्मन् द्वारा प्रकट की जाती है तो स्थिति और भी जटिल हो जायगी। ब्रह्मन् नित्य-सत्ता है, उसके द्वारा अभिव्यक्त माया भी सनातन होगी। फलस्वरूप जीव सर्वदा ही माया का दर्शन करता रहेगा और उससे कभी भी मुक्त नहीं हो सकेगा। 

4. निर्वचनीयानुपपत्ति - शंकर के अनुसार माया अनिर्वचनीया है। यह परिभाष्य नहीं है। यह एक सदसद्विलक्षण सत्ता है। रामानुज का कहना है कि सत्ता-ज्ञान या तो सत् के रूप में होता है या असत् के रूप में, जो इनसे परे है, उसका ज्ञान नहीं होता। अनिर्वचनीय की अनुभूति या ज्ञान सम्भव नहीं है। जिनका हमें ज्ञान नहीं होता, उसकी सत्ता है, यह कहना उचित नहीं है। 

5. प्रमाणानुपपत्ति - माया को स्वीकार करने में चौथी कठिनाई इसकी सिद्धि के लिए आवश्यक प्रमाणों का अभाव है। चूँकि अविद्या सदसद्विलक्षण हैं, इनका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता। प्रत्यक्ष के अभाव में कोई लिंग भी नहीं रह पाता जिसके आधार पर इसको अनुमेय बताया जा सके। अनुमान के लिए लिंग तथा व्याप्ति का होना आवश्यक है। अनिर्वचनीय माया के लिए कोई व्याप्य भी नहीं सिद्ध होता, क्योंकि हम पहले भी देख चुके हैं कि इसका कोई आश्रय नहीं है। व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध के अभाव में व्याप्ति भी नहीं सिद्ध हो पाती। इसलिए अविद्या अनुमान से सिद्ध नहीं होती। श्रुतियाँ माया को ब्रह्मन् की सृष्टि रचना शक्ति के रूप में वर्णित करती हैं, किसी अनिर्वचनीय अज्ञान के रूप में नहीं। इसलिए अनिर्वचनीय माया की सिद्धि के लिए प्रत्यक्ष अनुमान या शब्द, किसी भी प्रमाण का उपयोग नहीं किया जा सकता है। 

6. निवर्त्तकानुपपत्ति - अद्वैत वेदान्त के अनुसार अविद्या-निवृत्ति के लिए निर्गुण, निविशेष, अद्वैत ज्ञान आवश्यक है। परन्तु रामानुज के मत में निर्विशेष ज्ञान असम्भव है। उनके अनुसार सभी प्रकार के ज्ञान सविशेष होते हैं। इसलिये अविद्या का कोई निवर्तक ज्ञान नहीं है। परिणामस्वरूप अविद्या कभी नष्ट नहीं होगी। 

7. निवृत्यनुपपत्ति - किसी निवर्तक के अभाव में अविद्या की निवृत्ति सम्भव प्रतीत नहीं होती। अद्वैत मत में ब्रह्म ज्ञान को अविद्या का निवर्तक माना जाता है। ब्रह्म-ज्ञान ब्रह्म-विषयक ज्ञान न होकर ऐसा ज्ञान है जो स्वयं ही ब्रह्म है। ज्ञान ही ब्रह्म है। इसको शुद्ध या निर्विशेष ज्ञान भी कहते है। यह ज्ञान ब्रह्मात्मैकत्वबोध से भिन्न है। ब्रह्म और आत्मा की आत्यन्तिक एकता का ज्ञान अथवा अद्वैत ज्ञान निवर्तक ज्ञान कहलाता है। यह एक उच्चतम मानसिक वृत्ति है। रामानुज कहते हैं कि निवर्तक ज्ञान भी अविद्या के अन्तर्गत ही होगा क्योंकि ब्रह्म से अतिरिक्त सब कुछ अविद्या है। इसलिये यह मानना होगा कि अविद्या का निवारण अविद्या द्वारा ही होता है। परन्तु ऐसा करना असम्भव है। अद्वैत वेदान्ती यह भी कहते हैं कि निवर्तक ज्ञान का उच्चतम मानसिक वृत्ति होने के कारण अविद्या का नाश कर देता है और स्वयं नष्ट भी हो जाता है। इसे हम दावाग्नि के उदाहरण से स्पष्ट कर सकते हैं। जंगल में लगी आग जंगल को भस्म करके स्वयं भी नष्ट हो जाती है। उसे नष्ट करने के लिए किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार अद्वैत ज्ञान भी अविद्या को नष्ट कर स्वयं भी नष्ट हो जाता है। परन्तु रामानुज इससे सन्तुष्ट नहीं होते। उनका कहना है कि जंगल दावाग्नि द्वारा निःशेष रूप से नष्ट नहीं हो पाता, आग बुझने के बाद राख बच जाती है। (हम कह सकते हैं कि आग राख के कारण ही बुझती है, अन्यथा उसका बुझना असम्भव होता।) इसलिए अविद्या राख के रूप में रह सकती है, जिसे पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सकता अर्थात् अविद्या की पूर्ण निवृत्ति सम्भव नहीं है। 

