बौद्ध दर्शन परिचय एवं इतिहास
बौद्ध दर्शन (धर्म) भारत का अत्यन्त प्राचीन दर्शन है। इसकी गिनती भारतीय दर्शन के अवैदिक या नास्तिक दर्शन में होती है। इस धर्म का उदय ई. पू. छठी शताब्दी में हुआ। इस धर्म के प्रवर्तक गौतम बद्ध हैं। इनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था तथा ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् ये बुद्ध कहलाए। इनका जन्म 563 ई. पू. में लुम्बिनी में हुआ। इनके पिता शुद्धोधन उत्तर नेपाल स्थित ‘कपिलवस्तु' के राजा थे।
बुद्ध ने संसार में व्याप्त दु:ख को देखकर सब कुछ त्यागने का फैसला लिया और 29 वर्ष की आयु में वन को गमन कर गए। उनका गृहत्याग 'महाभिनिष्क्रमण' के नाम से जाना जाता है। कठिन तपस्या करके उन्हें बोधगया में निरंजना नदी के तट पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके पश्चात् वे बुद्ध कहलाए। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश दिया, जिसे 'धर्मचक्र प्रवर्तन' कहा जाता है।
गौतमबुद्ध ने स्वयं 45 वर्ष की लम्बी आयु तक धर्म का प्रचार किया। इस धर्म को विदेशों में भी प्रचारित किया। बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् मौर्य सम्राट अशोक ने भी इस धर्म का प्रचार किया। अशोक के लगवाए गए स्तूप, स्तम्भ शिलालेख इस बात के प्रमाण हैं। अशोक ने धर्म के प्रचार हेतु अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को लंका भेजा। इसके अतिरिक्त उन्होंने सीरिया, मिस्र, मेसीडोनिया, साइरीन आदि स्थानों पर भी अपने दूत प्रचार हेतु भेजे। कालान्तर में बौद्ध धर्म के अनुयायियों में मतभेद होने के कारण इस धर्म के चार सम्प्रदाय बन गए-वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार एवं माध्यमिक।
बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों ने त्रिपिटक में संकलित किया है। ये त्रिपिटक-विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक हैं। विनयपिटक में आचरण सम्बन्धी, सुत्तपिटक में धर्म सम्बन्धी और अभिधम्मपिटक में दार्शनिक विचारों की चर्चा है। ये तीनों प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य माने जाते हैं।
बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्य
महात्मा बुद्ध जिनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था, ने 'बोधगया' में ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् 'सारनाथ' में अपना प्रथम उपदेश दिया, इसे ही 'धर्मचक्र प्रवर्तन' कहा जाता है। बुद्ध के सारे उपदेश चार आर्य सत्यों में ही सन्निहित हैं। ये चार आर्य सत्य इस प्रकार है-
● दुःख है
● दु:ख का कारण है
● दुःख का निरोध है
● निरोध के उपाय हैं
उपरोक्त चार आर्य सत्यों में से प्रथम दो आर्य सत्य 'संसार चक्र' के नियम हैं तथा बाकी के दो आर्य सत्य संसार चक्र से छूटने के नियम हैं। इन चारों आर्य सत्यों की विवेचना निम्नलिखित है-
प्रथम आर्य सत्य (दु:ख)
बुद्ध ने अपने प्रथम आर्य सत्य का उपदेश करते हुए कहा 'सर्व दुखं दुखम्' अर्थात् समस्त संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख है। विश्व की जो अनुभूतियाँ हमें सुखप्रद लगती हैं, वे भी दुःखात्मक हैं, क्योंकि सुखात्मक अनुभूति को प्राप्त करने के लिए हमें कष्ट उठाना पड़ता है। अतः जिसे साधारणत: हम सुख समझते हैं, वह भी दुःख ही है। सुख और दुःख में वस्तुत: कोई अन्तर नहीं है। क्षणिक सुख को सुख कहना महान् मूर्खता है। चूँकि बुद्ध ने संसार के दुःखों पर अत्यधिक बल दिया है, इसलिए कुछ विद्वानों ने बौद्ध दर्शन को निराशावादी कहा है, किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योकि बुद्ध संसार की दुःखमय स्थिति को देखकर मौन नहीं रहे, बल्कि उन्होंने दुःखों का कारण जानने का प्रयास किया। दुःख निरोध का आश्वासन दिया तथा दुःख का अन्त करने के लिए एक मार्ग का निर्देश भी किया है। अत: निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि बौद्ध दर्शन का आरम्भ निराशावाद से होता है, परन्तु उसका अन्त आशावाद में होता है। अत: कुछ विद्वानों द्वारा बौद्ध दर्शन को निराशावादी कहना भ्रान्तिमूलक है।
द्वितीय आर्य सत्य (दु:ख का कारण है)
बुद्ध ने अपने द्वितीय आर्य सत्य के अन्तर्गत दु:ख के कारण का विश्लेषण एक सिद्धान्त के सहारे किया है। इस सिद्धान्त को संस्कृत में 'प्रतीत्यसमुत्पाद' तथा पालि भाषा में ‘पटिच्यसमुत्पाद' कहा जाता है। प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध दर्शन का कारण-कार्य सम्बन्धी सिद्धान्त है। प्रतीत्यसमुत्पाद दो शब्दों से मिलकर बना है- प्रतीत्य तथा समुत्पाद। प्रतीत्य का अर्थ है 'कारण' तथा समुत्पाद का अर्थ है 'जो उत्पन्न होता है। इस नियम को 'सापेक्ष कारणतावाद' भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी मान्यता है कि कार्य की उत्पत्ति कारण पर ही आश्रित होकर होती है। प्रत्येक कार्य को अपनी उत्पत्ति के लिए एक या अधिक कारणों की अपेक्षा रहती है। अत: प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त मध्यम मार्ग का परिचायक है, क्योंकि यह सत्कार्यवाद तथा असत्कार्यवाद के बीच का मार्ग है पुनः यह मध्यम मार्ग का परिचायक है, क्योंकि यह शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद के बीच का मार्ग है। शाश्वतवाद जहाँ वस्तु की नित्यता की बात करता है, वहीं उच्छेदवाद वस्तुओं के पूर्ण विनाश की बात करता है, जबकि प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त संसार की प्रत्येक वस्तु को निरन्तर परिवर्तनशील मानता है। इसकी मान्यता है कि एक वस्तु नष्ट होते-होते अन्त में परिवर्तित हो जाती है।
प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के अन्तर्गत बुद्ध ने दःख और उसके ग्यारह कारणों की विवेचना की है। दुःख और ग्यारह कारणों को ही 'द्वादशनिदान' या संसार चक्र की संज्ञा दी जाती है। बुद्ध ने ग्यारह कारणों में से अविद्या को मूल कारण बताया है, किन्तु अविद्या का कोई कारण नहीं बताया है।
दुःख के कारण
दुःख के ग्यारह कारण निम्नलिखित है
● दुःख है
● दुःख का कारण है जन्म
● जन्म का कारण है भव (जन्म लेने की इच्छा)
● भव का कारण है उपादान (भोग्य वस्तुओं के प्रति लगाव)
● उपादान का कारण है तृष्णा (भोग वस्तुओं के उपभोग की इच्छा)
● तृष्णा का कारण है वेदना (भोग से जो सुखानुभूति होती है)
● वेदना का कारण है स्पर्श (जो भोग्य है उससे सन्निकर्ष)
● स्पर्श का कारण है षडायतन (पाँच इन्द्रियाँ तथा मन)
● षडायतन का कारण है नामरूप (गर्भस्थ शिशु)
● नामरूप का कारण है चेतना (संस्कारों का निरन्तर प्रवाह)
● चेतना का कारण है संस्कार (स्वार्थमूलक कर्मों से जो तत्त्व उत्पन्न होता है)