अद्वैत दर्शन में स्वीकृत अविद्या के विरुद्ध रामानुज द्वारा प्रस्तुत अनुपपत्तियों का यदि विश्लेषण किया जाय तो ज्ञात होगा कि रामानुज अविद्या को ज्ञानसापेक्ष ब्रह्मन् की विरोधी सत्ता एवं असत् जगत् को सत् जगत् के रूप में ग्रहण करना ही समझते हैं। उपयुक्त तीनों अर्थों में अविद्या सचमुच अद्वैत दर्शन से सामंजस्य नहीं रखती। यदि अविद्या ज्ञान का अभाव है (जैसा उसमें प्रयुक्त 'अ' से सिद्ध होता है), तो यह मानना पड़ेगा कि ज्ञान का लोप होता है। परन्तु ज्ञान के अभाव में ज्ञान का अभाव बुद्धिगस्य नहीं हो सकता अर्थात् अविद्या के पूर्व ज्ञान विद्यमान होता है, जिसे नष्ट कर अविद्या उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए यदि हम कहें कि 'घट नहीं है, तो हमें यह जानना आवश्यक है कि घट किसे कहते हैं ? अर्थात् 'घटाभाव' घट-ज्ञान' से ही सिद्ध हो सकता है। यही बात अविद्या के बारे में भी सही है। यदि कहा जाये कि अविद्या सविशेष ज्ञान का अभाव नहीं बल्कि परमतत्व की अनुभूति का अभाव है, तो यह मानना होगा कि ब्रह्मन् और अविद्या में परस्पर विरोध है। ब्रह्मन् और अविद्या का परस्पर विरोध अद्वैत से सिद्ध नहीं हो सकता। अविद्या ब्रह्मन् के स्वरूप का तिरोधान नहीं कर सकती क्योंकि ब्रह्मन् की सत्ता नित्य है। ब्रह्मन् का आंशिक आच्छादन भी सम्भव नहीं है क्योंकि ब्रह्म अविभाज्य है। उसकी सत्ता पूर्ण इकाई की सत्ता है, जिसमें स्वगत भेद की सम्भावना नहीं है। यदि जगत् अज्ञान है तो जगत् का यथार्थ बोध ही ज्ञान सिद्ध होगा। परन्तु ब्रह्मन् के स्वरूप का ज्ञान जगत् का मिथ्यात्द-बोध ही नहीं है अर्थात् जगत् को मायाजन्य जान लेने से ब्रह्म ज्ञान नहीं प्राप्त हो जाता। ब्रह्म ज्ञान का अभाव जगत् के मिथ्यात्व बोध से दूर नहीं हो सकता क्योंकि दोनों दो भिन्न प्रकार के ज्ञान हैं। दोनों ज्ञानों का विषय एक नहीं है। अतः अविद्या की निवृत्ति से ब्रह्म ज्ञान सिद्ध नहीं किया जा सकता। ब्रह्मज्ञान के लिए तो ईश्वर की भक्ति-परक उपासना ही एकमात्र साधन है क्योंकि ब्रह्मसाक्षात्कार ब्रह्म समर्पित मानस द्वारा ही किया जा सकता है।

विशिष्टद्वैत दर्शन में अपृथकसिद्धि 

ईश्वर का जीव एवं जगत् से सम्बन्ध - ईश्वर सृष्टि का कर्ता है। वह सृष्टि का रचयिता है और साथ ही साथ प्रेरक भी है। जीव और प्रकृति, जिनसे इस जगत् का निर्माण हुआ है, ईश्वर के अंशभूत तत्त्व हैं, इसलिए ईश्वर इस जगत् का उपादान कारण है। सृष्टि का प्रारम्भ ईश्वर के संकल्प से होता है, इसलिए वही जगत् का निमित्त या प्रेरक कारण भी है। दूसरे शब्दों में रामानुज ईश्वर को जगत् का उपादान कारण भी मानते है और निमित्त कारण भी। जगत् ईश्वर का कार्य है। अतः जगत् का ईश्वर से कारण कार्य सम्बन्ध है। रामानुज सत्कार्यवादी दार्शनिक हैं। उनके अनुसार कार्यकारण में पहले से ही विद्यमान रहता है। कारण कार्य से एकदम पृथक् या सर्वथा व्यतिरिक्त नहीं होता। यदि कार्य कारण से एकदम भिन्न हो तो कारण-ज्ञान-कार्यज्ञान नहीं उत्पन्न कर सकता। फलस्वरूप उपनिषद् की यह मान्यता कि एक ब्रह्म को जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है, सत्य सिद्ध नहीं होती। इसलिये रामानुज का विचार है कि कार्य कारण से भिन्न होते हुए भी उससे पृथक् नहीं होता; अर्थात् ब्रह्म का कार्य रूप जगत् कारण-रूप ब्रह्म से पृथक् नहीं है। लेकिन दोनों, ब्रह्म और जगत्, अथवा कारण और कार्य, एक भी नहीं कहे जा सकते। उनमें भेद भी हैं। ईश्वर अनन्त है, जबकि जगत् का अन्त निश्चित है। इसलिये दोनों के बीच तादात्म्य नहीं हो सकता। ईश्वर और जगत् के बीच न तो पूर्ण अभेद है और न पूर्ण भेद ही हैं। ऐसे सम्बन्ध को रामानुज ने शरीर-शरीरी-सम्बन्ध अथवा देह-आत्मा-सम्बन्ध के रूप में देखा है। ईश्वर जगत् की आत्मा है, जबकि जगत् उसका शरीर है। जगत् में चित् अथवा जीव एवं अचित् अथवा प्रकृति दोनों ही सम्मिलित हैं। इनमें भी आत्मा-शरीर-सम्बन्ध है। जीव प्रकृति में उसकी आत्मा बनकर रहता है और प्रकृति उसको शरीर होती है। जब हम जगत् को ईश्वर का शरीर मानते हैं तो हमें यह समझना चाहिए कि जीवात्मा ईश्वर का शरीर है। ईश्वर जीवात्मा में अन्तर्यामी रूप से उसकी अन्तरात्मा बनकर स्थित रहता है। जीवात्मा का शरीर होने के कारण प्रकृति की भी ईश्वर का शरीर कह सकते है। इस प्रकार जगत् ईश्वर का शरीर और ईश्वर जगत् की आत्मा है। इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि शरीर शब्द के प्रयाग द्वारा रामानुज केवल इस बात पर बल देना चाहते हैं कि ईश्वर ही जगत् का उद्देश्य और नियामक है। आत्मा से अभिप्राय उस सत्ता से है जो आन्तरिक है और जिसका शरीर पर नियन्त्रण है। इसलिये रामानुज ईश्वर और जगत् के बीच सम्बन्ध को नियाम्य-नियामक सम्बन्ध की संज्ञा भी देते हैं। शरीर-शरीरी-सम्बन्ध को प्रोफसर हिरियन्ना ने जैविक सम्बन्ध कहा है। डॉ० राध कृष्णन भी इस सम्बन्ध को जैविक सम्बन्ध कहना ही पसन्द करते हैं। अंगांगी, विशेषण-विशेष्य, शेष-शेषी इत्यादि सम्बन्ध भी शरीर-शरीरी भाव से ही सिद्ध होते हैं।

ईश्वर और जगत् के बीच जैविक सम्बन्ध की कुछ आवश्यक कलश्रुतियाँ यहाँ विचारणीय हैं। जैविक सम्बन्ध साधारणत: एक ही इकाई के विभिन्न अङ्गों के बीच अन्योन्याश्रय का सम्बन्ध है। ईश्वर, जीव और जगत् के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध केवल सृष्टि व्यापार के सन्दर्भ में ही सिद्ध होता है। ईश्वर सृष्टि के लिए जीव और प्रकृति पर निर्भर है, क्योंकि जीव और प्रकृति के संयोग से ही संसार का प्रारम्भ हो सकता है। ईश्वर स्वयं प्रकृति से संयोग नहीं कर सकता क्योंकि वह निर्गुण यानी प्रकृति के गुणों से रहित है। किसी काल में रचे जाने वाले संसार का रूप उसमें उत्पन्न होने वाले जीवों के 'अदृष्ट' से निर्धारित होता है। ईश्वर जगत् में नाना प्रकार की वस्तुओं का निर्माण एवं घटनाओं का संयोजन जीवात्माओं द्वारा भोग्य कर्मफल के अनुसार ही करता है। अतः कहना समीचीन मालूम पड़ता है कि रामानुज, ईश्वर और जगत् के बीच शरीर-शरीरी-सम्बन्ध स्वीकार कर जैविक सम्बन्ध की सम्भावना भी मानते हैं। परन्तु इसकी सम्भावना कार्य ब्रह्म में ही की जा सकती है, कारणब्रह्म में नहीं। 

रामानुज दर्शन में स्वीकृत दर्शन की धारणा के आधार केवल उपनिषद् ग्रन्थ ही नहीं हैं। रामानुज ने आगम ग्रन्थों, पुराणों और तमिल प्रबन्धों में वर्णित ईश्वर के स्वरूपों को भी उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म में स्थापित करने का प्रयास किया है। फलस्वरूप वे निर्गुण एवं सगुण में कोई भेद नहीं मानते, उनका ईश्वर तार्किक प्रत्यय या तार्किक सत्य मात्र नहीं है। रामानुज के ब्रह्म को हम धर्म का ईश्वर भी कह सकते हैं। रामानुज ईश्वर को नारायण या विष्णु कहते हैं। धार्मिक अनुभूति की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नारायण पाँच रूपों में स्थित हैं। इनमें सबसे श्रेष्ठ या 'परश् रूप नारायण' है। सृष्टि के नियमन के लिए वह व्यूह रूप में स्थित है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध - ये चार व्यूह हैं। भक्तगणों को पृथ्वी पर अपना साहचर्य प्रदान करने के लिए तथा दुष्ट लोगों से उनकी रक्षा करने के लिए पर तत्त्व विभव या अवतार ग्रहण करता है। अवतार अप्राकृत ब्रह्म-तत्त्व का प्राकृत रूप में प्रकट होना है। अवतार के मुख्य और गौण, दो भेद हैं। जब विष्णु स्वयं पृथ्वीतल पर अवतरित होते हैं तो उसे मुख्य अवतार कहते हैं। श्रेष्ठ या मुक्त जीवात्मा को किसी विशेष कार्य के लिए पृथ्वी पर आना गौण अवतार कहलाता है। मुमुक्षु लोग मुख्य अवतारों की उपासना करते हैं जबकि गौण अवतारों की उपासना लौकिक समृद्धि या पार्थिव फलों के लिए की जाती है। भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर ईश्वर स्थान-स्थान पर मूर्तियों में प्रविष्ट होकर स्थित होता है। भगवान् द्वारा अनुप्राणित इन विग्रहों को 'अर्चा' कहते हैं। अन्तर्यामी ब्रह्म सभी जीवों के हृदय में निवास करता है और इसके सुख-दुःख में द्रष्टा रूप से सर्वदा विद्यमान रहता है। ब्रह्मन् का पर स्वरूप अचिन्त्य एवं अज्ञेय है क्योंकि वह अप्राकृतिक है। अपने पर रूप में वह विष्ण-लोक में निवास करता है। उसका अपना विग्रह तथा निवास स्थान शुद्ध तत्व से निर्मित होता है। 'पर' रूप में नारायण नित्य एवं मुक्त पुरुषों से सेवित होता है। श्री या लक्ष्मी विष्णुप्रिया है। वे करुणा एवं कृपा की मूर्ति हैं। भक्तजन लक्ष्मी द्वारा ही अपने उद्धार के लिए विष्णु की कृपा प्राप्त करते हैं। लक्ष्मी को विष्णु की शक्ति कह सकते हैं। विष्णु की शक्ति के रूप में लक्ष्मी के क्रिया और मूर्ति, दो स्वरूप हैं। क्रिया लक्ष्मी का नियामक और नियन्त्रक रूप है। इस शक्ति द्वारा विष्णु संसार का नियमन और नियंत्रण करते हैं। मूर्ति लक्ष्मी की प्रकृत शक्ति है। इससे विष्णु संसार के लिए आवश्यक उपादान प्राप्त करते हैं। 