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त तीनों कालों- भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जोड़कर कर्मवाद की स्थापना करता है। इसके अनुसार वर्तमान जीवन अतीत जीवन के कर्मों का फल है तथा भविष्य का जीवन वर्तमान जीवन के कर्मों का फल है। हमारे द्वारा अविद्या के कारण जो स्वार्थमूलक कर्म किए जाते हैं, उन्हीं के फल हमारे भीतर संस्कारों के रूप में संचित हो जाते हैं। नि:स्वार्थ कर्मों का कोई फल नहीं होता, अत: संस्कार निर्मित नहीं होते हैं। इन संचित कर्मों का फल भोग करने के लिए ही पुनर्जन्म होता है। अत: उपरोक्त उल्लिखित संसार चक्र में से जन्म का सम्बन्ध भविष्य से, अविद्या तथा संस्कार का सम्बन्ध भूत से तथा शेष के कारणों का सम्बन्ध वर्तमान से है।
तृतीय आर्य सत्य (दुःख का निरोध है)
तृतीय आर्य सत्य दुःख का निरोध ही निर्वाण है। अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति (चार्वाक दर्शन को छोड़कर) बौद्ध दर्शन में भी निर्वाण को जीवन के परम आध्यात्मिक लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है। तृतीय आर्य सत्य में निर्वाण की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् समस्त दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है तथा व्यक्ति संसार चक्र से मुक्त हो जाता है। यहाँ जीवित रहते निर्वाण प्राप्ति को सम्भव माना गया है।
जीवित रहते निर्वाण प्राप्त कर लेने के बाद भी तब तक मृत्यु नहीं होती, जब तक संचित कर्मों का फल भोग नहीं कर लिया जाता। जैसे ही कर्मफल समाप्त होते हैं, मृत्यु हो जाती है, पुनर्जन्म नहीं होता है। बौद्ध दर्शन का यह विचार सांख्य और अद्वैत वेदान्त के जीवन मुक्त से साम्यता दर्शाता है।
निर्वाण के स्वरूप तथा प्रकार को लेकर बौद्ध दर्शन में मतभेद हैं। कारण यह है कि जब भी बुद्ध से निर्वाण के बारे में पूछा गया वे मौन हो गए, फलत: उनके अनुयायियों तथा विद्वानों ने अपने-अपने अनुसार इसकी व्याख्या की है। हीनयान सम्प्रदाय तथा कुछ अन्य विचारक निर्वाण की प्रकृति को निषेधात्मक मानते हैं, क्योंकि इनके अनुसार निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है-बुझ जाना। जिस प्रकार दीपक के बुझ जाने पर प्रकाश समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् मानव अस्तित्व का पूर्ण विनाश (मृत्यु) हो जाता है। अत: यहाँ परिनिर्वाण अर्थात् मृत्यु के पश्चात् निर्वाण को ही सम्भव माना गया है।
विचारकों के अनुसार मानव अस्तित्व के पूर्ण विनाश अर्थात् मृत्यु को जीवन का परम आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं माना जा सकता, इसलिए कुछ अन्य विद्वान् निर्वाण का अर्थ-पुनर्जन्मपथ नहीं करते हुए इसे जीवित रहते ही सम्भव मानते हैं तथा बताते हैं कि निर्वाण की प्रकृति निषेधात्मक के साथ-साथ भावात्मक भी है, क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद हमारे समस्त दु:खों का अन्त हो जाता है, संसार चक्र की समाप्ति हो जाती है साथ ही व्यक्ति को परम शान्ति तथा आनन्द का अनुभव होता है।
जीवित रहते निर्वाण प्राप्त कर लेने के पश्चात् वह नि:स्वार्थ भाव से कर्म करता है, साथ ही पूर्वजन्म के कर्मों का नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते हुए फल भोग करता है फलतः कर्म फल संचित नहीं होते जिससे वह बन्धन में नहीं पड़ता। जीवित रहते निर्वाण प्राप्त कर लेने के पश्चात् वह अन्य व्यक्तियों को निर्वाण उपलब्ध कराने के लिए तब तक प्रयासरत रहता है, जब तक कि मृत्यु नहीं हो जाती है।उल्लेखनीय है कि महात्मा बुद्ध के उपदेशों, धम्मपद तथा अंगुत्तर निकाय आदि में मोक्ष को समस्त दुःखों से रहित परम शान्ति तथा आनन्द की अवस्था माना गया है। बुद्ध ने स्वयं जीवित रहते निर्वाण को प्राप्त किया था तथा समाज कल्याण करने के लिए तथा दूसरों को निर्वाण के लिए प्रयास करने का उपदेश दिया था।
बुद्ध की मान्यता थी कि हमें अपने स्वयं के प्रयासों से ही निर्वाण उपलब्ध हो सकता है। अत: उनका कथन था कि आत्म दीपो भव अर्थात् अपना प्रकाश स्वयं बनें। हीनयान सम्प्रदाय ने बुद्ध के इन विचारों को स्वीकार करते हुए केवल स्वयं के लिए निर्वाण प्राप्ति की ओर ध्यान दिया तथा साथ-साथ अन्य को भी निर्वाण प्राप्त कराने के लिए प्रयास किया। इस दृष्टि से महायान सम्प्रदाय का आदर्श हीनयान सम्प्रदाय की अपेक्षा उच्च है।
चतुर्थ आर्य सत्य (दु:ख निरोध उपाय)
बुद्ध ने अपने चतुर्थ आर्य सत्य के अन्तर्गत दु:ख निरोध उपाय या निर्वाण प्राप्ति उपाय के सन्दर्भ में आष्टांगिक मार्ग का उल्लेख किया है। ये वस्तुतः आठ नियम हैं जिनके अनुसार निष्ठापूर्वक आचरण करने पर अविद्या निवृत्ति हो जाती है, फलतः समस्त दु:खों का अन्त तथा संसार चक्र से मुक्ति मिल जाती है अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता।
बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग
बौद्ध दार्शनिकों की मान्यता है कि मनुष्य को निर्वाण तभी प्राप्त हो सकता है, जब आष्टांगिक मार्ग के अनुरूप निष्ठापूर्वक आचरण करे। ऐसा करने पर अविद्या का अन्त तथा प्रज्ञा का उदय होता है तथा मनुष्य को समस्त दुःखों से पूर्णतया छुटकारा मिल जाता है और वह संसार चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित हैं-
सम्यक् दृष्टि (सम्मादिट्ठि)
अविद्या के कारण आत्मा संसार के सम्बन्ध में मिथ्या दृष्टि की उत्पत्ति करती है। अविद्या ही हमारे दु:खों का मूल कारण है। अविद्या से ही मिथ्या दृष्टि उत्पन्न होती है और हम अनित्य दुःखद और अनात्म को नित्य सुखकर और आत्मरूप समझ बैठते हैं। इस दृष्टि को छोड़कर यथार्थ स्वरूप पर ध्यान लगाना चाहिए।
सम्यक् संकल्प
आर्य सत्यों के ज्ञानमात्र से कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक उनके अनुसार जीवन बिताने का संकल्प या दृढ़ इच्छा नहीं हो जाए। जो निर्वाण चाहते हैं उन्हें सांसारिक विषयों की आसक्ति, दूसरों के प्रति द्वेष और हिंसा तीनों का त्याग करना चाहिए। इन्हीं का नाम सम्यक् संकल्प है।
सम्यक् वाक् (सम्मावाच)
सम्यक् संकल्प केवल मानसिक नहीं होना चाहिए, बल्कि कार्य रूप में परिणत भी होना चाहिए। सम्यक् संकल्प के द्वारा सर्वप्रथम हमारे वचन का नियन्त्रण होना चाहिए अर्थात् हमें निन्दा, मिथ्या वचन, अप्रिय वचन तथा वाचालता से बचना चाहिए।
सम्यक् कर्मांत (सम्माकम्मांत)
सम्यक् संकल्प को केवल वचन में ही नहीं, बल्कि कर्म में भी परिणत करना चाहिए। अहिंसा अस्तेय, अपरिग्रह, इन्द्रिय संयम ही सम्यक् कर्मांत है।
सम्यक् आजीव (सम्मा-आजीव)
बुरे वचन तथा कर्म को त्यागकर मनुष्य को शुद्ध उपाय से जीविकोपार्जन करना चाहिए तथा जीविका के लिए उचित मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
सम्यक् व्यायाम
सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव के अनुसार चलने पर भी यह सम्भव है कि हम पुराने दृढमूल कुसंस्कारों के कारण उचित मार्ग से भटक न जाएँ और हमारे मन में नए-नए बुरे भावों की उत्पत्ति हो। अत: इस बात का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए, बुरे भावों का पूरी तरह नाश हो जाए और नए बुरे भाव भी मन में न आए। मन को बराबर अच्छे-अच्छे विचारों से भरा रखना चाहिए। शुभ विचारों को मन में धारण करने की चेष्टा करते रहना चाहिए।