  मध्वाचार्य का द्वैत वेदान्त दर्शन का परिचय

मध्वाचार्य की दार्शनिक चिन्तन पद्धति द्वैतदर्शन प्रसिद्ध है। द्वैतवेदान्त दर्शन में परमात्मा स्वतन्त्र तत्व है। उसके अधीन जीव जड़ पदार्थ अस्वतन्त्र है। इस प्रकार जीव अथवा जड़ प्रपञ्च तत्वतः परमात्मा से भिन्न होता है। भेद ही सत्य है, ऐसा इस दर्शन का परमार्थ है। यही द्वैतदर्शन स्वतन्त्र और अस्वतन्त्र दो प्रकार से विभक्त होकर प्रवर्तित होता है। स्वतन्त्र तत्व भगवान विष्णु ही है। अस्वतन्त्र तत्व भावाभाव मुख से पुनः दो प्रकार का विभाजित है। वहाँ भाव पदार्थ चेतन, अभाव पदार्थ अचेतन प्रपञ्च है, ऐसा पदार्थ विभाग होता है। उक्त है – 

स्वतन्त्रम् अस्वतन्त्रं च द्विविधं तत्वमिष्यते। 

स्वतन्त्रे भगवान् विष्णुः भावाभावौ द्विधोरत्॥ (तत्वसंख्यान, श्लोक)

द्वैतवेदान्त दर्शन का सार इस प्रकार है, यथा -

1. श्रीमन् नारायण ही सर्वोत्तम है।

2. जगत् परमार्थतः सत्य है।

3. जीव परमात्मा से भिन्न है।

4. सभी जीव भगवान के दास हैं।

5. जीवों में परस्पर तारतम्य नित्य है।

6. भक्ति ही मोक्ष का उपाय है।

द्वैतवेदान्त दर्शन में भेद पारमार्थिक रूप में निरूपित है। भेद का नाम उससे इतर विलक्षण पदार्थ का स्वरूपत्व है और वह पाँच प्रकार का भेद सभी अवस्थाओं में नित्य रूप से होता है। उसमें जीव-ईश्वर का भेद, जीव-अजीव का भेद, जड-जीव का भेद, जड़-ईश्वर का भेद, जड़-जड़ का भेद, ये भेद के पाँच प्रकार हैं। ये पाँच भेद सभी अवस्थाओं में नित्य हैं। इन भेदों में जीव-ईश्वर का भेद ही मुख्य होता है। अतः यह जीव ईश्वर का भेद ही द्वैत दर्शन का मुख्य प्रमेय है, ऐसा परिगणित होता है।


प्रपञ्च सत्यत्व विचार

द्वैतमत में मुक्ति में भी जीव का तारतम्य और अस्वातन्त्रय अंगीकृत हैं। प्रपञ्च सृष्टि भगवान का लीलाकार्य है, ऐसा माध्व सिद्धान्त है। अतः तीनों कालों में भी प्रपञ्च सत्य, विष्णु के वश में स्थित कहा जाता है। प्रलयकाल में भी प्रपञ्च तात्विक रूप से नहीं होता है। किन्तु कार्यरूप ब्रह्माण्ड विष्णु में सूक्ष्मरूप से अवस्थित होता है, ऐसा सिद्धान्तसार है।

प्रमाण विचार

प्रमेय के स्वरूप बोध के लिए प्रमाण दार्शनिकों के द्वारा निरूपित हैं। जिनके द्वारा यथार्थवस्तु-स्वरूप गृहण होता है, वह प्रमाण होता है और वह प्रमाण प्रधान रूप से दो प्रकार से विभक्त है - केवल प्रमाण और अनुप्रमाण। प्रमेय का यथार्थ विज्ञान ही केवल प्रमाण कहलाता है। ज्ञान के साधन इन्द्रियाँ युक्ति और आगम अनुमान प्रमाण व्यवहृत है। यह प्रत्यक्ष अनुमान और आगम पुनः तीन प्रकार से अनुप्रमाण विभाजित हैं। उसमें दोष रहित इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष ही प्रत्यक्ष है। दोष रहित युक्ति ही अनुमान कही जाती है। अनुमान स्वार्थ और परार्थ दो प्रकार से विभक्त है। परोपदेश (अन्य को उपदेश) की अनपेक्षा करके ही विषय के अवबोध के लिए की गई युक्ति अनुमान ही स्वार्थानुमान कही जा सकती है। अन्य को बोध कराने हेतु प्रयुक्त युक्ति परार्थानुमान प्रसिद्ध है। परार्थानुमान में पाँच अवयव हो, ऐसा न्यायविद् कहते हैं। किन्तु पञ्च अवयव भी नियमपूर्वक परार्थानुमान प्रयोजक हैं, ऐसा द्वैत विदान्त की प्रक्रिया में स्वीकार नहीं किया जाता है।

निर्दुष्ट वाक्य आगम रूप में व्यपदिष्ट है। आकांक्षा-योग्यता-सन्निधि सहित पदसमूह ही वाक्य के रूप में कहा गया है। यह वाक्य पौरूषेय और अपौरूषेय रूप से दो प्रकार का विभक्त है। ऋषियों के द्वारा योग बुद्धि से साक्षात्कृत शब्द राशि अपौरूषेय आगम होता है। पुरूष बुद्धि द्वारा विरचित वाक्य पौरूषेय आगम कहलाते हैं। इस प्रकार द्वैतवेदान्त अनुगुण ज्ञेय पदार्थों की यथार्थ ज्ञानोत्पत्ति में तीन प्रमाण होते हैं।

विष्णु तत्व

द्वैतवेदान्त सम्प्रदाय में विष्णु का ही सर्वोत्तमत्व स्वीकार किया जाता है। सभी आगमों का विष्णुतत्व में ही महत् तात्पर्य है। विष्णु ही ब्रह्म शब्द से कहा जाता है। वही सर्वाधिक, अखिल दोष वर्जित, सकल कल्याण गुणपूर्ण सर्वेश्वर इस प्रकार से उपवर्णित है। विष्णु ही मोक्ष के प्रति भी कारण है। इस सम्प्रदाय में विष्णु ही जगत् का निमित्त कारणत्व स्वीकृत है। लक्ष्मी जगत् की उपादान कारण है। यह लक्ष्मी विष्णु के अधीन है। लक्ष्मी विष्णु के संकल्पानुसार जड़ प्रकृति के सृष्टि-स्थिति-लय कार्यों में सहकारी होती है। इस प्रकार लक्ष्मी तत्व स्वयं में संस्थापित करके विष्णु जीव-जड़ पदार्थों का अन्तर्यामी होते है, ऐसा सिद्धान्त है।

जीव स्वरूप

द्वैतदर्शन के अनुसार भगवान नारायण से भिन्न सूक्ष्म चेतन ही जीव है। सकलगुण युक्त जीव होते हैं। किन्तु वे गुण सभी जीवों में स्फुट अभिव्यक्त नहीं होते हैं। भगवान के यथार्थ ज्ञान के अभाव से जीव इस लौकिक संसार में जनन-मरण के चक्र में गिरता है। लिङ्ग शरीरान्तः स्थित चिदानन्दमय जीव होता है। यह जीवगण तारतम्य विशिष्ट सिद्धान्त है। सात्विक, राजसिक, तामसिक के भेद से जीव तीन प्रकार से विभक्त हैं। देव आदि का अन्तर्भाव सात्विक जीव गुण में होता है। ये स्वरूप से ही विष्णु भक्त होते हैं, कालक्रम से वैकुण्ठ को प्राप्त करते हैं। मनुष्य राजसी जीव गुण में अन्तर्निहित होते हैं, ये स्वभावानुसार भू-स्वर्ग-नरक लोकों में सञ्चरण कर नित्य संसारी होते हैं। अधर्म मार्ग में प्रवृत्त मनुष्य और राक्षसों का तामस जीव गुण में अन्तर्भाव होता है। ये सभी जीव प्रकृति सम्बन्ध से बद्ध होते हैं। राग, द्वेष आदि के संसर्ग से विषय भोग में प्रवृत्त होते हैं। अस्वातन्त्रय, अनेकत्व और अणुरूपत्व जीव का लक्षण है, ऐसी माध्व वेदान्त की प्रक्रिया है।

मोक्ष- साधन

बद्ध जीव अपने स्वरूप की अवगति के प्रति मोक्ष-साधनों में रत्न करते हैं। द्वैत मतानुसार चार मोक्ष के साधन होते हैं। विषय वैराग्य, सत्कर्माचरण, ब्रह्मविचार और भगवत्भक्ति। विषय सुख को अनुभूत करके उसके अनित्यत्व और असुखत्व को जानकार उसमें विरक्ति ही विषय वैराग्य कहा जाता है। शास्त्रोक्त प्रकार से नित्य-नैमित्तिक कर्मों का आचरण मोक्ष साधन होता है। शास्त्र चिन्तन और श्रवण-मन-निदिध्यासन ब्रह्मविचार रूप मोक्ष-साधन होते हैं। भगवान की अनुग्रह प्राप्ति के लिये उस परमेश्वर में अविच्छिन्न प्रीति ही भक्ति कहलाती है। भक्ति के द्वारा ही नारायण सम्प्रीत होते हैं। अतः भक्ति ही मुक्ति का परम साधन है और वह भक्ति ज्ञानपूर्विका हो। नारायण ही सर्वोत्तम है, ऐसी भगवान में सुदृढ़ प्रीति होती है, वह भक्ति शब्द से कही जाती है। श्रवण, मनन आदि द्वारा सम्पन्न ज्ञान भगवान् में भक्ति को उत्पन्न करता है। अतः निजसुखानुभूति रूप मुक्ति के लिए शुद्ध भक्ति ही परम उपाय है, ऐसा द्वैतवेदान्त दर्शन का सिद्धान्त हैं।

मुक्ति स्वरूप

अन्यथा स्थिति को छोड़कर स्वरूप स्थिति की प्राप्ति ही मुक्ति है। जीव अपने स्वरूप-ज्ञान को भूलकर संसारासक्त (संसार से आसक्त) होकर दुःख का अनुभव करता है। उसमें अविद्या ही बन्ध का कारण है। उस अविद्या से निवृत्त होकर जीव के स्वरूपानन्द का आविर्भाव होता है। अतः मुक्ति निजसुखानुभूति ही है और वह मुक्ति चार प्रकार से विभक्त है। भगवान की सन्निधि में ही उसके अवच्छिन्न दर्शन को ही सालोक्य मुक्ति, ऐसा व्यपदेश किया गया है। उपासना आदि द्वारा भगवान के सन्निकृष्ट देश की प्राप्ति ही सामीप्य मुक्ति कही जाती है। भगवान के ही शंख, चक्र आदि के सहित तत्व को सारूप्य मुक्ति कहते हैं। भगवान नारायण में ही आश्रयपूर्वक आनन्द का अनुभव सायुज्य मुक्ति है, ऐसा उपदिष्ट है।