सम्यक् स्मृति (सम्मासत्ति)
इस मार्ग पर चलने के लिए सतर्क रहने की आवश्यकता है। जिन विषयों का ज्ञान प्राप्त हो चुका हो, उन्हें बराबर स्मरण करते रहना चाहिए। किसी भी वस्तु से अनुराग नहीं रखना चाहिए। पूर्णत: अनासक्त भाव रखना चाहिए। इस सम्यक् स्मृति के कारण मनुष्य सभी विषयों से विरक्त हो जाता है। वह सांसारिक बन्धनों में नहीं पड़ता।
सम्यक् समाधि (सम्मासमाधि)
उपरोक्त सभी नियमों का पालन कर जो बुरी चित्तवृत्तियों को दूर कर लेता है, वह सम्यक् समाधि के योग्य हो जाता है। तत्पश्चात् वह चार अवस्थाओं को पार कर निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। निर्वाण की प्राप्ति ही पूर्ण प्रज्ञा की अवस्था है। ज्ञान की पूर्णता के लिए सदाचार की आवश्यकता होती है, साथ ही ध्यान भी आवश्यक है।
बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त
प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त है जो कारण-कार्य सम्बन्धी उनके मत को व्यक्त करता है। इसमें दुःख, दुःख के कारण की खोज एवं उसके निदान की बात सन्निहित है। प्रतीत्यसमुत्पाद दो शब्दों प्रतीत्य तथा समुत्पाद से मिलकर बना है। यहाँ प्रतीत्य से आशय 'कारण' से है तथा समुत्पाद से आशय है 'जो उत्पन्न होता है। इस नियम की मान्यतानुसार कार्य की उत्पत्ति कारण पर ही आश्रित होकर हो सकती है। इस मत के कारण ही प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त को ‘सापेक्ष कारणतावाद' भी कहा जाता है।
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त
बौद्ध दर्शन के प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त को निम्न प्रकार समझा जा सकता है-
● कारण होने पर कार्य उत्पन्न होता है।
● कारण नहीं होने पर भी कार्य उत्पन्न होता है।
● कार्य है तो कारण है।
● कार्य नहीं है तो कारण भी नहीं है।
इस सिद्धान्त के अनुसार कारण से कार्य की उत्पत्ति के लिए कारण के साथ कुछ अनुकूल एवं बाह्य सहयोगी घटकों का होना आवश्यक है। यदि एक बार इन बाह्य घटकों के साथ कारण-कार्य श्रृंखला प्रारम्भ हो गई, तो यह तब तक चलती रहती है जब तक कि एक या अधिक बाह्य घटकों को वापस न ले लिया जाए। उदाहरणार्थ-दीपक की 'लौ' प्रक्रिया तब तक नहीं बनती, जब तक कि तेल, बत्ती तथा पात्र आदि बाह्य घटक न हों।
यदि एक बार इन घटकों के साथ लौ प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई, तो यह तब तक चलती रहती है जब तक कि उनमें से एक या अधिक सहयोगी बाह्य घटकों को वापस न ले लिया जाए। अत: स्पष्ट है कि यदि कोई पदार्थ उत्पन्न हुआ है, तो उसकी उत्पत्ति में एक या अनेक बाह्य सहयोगी घटक (कारण) होते हैं। इन सहयोगी घटकों के बिना कोई पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकता।
बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि बुद्ध ने स्वयं इस सिद्धान्त को धर्म कहा है। प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त मध्यम मार्ग का परिचायक है। यह शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद के बीच का मार्ग है। शाश्वतवाद जहाँ नित्यता की बात करता है, वहीं उच्छेदवाद वस्तुओं को पूर्ण विनाशी मानता है। जबकि प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त की मान्यता है कि वस्तुएँ न तो नित्य हैं और न ही पूर्ण विनाशी, बल्कि परिवर्तनशील हैं। पुन: यह मध्यममार्ग का परिचायक है, क्योंकि यह सत्कार्यवादियों की भाँति न तो कार्य को अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान मानता है और न ही असत्कार्यवादियों की भाँति कार्य को कारण से पृथक् एवं भिन्न मानकर उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करता है, बल्कि इसकी मान्यता है कि कार्य को अपनी उत्पत्ति के लिए कारण की अपेक्षा होती है, अत: यह सापेक्ष कारणतावादी है।
बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के अन्तर्गत दुःख की व्याख्या की है। द:ख का कारण बताया है तथा दु:ख के कारण का कारण बताया है और इसी क्रम में उत्तरोत्तर ग्यारह कारणों का उल्लेख किया है। दु:ख और उसके ग्यारह कारणों को मिलाकर ही द्वादशनिदान या संसार चक्र या भव चक्र की संज्ञा दी जाती है।
महात्मा बुद्ध ने अविद्या का कोई कारण नहीं बताया है। अविद्या ही दु:खों का मूल कारण है। अविद्या से संस्कार पैदा होते हैं। पूर्वजीवन में अविद्या से उत्पन्न संस्कारों से मिलकर मृत्यु के समय एक 'अन्तिम संस्कार' का निर्माण हो जाता है। यह 'अन्तिम संस्कार' ही अगले जन्म में पहला संस्कार बन जाता है। इस प्रथम संस्कार से चेतना उत्पन्न होती है।
इस चेतना से ही एक नए नामरूप यानि चैतन्य विशिष्ट देह का आविर्भाव होता है। नामरूप से पाँच ज्ञानेन्द्रियों और मन की उत्पत्ति होती है अर्थात् षडायतन उत्पन्न होता है। षडायतन से दृश्य वस्तुओं और उनके धर्मों से सन्निकर्ष (स्पर्श) होता है। इन्द्रिय सन्निकर्ष से वेदना यानि अनुभूति उत्पन्न होती है। अनुभूति से तृष्णा और तृष्णा से वस्तुओं का उपादान या वस्तुओं से लगाव होता है।
उपादान से भव या जन्म लेने की इच्छा उत्पन्न होती है तथा भव से पुनर्जन्म हो जाता है। इस प्रकार के विचारों को प्रस्तुत करके बुद्ध ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि नित्य आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। पुनर्जन्म के लिए नित्य आत्मा जैसी किसी चीज को मानने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जन्म का मूल कारण अविद्या है।
जब तक अविद्या रहेगी, संसार चक्र चलता रहेगा। यदि संसार चक्र से मुक्त होना है, निर्वाण प्राप्त करना है तो अविद्या का नाश करना होगा। यह तभी सम्भव हो सकता है, जब आष्टांगिक मार्गों-सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक स्मति तथा सम्यक् समाधि का पालन किया जाए। इन आष्टांगिक मार्गों का ठीक प्रकार से अनुपालन करने पर अविद्या नष्ट हो जाती है फलत: संसार चक्र समाप्त हो जाता है।
बौद्धों का प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त तीनों कालों- भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जोड़कर कर्म नियम की व्याख्या करता है। प्रतीत्यसमुत्पाद के अन्तर्गत वर्णित संसार चक्र में अविद्या तथा संस्कार भूतकाल से सम्बन्धित हैं। जन्म का सम्बन्ध भविष्यकाल से है तथा बाकी के कारणों का सम्बन्ध वर्तमान काल से है।
प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त की आलोचना
किन्तु बुद्ध द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त की कई आधारों पर आलोचना होती है, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-
● प्रतीत्यसमुत्पाद की मान्यता है कि बिना कारण के कुछ भी अस्तित्व में नहीं आता, यदि ऐसा है तो अविद्या का कारण क्या है?