  निम्बार्क आचार्य का द्वैताद्वैत दर्शन का परिचय

भक्ति वेदान्त के आचार्य निम्बार्क हैं। वेदान्त पारिजात सौरभ नामक भाष्य के प्रणेता निम्बार्काचार्य है। इनका अपर नाम निम्बादित्य और नियमानन्दाचार्य है। सनत्कुमार के शिष्य नारदमुनि के शिष्य निम्बार्क है। रामानुज से परवर्ती कालीन निम्बर्काचार्य है। जि.आर. भाण्डारकार के मत में 1162 ई. में पाँचवें शतक में निम्बार्क हैं। निम्बार्क तेलेगु प्रदेशीय थे। पिता जगन्नाथ और माता सरस्वती थी। निम्बार्काचार्य के नाम के अनुसार कालान्तर में जन्म स्थान का नाम निम्बापुर हुआ। अब निम्बापुर का नाम नाईडुपत्तनम है। एक कथा प्रचलित है, कोई भिक्षार्थी निम्बार्काचार्य के घर आए। भिक्षार्थी ने कहा कि सूर्यास्त होने पर भिक्षा स्वीकार नहीं करता हूँ। आचार्य के घर में भोजन नहीं था, साधन भी नहीं था। जब तक भोजन बना तब तक सूर्य अस्त हो गया, इससे निम्बार्काचार्य ने मन में कष्ट अनुभूत करके भगवान से प्रार्थना की। तब भगवान सुदर्शन चक्र स्थापित हुए। वह चक्र सूर्य के समान प्रकाशित था। उसे देखकर भिक्षार्थी ने भोजन किया। अतः आचार्य का अपर नाम नियमानन्द है। आचार्य कृष्ण भक्त थे। आचार्य द्वारा जीवन का अधिक समय मथुरा में यापन किया गया। 

द्वैताद्वैतसिद्धान्त का परिचय

द्वैताद्वैत के प्रवर्तक निम्बार्काचार्य है। यह वाद अंशरूप में भेदाभेदवाद भी कहा जा सकता है। निम्बार्कानुसारी कहते हैं कि अंश-अशी सम्बन्ध, भेदाभेद सम्बन्ध और द्वैताद्वैत सम्बन्ध समानार्थक हैं। षङ्ग वेद, धर्म, मीमांसा के अध्ययन के पश्चात् वैराग्यवान भगवान के प्रसाद के आकांक्षी गुरू भक्त मुमुक्षु इस शास्त्र के अधिकारी हैं। इस सिद्धान्त में भक्त का उत्तम स्थान होता है। यहाँ दो तत्व होते हैं – स्वतन्त्र और अस्वतन्त्र। स्वतन्त्र ब्रह्म है। अस्वतन्त्र के दो भाग हैं - जीव और जड़। जड़ के तीन भाग हैं - अप्राकृत, प्राकृत और काल। द्वैताद्वैतवादियों के द्वारा जगत् और ब्रह्म का स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध स्वीकृत है। जीव-ब्रह्म का भेदाभेद जल तरंग के समान होता है। भेदाभेद प्रतिपादक श्रुतियाँ हैं - यतो वै इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयनि अभिसंविशन्ति च (तैत्तिरीयोपनिषद्), सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्योपनिषद्) इत्यादि। ये त्रिवृत्करण स्वीकार करते हैं। इनके मत में जीव - कर्ता, भोक्ता, नित्य, चैतन्य स्वरूप, अणु परिमाण और ज्ञान स्वरूप होता है। जीव ब्रह्म का अंश विशेष है, ऐसा ये स्वीकार करते हैं। जीव की चित् रूपता का विस्मरण ही अविद्या है, ऐसा इनका सिद्धान्त हैं। कर्म द्वारा चित्तशुद्धि, चित्तशुद्धि द्वारा अविद्या का निवारण होता है, उससे ज्ञान के प्रति कर्म के सहकारी कारणत्व को ये स्वीकार करते हैं। ये भक्ति ध्यान उपासना, यज्ञ आदि कर्म को ज्ञान साधन के रूप में स्वीकार करते हैं। इनके मत में जीव का चिदात्मा में अवस्थान ही मुक्ति है। प्रारब्ध कर्म का भोग से ही क्षय होता है। जीव मुक्त अवस्था में भी ब्रह्म के अंश रूप में रहता है। जीवों का कर्मफलदाता ब्रह्म ही है। परमेश्वर के छः ऐश्वर्य हैं - ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, तेज और ऐश्वर्य। यहाँ तीन अवतार हैं – गुणावतार, पुरुषावतार और लीलावतार। ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीन गुणावतार हैं। स्वरूपावतार, आवेशावतार और शाक्यांशावतार लीलावतार के तीन भाग हैं और भी इस सिद्धान्त में राम, नृसिंह और कृष्ण पूर्णावतार रूप में प्रसिद्ध हैं। मत्स्य, वामन, कुर्म, वराह, ये स्वरूपावतार रूप से प्रसिद्ध हैं। परशुराम, सनत्कुमार, नारद और कपिल, चार शाक्यांशावतार हैं। इनके मत में ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वनियन्ता होता है। यहाँ यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते (तैत्तिरीयोपनिषद्), यः सर्वज्ञ सर्वाविद् इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म के सर्वज्ञत्व में प्रमाण है, ऐसा ये स्वीकार करते हैं। इनके मत में अक्षर ईश्वर, जीव और जगत् चार रूप से ब्रह्म पूर्ण है।

  शुद्धाद्वैत वेदान्त का परिचय

शुद्धाद्वैत के प्रवर्तक है - वल्लभाचार्य। इन्होंने शंकराचार्य के द्वारा अद्वैतवेदान्त में प्रतिपादित मायावाद के प्रमाण का खण्डन करके शुद्धाद्वैत का प्रतिष्ठापन किया है और निर्गुण रूप प्रेम-लक्षण का भक्ति के द्वारा प्रचार किया। इसका ही व्यावहारिक स्वरूप पुष्टिमार्ग है। इस दर्शन में कारणरूप से और कार्यरूप से ब्रह्म शुद्ध ही रहता है। गोस्वामी गिरिधराचार्य के द्वारा कहा गया है – 