● प्रतीत्यसमुत्पाद उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म चक्र की नकल है।
● प्रतीत्यसमुत्पाद को मानने पर क्षणिकवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, फलतः कर्म नियम का खण्डन होता है, क्योंकि जो कर्म करता है उसे उसका फल मिलता है। जैसे—जो व्यक्ति निर्वाण के लिए प्रयास करता है, उसे निर्वाण न मिलकर किसी और को निर्वाण की प्राप्ति होती है।
किन्तु उपरोक्त कमियों के बाद भी बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त का महत्त्व कम नहीं हो जाता, क्योंकि यह बौद्ध दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त है जिस पर समस्त परिवर्ती सिद्धान्त निर्भर हैं। इसमें कर्म नियम की व्याख्या भी की गई है, जिससे संसार में व्यवस्था का निर्माण होता है। प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त का महत्त्व बुद्ध की इस उक्ति से भी स्पष्ट होता है कि जो प्रतीत्यसमुत्पाद को जानता है, वह धर्म को जानता है और जो धर्म को जानता है, वह प्रतीत्यसमुत्पाद को जानता है।
बौद्ध दर्शन का क्षणिकवाद सिद्धान्त
क्षणिकवाद (क्षणभंगवाद)
क्षणिकवाद उत्तरकालीन बौद्ध दार्शनिकों का विचार है। वे कहते हैं कि क्षणिकवाद का विचार बुद्ध के दर्शन पर आधारित है, लेकिन यह सत्य नहीं है, क्योंकि बुद्ध ने यह कभी नहीं कहा कि वस्तुएँ क्षणिक हैं, बल्कि बुद्ध ने कहा था कि वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं।
क्षणिकवादी कहते हैं कि एक क्षण से अधिक कोई वस्तु नहीं रहती है। सभी पदार्थ, सभी घटनाएँ तथा सभी अनुभूतियाँ एक क्षण के लिए होती हैं। इसके मूल में महात्मा बुद्ध द्वारा प्रस्तुत ‘अर्थक्रियाकार्यत्व' का विचार है जिसका उल्लेख उन्होंने अपने प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त के अन्तर्गत किया था तथा कहा था कि सत् वह है जिसमें कार्य उत्पन्न करने की क्षमता होती है।
क्षणिकवादी कहते हैं कि यदि वस्तु सत् है, तो फिर उसमें कार्य उत्पन्न करने की शक्ति भी होगी और तब वह हर क्षण कार्य उत्पन्न करेगी। यह कार्य अगले ही क्षण कारण में परिवर्तित होकर पुन: किसी कार्य को उत्पन्न कर देगा और निरन्तर यही क्रम चलता रहेगा। इसीलिए क्षणिकवादी कहते हैं कि 'वस्तु की उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश तीनों एक ही क्षण में हो जाता है, अत: वस्तुएँ क्षणभंगुर हैं। '
क्षणिकवाद के मूल उद्घोष
क्षणिकवाद के दो मूल उद्घोष हैं—इदम् सर्वक्षणिकम् तथा इदम् सर्वअनात्म्। इदम् सर्वक्षणिकम् का शाब्दिक अर्थ है कि यह समस्त जगत् क्षणिक है। जगत् में सब कुछ अनित्य है, केवल क्षणिकवाद ही नित्य है। इदम् सर्वअनात्म् का शाब्दिक अर्थ है कि आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि मानव पाँच स्कन्धों-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा चेतना का योग मात्र है जो कि सतत् परिवर्तनशील हैं।
उपरोक्त दोनों उद्घोषों के आधार पर ही क्षणिकवादी कहते हैं कि केवल चेतना का प्रवाह ही एकमात्र सत् है। हीनयानियों ने क्षणिकवाद को निम्न दो उपमाओं के द्वारा समझाने का प्रयास किया है-
- दीपशिखा के माध्यम से
- नदी के प्रवाह के माध्यम से
जिस प्रकार दीपशिखा एक व नित्य नहीं, बल्कि अनेक व अनित्य है, क्योंकि यह छोटी-छोटी चिंगारियों का प्रवाह मात्र है। इन चिंगारियों की निरन्तरता तथा समानता के कारण हम दीपशिखा को एक तथा नित्य मान लेते हैं। उसी प्रकार हम जगत् की वस्तुओं के सन्दर्भ में एकता तथा नित्यता का आरोपण कर देते हैं, जबकि वास्तव में वे अनित्य हैं। इसी प्रकार नदी भी एक तथा नित्य नहीं, क्योंकि यह अनेक छोटी-छोटी धाराओं का प्रवाह मात्र होने के कारण प्रतिक्षण परिवर्तनशील अर्थात् अनेक व अनित्य है, इसीलिए कोई भी व्यक्ति एक नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकता।
क्षणिकवाद की आलोचना
उत्तरकालीन बौद्ध दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत क्षणिकवाद की निम्न आधारों पर आलोचना होती है
● यदि हर वस्तु क्षणिक है, तो उनसे होने वाले अनुभव भी क्षणिक हैं और यदि ऐसा है तो अतीत में जो अनुभव हमें हो चुके हैं उनकी अनुभूति हमें कैसे होती रहती है। इसी प्रकार यदि वस्तुएँ क्षणिक हैं, तो हम किसी वस्तु को देखकर यह कैसे पहचान लेते हैं कि यह तो वही वस्तु है।
● यदि सब कुछ क्षणिक है, तो बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद (कारण-कार्य सिद्धान्त) की व्याख्या कैसे हो पाएगी, क्योंकि क्षणिकवादी कहते हैं कि जिस क्षण कार्य होता है उस क्षण कारण रहता ही नहीं और तब कैसे कहेंगे कि कारण से कार्य उत्पन्न हुआ है।
● क्षणिकवाद को मानने पर कर्म-नियम का सिद्धान्त असंगत हो जाता है, क्योंकि कर्म कोई करता है तथा फल किसी अन्य को मिलता है।
● यदि आत्मा परिवर्तनशील है, तो स्मृति को भी परिवर्तनशील मानना होगा और यदि ऐसा है तो हमें स्मरण कैसे होता है। स्मरण तभी माना जा सकता है, जब स्मरणकर्ता क्षणिक न होकर कुछ समय तक स्थायी हो। इसके साथ-ही-साथ पहचानी जाने वाली वस्तु में भी स्थिरता आवश्यक है।
● क्षणिकवाद के सिद्धान्त को मान लेने पर निर्वाण का विचार भी खण्डित हो जाता है। जब व्यक्ति क्षणिक है, तब दुःख से छुटकारा पाने का प्रयास करना निरर्थक है, क्योंकि दुःख से छुटकारा दूसरे ही व्यक्ति को मिलेगा।
● इसी प्रकार नदी भी एक तथा नित्य नहीं, क्योंकि यह अनेक छोटी-छोटी धाराओं का प्रवाह मात्र होने के कारण प्रतिक्षण परिवर्तनशील अर्थात् अनेक व अनित्य है, इसलिए कोई भी व्यक्ति नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकता।
बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद (नैरात्मवाद)
चार्वाक को छोड़कर अन्य भारतीय दर्शनों में आत्मा को नित्य, शाश्वत, अमर तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद का सिद्धान्त आत्मा सम्बन्धी परम्परागत मतों से भिन्नता एवं विपरीतता को दर्शाता है अनात्मवाद बौद्ध दर्शन के केन्द्रीय सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद की ही तार्किक परिणति है।
अनात्मवाद के अनुसार आत्मा नित्य, शाश्वत, अमर नहीं है, बल्कि वह भी सांसारिक वस्तुओं की भाँति निरन्तर परिवर्तनशील है। यदि अनात्मवाद को संकीर्ण अर्थ में लिया जाए तो इसका आशय है ‘आत्मा के अस्तित्व का खण्डन' या उसकी 'अस्तित्वहीनता'। ऐसी स्थिति में यह सिद्धान्त उच्छेदवाद के समतुल्य होगा। ऐसा मानने पर मध्यम प्रतिपदा के उनके सिद्धान्त का खण्डन होगा। अत: अनात्मवाद का यह अर्थ स्वीकार्य नहीं है।
अनात्मवाद का आशय यह नहीं है कि ‘आत्मा नहीं है'। अनात्मवाद का आशय है कि 'वैसी आत्मा नहीं है' जिसका उल्लेख उपनिषद् दर्शन में मिलता है। उल्लेखनीय है कि उपनिषद् दर्शन में आत्मा को नित्य, अजर, अमर, अविनाशी तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। बुद्ध के अनुसार, नित्य आत्मा में विश्वास करना उसी प्रकार हास्यास्पद है, जिस प्रकार कल्पित सुन्दर रमणी के प्रति आसक्ति रखना हास्यास्पद है।
बौद्ध धर्म उपदेशक नागसेन मिलिन्द प्रश्न में आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार धुरी, चक्के, लगाम, घोड़े आदि के संघात को रथ कहा जाता है, उसी प्रकार पाँच स्कन्धों-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और चेतना का संघात ही आत्मा है। ये पाँचों स्कन्ध अनित्य हैं। अत: आत्मा भी अनित्य है अर्थात् स्कन्धों के निरन्तर परिवर्तनशील होने के कारण आत्मा भी निरन्तर परिवर्तनशील है।
बौद्ध के अनात्मवाद के समर्थन में तर्क
बौद्ध के अनात्मवाद के समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं-
● शरीर का संचालन आत्मा के द्वारा होता है। यदि आत्मा को स्थायी माना जाए तो शरीर के संचालन की समस्या उत्पन्न हो जाएगी। अत: आत्मा को परिवर्तनशील मानना अनिवार्य है। इस तर्क को स्वीकार करने में समस्या है, क्योंकि संचालन, संचालनकर्ता के संकल्प पर आधारित होता है।
● अब यदि संचालनकर्ता स्थिर नहीं है, तो उसके संकल्प में भी परिवर्तन होता रहेगा, फलत: क्रियाएँ भी बदल जाएँगी। सफल संचालन के लिए संचालनकर्ता के संकल्प को स्थिर मानना आवश्यक है। यह तभी सम्भव हो सकता है, जब संचालनकर्ता स्वयं स्थिर हो।
● यदि आत्मा नित्य, शाश्वत, अमर एवं अपरिवर्तनशील है, तो ऐसी स्थिति में वह कर्मों का सम्पादन नहीं कर सकती। अत: वह किसी फल के लिए भी उत्तरदायी नहीं है। अत: उसे परिवर्तनशील माने बिना कर्म नियम की संगत व्याख्या नहीं हो सकती। किन्तु इस तर्क को लेकर समस्या यह है कि यदि आत्मा निरन्तर परिवतर्नशील है, तो ऐसी स्थिति में कर्म नियम की संगत व्याख्या नहीं की जा सकती, क्योंकि तब कर्म कोई करेगा और फल किसी और को मिलेगा।
● बुद्ध ने स्वयं कहा है कि संचित कर्मों का फल भोग करने के लिए पुनर्जन्म होता है। बुद्ध की यह बात उनके अनात्मवाद के साथ संगत नहीं ठहरती, क्योंकि यदि कोई नित्य आत्मा नहीं है तो फल भोग कौन करता है। अत: कर्म नियम सिद्धान्त की संगत व्याख्या करने के लिए नित्य आत्मा को स्वीकार करना अनिवार्य है।
● यदि आत्मा नित्य है, तो वह न तो जन्म ले सकती है और न ही मर सकती है। नित्य आत्मा को मानने पर पुनर्जन्म की संगत व्याख्या नहीं की जा सकती है, किन्तु इस तर्क को लेकर समस्या यह है कि यदि आत्मा परिवर्तनशील है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि जिसका जन्म हुआ है, वह वही है। यह कैसे कहा जा सकता है कि जिसकी मृत्यु हुई है, वह वही है जिसने जन्म लिया था? यह तभी कहा जा सकता है, जब आत्मा को नित्य माना जाए।
● यदि आत्मा नित्य है तो उसकी दो स्थितियाँ हो सकती हैं-शुद्ध आत्मा तथा अशुद्ध आत्मा। अब यदि आत्मा शुद्ध है तथा अपरिवर्तनशील है, तो वह कभी बन्धन में नहीं पड़ सकती और यदि आत्मा अशुद्ध है अर्थात् बन्धन में है, तो अपरिवर्तनशील होने के कारण कभी शुद्ध नहीं हो सकती।
● अत: आत्मा को नित्य तथा शाश्वत मानने पर बन्धन और मोक्ष की तर्कसंगत व्याख्या नहीं हो सकती। किन्तु इस तर्क को लेकर समस्या यह है कि यदि आत्मा परिवर्तनशील है, तो ऐसी स्थिति में जो आत्मा मोक्ष के लिए प्रयास करेगी, उसे मोक्ष न मिलकर किसी और को मोक्ष मिलेगा, जो कर्म नियम के साथ संगत नहीं है। संगत यह है कि जो कर्म करे उसे ही उसका फल भी प्राप्त हो और सम्भव है जब एक नित्य आत्मा को स्वीकार किया जाए।
● एक विशेष सन्दर्भ में वर्तमान मनोविज्ञान भी आत्मा को परिवर्तनशील मानता है, उसके अनुसार व्यक्तित्व भौतिक एवं मानसिक घटकों का गत्यात्मक संगठन है। किन्तु इस तर्क को लेकर समस्या यह है कि यदि व्यक्तित्व भौतिक और मानसिक घटकों का एक गत्यात्मक संगठन है अर्थात् हम में सब कुछ परिवर्तनशील है तो हमें कैसे याद आता है कि वह तो वही व्यक्ति है? हमारी स्मृति का आधार क्या है? यदि सब कुछ परिवर्तनशील है, तो स्मृति को भी परिवर्तनशील मानना होगा।
● ऐसी स्थिति में हमारे भीतर विद्यमान ज्ञान को ज्ञान की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि ज्ञान वह है जिसमें स्थायित्व हो, साथ ही जो निरन्तर विकसित और परिमार्जित हो। अत: ज्ञान के स्थायित्व, विकास और परिमार्जन के लिए स्मृति को अपरिवर्तनशील मानना होगा। स्मृति अपने आप नहीं रह सकती। अत: इसके आश्रय के रूप में नित्य आत्मा को मानना अनिवार्य है, क्योंकि यदि आधार ही परिवर्तनशील है, तो स्मृति भी परिवर्तित हुए बिना नहीं रह सकती।
अत: उपरोक्त के आधार पर निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आत्मा की नित्यता तथा परिवर्तनशीलता दोनों के सम्बन्ध में प्रबल तर्क है। तर्कों के आधार पर न तो आत्मा की नित्यता को सिद्ध किया जा सकता है और न ही अनित्यता को। अत: श्रेयस्कर यही होगा कि इस विवाद में न पड़ते हुए मौन का अवलम्बन किया जाए।
प्रतीत्यसमुत्पाद की अनात्मवाद के पक्ष में युक्ति
बुद्ध के उपदेश के समय समाज में उपनिषद् दर्शन का प्रचलन था। जिसकी मान्यता थी कि मानव के भीतर एक महत्त्वूपर्ण तत्त्व आत्मा है। इस आत्मा का जन्म नहीं होता, बल्कि वह शरीर धारण करती है। यह आत्मा नित्य, अजर, अमर तथा अविनाशी है। उपनिषद् दर्शन का यह विचार बौद्ध दर्शन में अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि बुद्ध की मान्यता थी कि ब्रह्माण्ड में कोई ऐसा तत्त्व नहीं है जो नित्य या अपरिवर्तनशील हो, इसलिए मानव के भीतर नित्य आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है। मानव पाँच स्कन्धों का एक संघात है। ये पाँच स्कन्ध निम्नलिखित हैं-
● रूप शरीर का आकार एवं अन्य शारीरिक धर्म।
● वेदना सारे रूप मिलकर वेदना उत्पन्न करते हैं।
● संज्ञा ज्ञान प्राप्त करने का अनुभव।
● संस्कार अनुभव से जो तत्त्व उत्पन्न होता है।
● चेतना संस्कारों की समग्रता से चेतना का निर्माण होता है। यहाँ समग्रता से तात्पर्य समुच्चय से नहीं, बल्कि निरन्तर प्रवाह से है।
बुद्ध के अनुसार, उपरोक्त पाँचों स्कन्धों में से कोई ऐसा नहीं है जो नष्ट नहीं होता हो। आशय यह है कि सभी स्कन्ध नष्ट होते हैं, किन्तु पूर्णरूप से नहीं बल्कि एक तत्त्व नष्ट होते-होते अन्य में परिवर्तित हो जाता है। चूंकि मानव इन्हीं पाँच स्कन्धों का एक बड़ा संघात है, अत: मानव में कुछ भी ऐसा नहीं जो नित्य या अपरिवर्तनशील हो, इसे ही अनात्मवाद कहा जाता है।
बुद्ध के मतानुसार आत्मा अनित्य है, क्योंकि यह निरन्तर परिवर्तनशील उपरोक्त पाँच संघातों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार नदी में जल की बूंदें निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं, फिर भी उनमें एकमयता रहती है, वैसे ही आत्मा के विज्ञान (चेतना) के निरन्तर बदलते रहने पर भी उसमें एकमयता रहती है। ह्यूम के आत्मा सम्बन्धी विचार में बुद्ध के आत्मा सम्बन्धी विचारों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, क्योंकि ह्यूम ने भी आत्मा को 'संवेदना का समूह' कहा है जिसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।
बुद्ध द्वारा प्रस्तुत अनात्मवाद के समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं-