माया सम्बन्धरहितं शुद्धमित्युच्यते बुधैः। 

कार्यकरणरूपं हि शुद्धं ब्रह्म न मापिकम्॥

शुद्धाद्वैत शब्द का निर्वचन दो प्रकार से हुआ हैं -

1. शुद्धयोः अद्वैत शुद्धाद्वैतम्, यह पष्ठी तत्पुरूष है। उस नाम का तात्पर्य है, शुद्ध जगत् जीव के ब्रह्म से अद्वैत का अभिन्नत्व, शुद्धाद्वैत जगत् और जीव के ब्रह्म से अभिन्न ही है।

2. शुद्ध च अद्वैत च शुद्धाद्वैतमिति कर्मधारयः। इसका अर्थ है - ब्रह्म का जो अद्वैत है वह शुद्ध माया सम्बन्ध से रहित है।


ब्रह्म का स्वरूप

ब्रह्म सच्चिदानन्द स्वरूप है। यहाँ ब्रह्म में सविशेष और निर्विशेष द्वैविध्य व्याप्त नहीं है। एक ही ब्रह्म 'अस्ति' वाची शब्द द्वारा सगुण रूप में निरूपित है और 'नास्ति' वाची शब्द द्वारा निर्गुण रूप में निरूपित है। व्यावहारिक अवस्था में ब्रह्म जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय का कर्ता है। ब्रह्म सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान है। संविशेष ब्रह्म नाम, रूप के द्वारा व्याकृत तथा उपाधि विशिष्ट होता है। यह स्वरूप ही ईश्वर बहुत इष्ट होता है। नाम, रूप आदि से अव्याकृत निरूपाधिक निर्विशेष ब्रह्म होता है। यही परमात्मा कहलाता है। यही यथार्थ स्वरूप ब्रह्म का निर्विकल्पक निराकार रूप सत् है।

यहाँ ब्रह्म के दो स्वरूप स्वीकार किये जाते हैं। वल्लभमतानुसार ब्रह्म सर्वशक्तिमान, सर्वस्वतन्त्र तथा सर्वव्यापक गुणरहित सर्वज्ञ है। ऐश्वर्य आदि षड् गुणों से युक्त होने पर भी वह सजातीय, विजातीय स्वगत भेदों से शून्य होता है। वहीं प्रकृति के रूप में भोग्य होता है, पुरूष के रूप में भोक्ता होता हैं तथा दोनों का नियामक ईश्वर भी है। ब्रह्म के अनन्त रूपों के सत्व होने पर भी वह कूटस्थ सर्वविरूद्ध धर्मो का आश्रयभूत तर्क के द्वारा अगम्य होता है।

यहाँ भी ब्रह्म जगत् का अभिन्न, निमित्त उपादान कारणत्व स्वीकृत है। यथा मृत्पिण्ड को जानकर सभी मुद्राओं का भी ज्ञान सम्भव हो जाता है, वैसे ब्रह्म का ज्ञान होने पर उससे उत्पन्न जीवों और जगत् का ज्ञान सम्भव होता है। जैसे मृदा भी सत्य है और उसका विकार घट भी सत्य है, उसी प्रकार ब्रह्म सत्य है और उससे उत्पन्न जगत् जीव भी सत्य है। इस प्रकार ब्रह्म का निर्गुणत्व तथा अनन्त गुणत्व जो एक में विरोधी नहीं है वह प्रतिपादित होता है। वल्लभ के मत में यथा सर्प कभी कुण्डली रूप में रहता है और कभी रज्जु के समान लम्बा रहता है। उसी प्रकार ब्रह्म के भी दो रूप होते है। निर्गुण ब्रह्म भी भक्तों की कामना के अनुसार अनेक रूप धारण करते हैं।

जीव का स्वरूप

भगवान् ही रमण की इच्छा से आत्मा के आनन्दांश के तिरोधान के लिए केवल सत्-रूप चिदंश के द्वारा आत्मा को बहुत प्रकार से प्रकट करते हैं। उसकी इच्छा से अनेक प्रजाएँ उत्पन्न होती है, यह श्रुति वाक्य ही इस प्रकार के मत के पोषक हैं। ईश्वर का ही यह नूतन रूप जीव कहलाता है। अतः जीव की उत्पत्ति नहीं होती है, देहधारणवश उत्पन्न होता है, मरता है इत्यादि व्यवहार सम्भव है। शुद्धाद्वैत में जीव अणुपरिमाण होता है। यहाँ जीव के तीन भेद होते हैं। वे हैं- शुद्ध जीव, संसारी जीव और मुक्त जीव।

1. शुद्ध जीव - जैसे अग्नि से स्फुलिङ्ग उत्पन्न होते हैं वैसे ही कारण स्वरूप अक्षर से जीव व्युत्पन्न होता है। अविद्या से सम्पर्क से पूर्व अतिरोहितानन्द, ऐश्वर्यादि षड् गुणों से युक्त जीव शुद्ध जीव कहलाता है।

2. संसारी जीव - तिरोहित आनन्दांश में माया के संसर्ग से ऐश्वर्य आदि के लोप होने पर जीव संसारी कहलाता है। अविद्या के सम्बन्ध के कारण उसका बन्ध उत्पन्न होता है। इसीलिए जन्म मरण के चक्र में आबद्ध होता है। यह जीव सभी प्रकार के सुख-दुःख का भोग करता है और उसके लिए स्थूल सूक्ष्म आदि नाना प्रकार के शरीरों को धारण करता है।