● यदि आत्मा को परिवर्तनशील न माना जाए, तो शरीर के संचालन की समस्या उत्पन्न हो जाएगी।
● कर्मों का सम्पादन करने के लिए आत्मा को परिवर्तनशील मानना अनिवार्य है।
● पुनर्जन्म की व्याख्या करने के लिए आत्मा को परिवर्तनशील मानना अनिवार्य है, क्योंकि स्थिर आत्मा न तो शरीर धारण कर सकती है और न ही त्याग सकती है।
● वर्तमान मनोविज्ञान के अनुसार आत्मा भौतिक तथा मानसिक घटकों; जैसे- बुद्धि, स्वभाव, शरीर के विभिन्न रसायनों, आनुवंशिक तत्त्वों एवं विभिन्न परिस्थिति से प्राप्त गतिशील तत्त्वों का संघटन मात्र है।
बौद्ध दर्शन के सम्प्रदाय
- वैभाषिक
- सौत्रान्तिक
- योगाचार (विज्ञानवाद)
- माध्यमिक (शून्यवाद)
महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म दो सम्प्रदायों में बँट गया- प्रथम हीनयान एवं द्वितीय महायान। हीनयान को थेरावाद भी कहते हैं। हीनयान में बौद्ध धर्म का प्राचीन रूप पाया जाता है। दोनों सम्प्रदायों के साथ भिन्न धाराएँ विकसित हुईं। इनमें हीनयान से सम्बद्ध वैभाषिक व सौत्रान्तिक तथा महायान से सम्बन्धित योगाचार व माध्यमिक हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है-
वैभाषिक
वैभाषिक का एक अन्य नाम 'सर्वास्तिवाद' है। वैभाषिक या सर्वास्तिवाद का मानना है कि जगत् की समस्त वस्तुओं की सत्ता है। वैभाषिक चित्त और बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। नव्य वस्तुवादियों की तरह इनका भी मानना है कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोड़कर किसी अन्य तरीके से नहीं हो सकता। वस्तुओं के बिना प्रत्यक्ष के अनुमान द्वारा अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। यदि किसी व्यक्ति को बाह्य वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं हुआ हो, तो उसे वस्तु के प्रतिरूप को ग्रहण करने में कठिनाई होगी। इस प्रकार वैभाषिक बाह्य प्रत्यक्षवादी भी है।
सौत्रान्तिक
इस सूत्र के मूल प्रतिष्ठापक कुमारलात थे। सूत्रान्तों को प्रमाण मानने के कारण ये सौत्रान्तिक कहलाए। सौत्रान्तिक चित्त व बाह्य जगत दोनों की सत्ता को मानते हैं। इनकी मान्यता है कि यदि बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व न माना जाए, तो उनकी प्रतीति सम्भव नहीं हो सकेगी। वस्तुओं के वर्तमान रहने पर ही उनका प्रत्यक्ष होता है। इनकी मान्यता है कि पदार्थों में सादश्य तभी सम्भव है, जब दोनों का अस्तित्व अलग-अलग हो। दोनों को एक मान लेने पर उनकी सादृश्यता का ज्ञान सम्भव नहीं हो सकेगा। घट हमारे बाहर है और ज्ञान अन्दर है, इसका स्पष्ट अनुभव होता है। अत: वस्तु को ज्ञान से भिन्न मानना चाहिए। यदि घट में तथा मुझमें कोई भेद नहीं होता, तो मैं कहता कि मैं ही घट हूँ।
दूसरी बात यह है कि बाह्य वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं होता, तो घट एवं पट दोनों यदि केवल ज्ञान हैं, तो दोनों एक हैं, लेकिन घट ज्ञान तथा पट ज्ञान को हम एक नहीं मानते हैं। अत: स्पष्ट है कि दोनों में वस्तु सम्बन्धी भेद अवश्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व आवश्यक है। बाह्य वस्तुओं के अनेक आकार होने के कारण ही ज्ञान के भिन्न-भिन्न आकार होते हैं। विभिन्न आकार के ज्ञानों से हम अनेक कारणस्वरूप विभिन्न बाह्य वस्तुओं का अनुमान कर सकते हैं।
योगाचार (विज्ञानवाद)
योगाचार या विज्ञानवाद महायान दर्शन का एक दार्शनिक निकाय है। मैत्रेयनाथ को इसका संस्थापक माना जाता है। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अभिसमयालंकार' है। विज्ञानवाद में इस बात पर बल दिया जाता है कि केवल विज्ञानों की ही सत्ता है, बाह्य वस्तु की कोई सत्ता नहीं है। इस संसार में या तो विज्ञान है या विज्ञानों की पुंजरूप बाह्य वस्तुएँ हैं।
इस मत को योगाचार कहते हैं। इसे योगाचार इसलिए कहते हैं, क्योंकि यह योग एवं साधना पर बल देता है। महायान सम्प्रदाय की योगाचार विचारधारा की स्थापना है कि विज्ञान ही एकमात्र सत् है। उनकी यह स्थापना विज्ञानवाद कहलाती है। योगाचार सम्प्रदाय युक्तियों के आधार पर विज्ञान की एकमात्र सत्ता का प्रतिपादन करता है। उसकी युक्तियों के दो प्रकार हैं-प्रथम वर्ग में बाह्य पदार्थ का निषेध होता है एवं द्वितीय वर्ग में विज्ञान की एकमात्र सत्ता की स्थापना होती है। योगाचार जिन युक्तियों के आधार पर विज्ञानों की सत्ता स्थापित करता है, वे निम्न प्रकार से हैं-
● यदि कोई बाह्य वस्तु है भी, तो उसका ज्ञान सम्भव नहीं है। मान लीजिए घड़ा एक बाह्य वस्तु है। अब घड़ा या तो अणुरूप है या अणुओं का संघात है। यदि घड़ा अणुरूप है तो उसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि अणु स्वभावत: इतना सूक्ष्म होता है कि उसका इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष सम्भव नहीं है। यदि घड़ा अणुओं का संघात है, तो उसका पूर्णतः प्रत्यक्ष होना असम्भव है। हमें घड़े के उसी भाग का प्रत्यक्ष होगा जिस तरफ से उसे देखेंगे। पुन: घड़े के एक भाग का भी प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि घड़े का वह भाग भी अणुरूप होगा।
● यदि घड़े का वह भाग अणुरूप है तो वह इतना सूक्ष्म होगा कि उसका इन्द्रिय सन्निकर्ष सम्भव नहीं हो सकेगा। परिणामस्वरूप उसका ज्ञान सम्भव नहीं हो सकेगा। इस प्रकार विज्ञानवाद की मान्यता है कि यदि बाह्यार्थ के अस्तित्व को स्वीकार भी किया जाए तो उसका ज्ञान सम्भव होगा। अत: बाह्यर्थ की सत्ता में विश्वास के लिए कोई आधार नहीं है।
● यदि बाह्यार्थ के ज्ञान को सम्भव माना भी जाए तो क्षणिकवाद में दोष आता है। क्षणिकवाद के अनुसार, किसी भी वस्तु की सत्ता एक से अधिक क्षण तक नहीं हो सकती, परन्तु किसी वस्तु का ज्ञान तभी हो सकता है जब उसकी सत्ता कम-से-कम दो क्षणों तक हो। प्रथम क्षण वह जिसमें वस्तु का इन्द्रिय सन्निकर्ष होगा और द्वितीय वह क्षण जिसमें वस्तुतः उसका प्रत्यक्ष होगा। इससे क्षणिकवाद में दोष आता है। अत: बाह्यार्थ के लिए कोई प्रमाण नहीं है।
● योगाचार सम्प्रदाय के अनुयायी स्वप्न सादृश्य के आधार पर बाह्यार्थ को असत् सिद्ध करके विज्ञानवाद की स्थापना करते हैं। जिस प्रकार हम स्वप्नावस्था में वस्तुओं को बाहर देखते हैं, यद्यपि वे हमारे मन में होती हैं, वैसे ही जाग्रतावस्था के विषय भी मन में होते हैं, मन के बाहर नहीं। स्वप्नावस्था में व्यक्ति शेर को देखकर घबरा जाता है एवं किसी प्रिय से मिलकर प्रसन्न होता है, परन्तु जैसे ही वह जागता है, बाह्य जगत् में कोई अस्तित्व नहीं होता। इस प्रकार स्वप्नावस्था के विषयों का मन के बाहर कोई अस्तित्व नहीं होता। इसी प्रकार योगाचार सम्प्रदाय के अनुसार हमारे शरीर तथा अन्योन्य पदार्थ जो मन के बाहर प्रतीत होते हैं, वे भी मन के अन्तर्गत ही हैं। इस प्रकार वस्तु जगत् विज्ञान मात्र है।
योगाचार की आलोचना
● विज्ञानवादियों की युक्तियों में विरोधाभास है, चूँकि हमें बाह्य वस्तुओं की उपलब्धि होती है। अत: उनके अनस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता। शंकर कहते हैं कि जब हमें घट-पट आदि का अनुभव होता है, तो उनके अभाव को अस्वीकार नहीं कर सकते। शंकर के अनुसार, “विज्ञानवादियों की स्थिति उस मनुष्य के समान है जो कहता है कि मैंने भोजन किया है. मैं सन्तुष्ट हूँ, फिर पुन: वह कहता है कि मैंने भोजन नहीं किया है, मैं असन्तुष्ट हूँ। " इस प्रकार बाह्यार्थ को अस्वीकार करना अनुभव के विपरीत है।
● शंकर के अनुसार विज्ञानवादी बाह्य वस्तु का खण्डन करने में ही असंदिग्ध रूप में उसकी सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं। विज्ञानवादियों का यह कहना कि हमारे आन्तरिक विज्ञान ही बाह्य वस्तु के समान दिखाई देते हैं, तत्पश्चात् यह स्वीकार कर लेना कि कोई बाह्य वस्तु अवश्य है, जिसके समान हमारे विज्ञान दिखाई देते हैं, विरोधाभासी बात है। शंकर के अनुसार, जाग्रत एवं स्वप्न की तुलना असमंजसपूर्ण है, क्योंकि दोनों में अन्तर है।
● जाग्रत ज्ञान, स्वप्न आदि के ज्ञान के समान नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों वैधर्म्य हैं। आलय विज्ञान पर शंकर कहते हैं कि आलय विज्ञान भी क्षणिक होने के कारण वासनाओं का आश्रय नहीं हो सकता। पुन: यदि आलय विज्ञान को स्थायी मान भी लें, तो क्षणिकवाद में दोष आ जाएगा। इस प्रकार विज्ञानवादियों का मत तर्कसंगत नहीं है।
माध्यमिक (शून्यवाद)
माध्यमिक शून्यवाद. महायान बौद्ध विचारधारा की महत्त्वपूर्ण शाखा है। आचार्य नागार्जुन को शून्यवाद का प्रवर्तक माना जाता है। उसने शून्य को ही एकमात्र तत्त्व घोषित किया, यद्यपि उसने शून्य का विशिष्ट अर्थ दिया। शून्यवाद माध्यमिक दर्शन के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यह गौतम के उपदेशों को अक्षरश: मानते हुए परम विधि एवं परम निषेध के बीच के मार्ग को स्वीकार करता है।
माध्यमिक दर्शन का मानना है कि योगाचार सम्प्रदाय जिन युक्तियों का प्रयोग करके बाह्य वस्तु की सत्ता का निषेध करता है, उन्हीं युक्तियों के आधार पर आत्मा का भी निषेध किया जा सकता है। माध्यमिक कहता है कि यदि हम प्रत्यक्षानुभवों से आगे बढ़कर अनुभूत पदार्थों तक नहीं पहुँच सकते, तो अनुभवों के आधार पर प्रत्यक्ष की सम्पादन आत्मचेतना तक कैसे पहुँच सकते हैं? अत: बाह्य जगत् को विज्ञान की प्रतीति मानने की आवश्यकता नहीं है।
नागार्जुन ने मध्यमिकशास्त्र में बाह्य सत्ता का प्रतिपादन करने वाली युक्तियों में दोष दिखाकर वस्तु स्वभाव की तार्किक विवेचना की और यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि वस्तु सम्बन्धी उत्पत्ति, जाति, गति निरोध आदि गुण वस्तु के स्वरूप नहीं हैं, बल्कि अविद्याजन्य मिथ्या प्रपंचमात्र हैं। यह सम्पूर्ण आनुभविक जगत प्रतीति मात्र एवं अज्ञेय सम्बन्धों का जाल है। नागार्जुन के अनुसार, “किसी का भी अस्तित्व नहीं है, चाहे हम उसे स्वयं से उत्पन्न माने या दूसरे से उत्पन्न माने या दोनों से उत्पन्न मानें या किसी भी कारण से उत्पन्न माने। "
इस प्रकार माध्यमिक की दृष्टि में उत्पत्ति की धारणा मिथ्या प्रत्यय मात्र है, वस्तुस्वभाव नहीं। चूँकि, बुद्ध का सिद्धान्त किसी भी चीज को अकारण नहीं मानता। अत: सम्पूर्ण जगत भ्रममूलक है। सारा अनुभव भ्रम है। विज्ञान एवं विज्ञान से इतर सभी तत्त्व भ्रम मात्र हैं।
माध्यमिक दर्शन तत्त्व को शून्य या शून्यता कहता है। शून्य से आशय अभाव या अनस्तित्व से नहीं है। यहाँ शून्यता एक भावात्मक तत्त्व है। कुमारजीव के अनुसार, “प्रत्येक वस्तु का सम्भव होना शून्यता के कारण है और इसके बिना संसार में कुछ भी सम्भव नहीं है। "
नागार्जुन का कथन है कि मनुष्य व्यवहार में जिन गुणों को वस्तु का स्वरूप समझते हैं, वे सभी हेतु प्रत्ययजन्य हैं। हेतुफल परम्परा के अप्रमाणित होने पर बुद्धि द्वारा वस्तु के पारमार्थिक स्वरूप का निश्चय हो पाना सम्भव नहीं है। अत: 'नि:स्वाभवता' ही वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप है। माध्यमिक इसी को शून्य कहते हैं। विज्ञान को शून्य कहने का तात्पर्य यह है कि वह प्रपंचशून्य और बाह्य जगत स्वभाव शून्य है।
इस प्रकार तत्त्व को शून्य कहने का तात्पर्य इतना ही है कि वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप बुद्धि से परे एवं अनिर्वचनीय है। माध्यमिक उन्हीं तत्त्वों को शून्य कहता है, जिनकी व्याख्या नहीं हो सकती। इस प्रकार शून्यवादी दार्शनिक प्रवृत्ति भावात्मक है।
नागार्जुन के दो सत्यों का सिद्धान्त
नागार्जुन ने 'दो सत्यों के सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया है-
- संवृत्ति या व्यवहार सत्य और
- परमार्थ सत्य
नागार्जुन के अनुसार जो व्यक्ति इन दोनों सत्यों को नहीं जानता, वह बुद्ध की गम्भीर शिक्षाओं के रहस्य को नहीं जान सकता। नागार्जुन ने संवृत्ति सत्य के दो भेद किए हैं-
- लोक संवृत्ति एवं
- मिथ्या संवृत्ति।
लोक संवृत्ति में वे सभी वस्तुएँ आती हैं, जिनकी उत्पत्ति किसी कारण से होती है और जिसका समान अनुभव सभी लोगों को होता है; जैसे-घट, पट आदि। मिथ्या संवृत्ति से तात्पर्य उन अनुभवों एवं घटनाओं से है, जो हेतु-प्रत्ययजन्य तो हैं, परन्तु उनकी प्रतीति व्यक्ति-विशेष को ही होती है, सभी व्यक्तियों को नहीं; जैसे-मृगतृष्णा।
नागार्जुन के अनुसार, परमार्थ सत्य बुद्धि से परे अवर्णनीय एवं नि:स्वभाव है। इसमे ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञानादि के भेद का पूर्ण अभाव होता है। यह एक निर्विकल्प अवस्था है। इसका कोई पूर्व कारण नहीं है। शून्यवाद एक प्रकार की सापेक्षिक अवधारणा है। चूँकि, परमार्थत: सत्ता नि:स्वभाव है और व्यवहारतः वह प्रतीत्य समुत्पन्न है। अत: व्यवहार में, वस्तु में धर्म अन्य वस्तुओं पर निर्भर होता है। आशय यह है कि वस्तु का अस्तित्व अन्य वस्तुओं से निर्धारित होता है। सापेक्षवाद भी मानता है कि वस्तु का अपना कोई निश्चित एवं निरपेक्ष स्वभाव नहीं है।
नागार्जुन के शून्यवाद पर भी आलोचकों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की है। शंकर ने शून्यवाद की पूर्णत: उपेक्षा की है। उन्होंने इतना ही कहा है कि मैं इसकी आलोचना करके इसका महत्त्व नहीं बढ़ाना चाहता। आचार्य कुमारिल ने माध्यमिक विचारधारा के 'सत्यद्वय सिद्धान्त' पर गम्भीर आक्षेप किया है। उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया है कि संवृत्ति सत्य को सत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जो सत्य है, वह निरपेक्ष सत्य है।
तिब्बती बौद्ध दर्शन
कुषाण शासक कनिष्क के काल में चतुर्थ बौद्ध सम्मेलन कश्मीर के कुण्डलवन में हुआ था। जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। इस सम्मेलन के उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। इसी सम्मेलन में बौद्ध धर्म दो सम्प्रदायों महायान तथा हीनयान में बँट गया था। महायान बौद्ध धर्म भारत के अतिरिक्त विदेशों में भी फैला। तिब्बती बौद्ध धर्म भी महायान बौद्ध धर्म का ही एक रूप है। तिब्बती बौद्ध धर्म पर वज्रयान (तान्त्रिक पद्धति) का भी प्रभाव देखा जा सकता है।