3. मुक्तजीव - संसारी जीव जब अनेक प्रकार के दुःखों के भोग के कारण आत्मा के उच्चतम काम युक्त भगवान् की शरण में आता है, तब भगवान के अनुग्रह से वह माया से मुक्त होकर मूल स्वरूप को प्राप्त करता है। यही जीव की मुक्त अवस्था है।

जगत् का स्वरूप

यहाँ जगत् सत्य स्वरूप होता है। जगत् साक्षात् ईश्वर का कार्य होता है, प्राकृत अथवा परमाणुजन्य और विवर्तरूप अथवा असत् रूप नहीं होता। नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः यह श्रीमद्भगवद्गीता के वचन से सत् रूप से परमात्मा का असत् रूप प्रपञ्चन का सम्भव और असम्भव होना वर्णित है। अतः इनके मत में प्रपञ्च भगवत्कार्य है, उसका रूप माया द्वारा हुआ।

यह जगत् अधिकारी के भेद से भिन्न रूप में आभासित होता है। जैसे उत्तम अधिकारियों का यह सभी प्रकार का जगत् ब्रह्मात्मक और शुद्ध होता है। शास्त्र के अभ्यास द्वारा संस्कृतमति वालों के मत में जगत् परमात्म धर्म से युक्त सत् सत्यभूत होता है। जगत् में जो मायाधर्मी होते हैं वे तो मिथ्याभूत है। अविवेकी मानते हैं कि जगत् ब्रह्म और माया के धर्म से उत्पन्न कोई सत् वस्तु है। हरित उपनेत्र से जैसे सब कुछ हरा दिखता है परन्तु उसका हरित वर्ण मिथ्या होता है उसी प्रकार मायाधर्मी, 'सभी मिथ्या है, ये स्वीकार नहीं करते हैं। यह तो अधिकारियों की भेद दृष्टि होती है, जगत् का वास्तविक स्वरूप इस प्रकार का नहीं है। जगत् नित्य, सत्य, ब्रह्मस्वरूप होता है।

प्रमाण विचार

शुद्धाद्वैत में तीन ही प्रमाण स्वीकार किये गए हैं। वे हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ।

श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यनुमानं चतुष्टयम्। 

प्रमाणेष्वनवस्थानाद् विकल्पात् स विरज्यते॥

ऐसा श्रीमद्भगवद् के वचनानुसार यद्यपि गोस्वामी पुरूषोत्तम द्वारा प्रस्थान रत्नाकार में इनका उल्लेख किया गया है परन्तु अधिक विद्वान इनका अर्न्तभाव शब्द प्रमाण में ही करते हैं। अतः तीन ही प्रमाण हैं।

मोक्ष का स्वरूप और उसके साधन

वैष्णव दर्शन में आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तप से ऐकान्तिक निवृत्ति ही मोक्ष अथवा निर्वाण है। माया से बद्ध जीव की मुक्ति नहीं होती है। मुक्त जीव की पाँच प्रकार के अध्यास, देहाध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास, अन्तःकरणाध्यास और स्वरूप-विस्मृति से निवृत्ति होती है। अध्यास से मुक्ति सत्य में जन्म-मरण से स्वतः निवृत्ति होती है। मुक्ति भी दो प्रकार की होती है - सात्विकों की सायुज्यमुक्ति होती है, निर्गुणों की ब्रह्मभावमुक्ति होती है। सायुज्यमुक्ति का नाम भगवल्लीलास्वाद है। जीव का श्रीकृष्ण के साथ दिव्य वृन्दावन में लीला तथा उनके साथ नित्य सम्बन्ध ही मोक्ष है। कुछ उत्तम अधिकारी जीव सत्संग आदि पुण्य से भक्तिमार्ग में कहे गए और अनुष्ठान द्वारा सालोक्यरूप, सायुज्यरूप, सामीप्यरूप और सारूप्यरूप मुक्ति को प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् अक्षर ब्रह्म में लीन होते हैं। यही ब्रह्मभावमुक्ति है और वह परमानन्द रूप है।

वल्लभाचार्य द्वारा उक्त क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति को आधार बनाकर बालकृष्णभट्ट द्वारा चार प्रकार की मुक्ति प्रतिपादित है। प्रथम ऐहिक मुक्ति है, यथा सनक आदि मुनियों की। द्वितीय पारलौकिकी उत्तम अधिकारियों की वृन्दावन आदि दिव्यलोक में स्थिति। तृतीय परममुक्ति शुद्धब्रह्मरूप से अवस्थान। चतुर्थ देवताओं की नित्यलीलाप्रवेशरूप मुक्ति।

शुद्धाद्वैत में मोक्षसाधनत्व के द्वारा पुष्टिमार्ग का विधान किया गया है। आचार्य आनन्दतीर्थ द्वारा जैसे अपने दर्शन में मादासाधनत्व के द्वारा भक्तिमार्ग का विधान किया गया है। वैसे ही वल्लभाचार्य के द्वारा पुष्टिमार्ग का आविष्कार विहित है। पुष्टिमार्ग के नामकरण का मुख्य आधार है श्रीमद्भागवदपुराण वहाँ द्वितीय स्कन्ध में पुष्टि शब्द की विशद आलोचना की गई है। पुष्टि का अर्थ पोषण है। भगवान् के अनुग्रह से ही जीव का पोषण होता है, यथा श्रीमद्भागवत में उक्त है - पोषणं तदनुग्रहः। भक्ति मार्ग का हो अन्य नाम पुष्टिमार्ग है। यद्यपि वल्लभाचार्य ने कर्म, ज्ञान, भक्ति इन तीनों को ही भगवत्प्राप्ति के उपाय द्वारा ग्रहण किया तथापि भक्तिमार्ग की ही उनके द्वारा उत्कर्षता स्वीकार की गई है।


प्राकृतिक आपदा से बचाव

Protection from natural disaster   Q. Which one of the following is appropriate for natural hazard mitigation? (A) International AI...