तिब्बती बौद्ध धर्म का धीरे-धीरे काफी प्रसार हुआ, जिसमें मंगोल शासक कुबलई खान की भी अप्रत्यक्ष रूप से भूमिका थी, क्योंकि इसका साम्राज्य विस्तार बहुत ही अधिक था। तिब्बती बौद्ध धर्म के अन्तर्गत चार प्रमुख शाखा हैं-
- निमिंगमा,
- काग्यू,
- शाक्य और
- गेलुग
तिब्बत में भारत के संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का पहली बार राजा सोंगत्सान्पो गम्पो के शासनकाल में तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया। इसी समय तिब्बती लेखन प्रणाली शास्त्रीय तिब्बती भाषा का भी विकास होने लगा। 8वीं शताब्दी में राजा ट्रिसॉन्ग डेट्सन ने इसे राज्य के आधिकारिक धर्म के रूप में स्थापित किया।
ट्रिसॉन्ग डेट्सन ने भारतीय बौद्ध विद्वानों को अपने दरबार में आमन्त्रित किया जिनमें पद्मसम्भव प्रमुख थे। पद्मसम्भव को तिब्बती बौद्ध धर्म की सबसे पुरानी परम्परा निंगमा (प्राचीन युग) का संस्थापक माना जाता है। फिर तिब्बत में प्राचीनकाल से लेकर अब तक कई बार राजनीतिक अस्थिरता का समय आया परन्तु तिब्बती बौद्ध धर्म आज तक जिन्दा है जिसे आज हम दलाई लामा की परम्परा के सन्दर्भ में समझ सकते हैं। तिब्बती बौद्ध धर्म में भी बुद्धत्व और बोधिसत्व की चर्चा है। तिब्बती बौद्ध धर्म में बोधिसत्वों में अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, वज्रपाणि और तारा शामिल हैं।
तिब्बती बौद्ध धर्म के अन्तर्गत बोधिसत्व के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित पाँच मार्ग का उल्लेख है-
● संचय का मार्ग
● तैयारी का मार्ग
● देखने का मार्ग
● ध्यान का मार्ग
● कोई और अधिक सीखने का मार्ग
इसी मार्ग का समापन बुद्धत्व में होता है। फिर अन्य बौद्ध धर्म परम्पराओं की तरह तिब्बती बौद्ध धर्म में भी गुरु को काफी महत्त्व दिया गया है। तिब्बती बौद्ध शिक्षक/ गुरु को लामा कहा जाता है। साथ ही बौद्ध मठ का भी तिब्बती बौद्ध परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। साथ ही साथ तिब्बती बौद्ध परम्परा में महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई है।
इस प्रकार तिब्बती बौद्ध दर्शन में बुद्धत्व प्राप्त करना, गुरु योग, गूढार्थवाद, अनुष्ठान, मन्त्र, तान्त्रिक योग इत्यादि महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, जो आज भी निरन्तर हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यद्यपि बौद्ध धर्म की उत्पत्ति भारत में हुई तथा आज यह अपने जन्म स्थल से विलुप्त होता जा रहा है। परन्तु विदेशों में विशेषकर दक्षिण-पूर्वी एशिया, तिब्बत में आज भी यह व्यापक रूप में मौजूद है, जो इसकी प्रासंगिकता को बताता है।
ब्राह्मण और श्रमण परम्परा में भेद
ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता हो और वेद वाक्य को ही ब्रह्म वाक्य मानता हो। ब्राह्मणों के अनुसार ब्रह्म और ब्रह्माण्ड को जानना आवश्यक है, तभी ब्रह्मलीन होने का मार्ग खुलता है। श्रमण वह है जो श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता हो और जिसके लिए व्यक्ति के जीवन में ईश्वर की नहीं, श्रम की आवश्यकता है। श्रमण परम्परा तथा श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में मिलता है तथा ब्राह्मण परम्परा का उल्लेख वेद, उपनिषद् और स्मृतियों में मिलता है।
फिर चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने दार्शनिकों की जाति को दो श्रेणियों में विभाजित किया है-ब्राह्मण और श्रमण। ब्राह्मण 37 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। ब्राह्मण की वृत्ति के सम्बन्ध में मेगस्थनीज लिखता है यज्ञ, अन्त्येष्टि क्रिया तथा अन्य धार्मिक कृत्य करवाने के बदले में उन्हें बहुमूल्य दक्षिणा मिलती है। श्रमणों को भी दो श्रेणियों में बाँटा गया है, जो वनों में रहते थे और कन्द-मूल फलों पर आजीविका चलाते थे।
इन्हें वैखानस या वानप्रस्थ आश्रम से सम्बद्ध माना जा सकता है। दूसरी श्रेणी के श्रमण वे थे जो आयुर्वेद में कुशल होते थे और समाज में सम्मानित थे। मेगस्थनीज के श्रमण तथा ब्राह्मण, वानप्रस्थ अथवा संन्यासियों से अधिक मेल खाते हैं, जैन और बौद्ध श्रमणों से नहीं। सम्भवतः एक विदेशी होने के कारण मेगस्थनीज भारतीय समाज की जटिलताओं को समझने में असमर्थ था।
संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान एवं भावी जीवन का अपने में पूर्ण विकसित रूप है। यह अपने आप में एक अखण्ड तत्त्व है, जिसका विभाजन नहीं किया जा सकता। फिर भी संस्कृति के पूर्व जब कोई विशेषण जोड़ दिया जाता है, तो वह विभाजित हो जाती है; जैसे-श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा। ये दोनों परम्पराएँ भारतीय धर्म में गुरुपद को भोगते रही हैं, लेकिन एक ही देश में रहते हुए उसी का अन्न-जल ग्रहण करते हुए भी दोनों की चिन्तन पद्धति अलग है।
ब्राह्मण परम्परा का मूल आधार वैदिक साहित्य रहा है जिसकी धुरी ब्रह्म है। वेदों में जो कुछ भी आदेश एवं उपदेश उपलब्ध हैं अर्थात् यज्ञ, पूजा, स्तुति, ईश्वर, उन्हीं के अनुसार जिस परम्परा ने अपनी जीवन पद्धति का निर्माण किया वह ब्राह्मण परम्परा कहलाई तथा जिस परम्परा ने वेदों को प्रमाणित न मानकर आध्यात्मिक ज्ञान, आत्मविजय एवं आत्म-साक्षात्कार पर विशेष बल दिया, वह श्रमण परम्परा कहलाई। 'श्रमण' शब्द प्राकृत के 'समण' शब्द से बना है। जिसके संस्कृत में तीन रूप होते हैं- श्रमण, समन, शमन। श्रमण परम्परा का आधार इन्हीं तीन शब्दों पर है। श्रमण शब्द 'श्रम' धातु से बना है जिसका अर्थ है परिश्रम करना। श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में भी मिलता है जिसमें इस शब्द का अर्थ यह बताया गया है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है। सुख-दु:ख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है।
'समन' का अर्थ है समता भाव अर्थात सभी को आत्मवत समझना, सभी के प्रति सम्भाव रखना। फिर ‘शमन' का अपनी वृत्तियों को शान्त रखना, उनका निरोध करना अर्थात् जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है, वह महाश्रमण है। इस प्रकार श्रमण परम्परा का मूल आधार श्रम, सम, शम इन तीन तत्त्वों पर आश्रित है एवं इसी में इस नाम की सार्थकता है। श्रमण परम्परा अत्यन्त प्राचीन है।
भारतीय इतिहास के आदिकाल से ही हम श्रमण परम्परा के संकेत पाते हैं। श्रमण परम्परा ने संसार की दुःखमयता को प्रदर्शित कर त्याग और वैराग्यमय जीवन शैली का विकास कर निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य माना है। इसमें तप, त्याग, योग आदि पर बल दिया गया है।
ब्राह्मण परम्परा के विकासक्रम ने मीमांसा, वेदान्त, वैशेषिक और न्याय दर्शन को जन्म दिया। वहीं श्रमण परम्परा में चार्वाक, सांख्य, योग विचारधारा का विकास हुआ। जो आज वृहद वैदिक धर्म का ही एक अंग बन चुका है। आजीवक धारा को भी श्रमण परम्परा में ही शामिल किया जाता है। जैन तथा बौद्ध दर्शन भी श्रमण परम्परा के ही अंग हैं जिनकी उत्पत्ति ब्राह्मणवाद के विरुद्ध हुई थी अर्थात् श्रमण परम्परा वैदिक कर्मकाण्ड, यज्ञ में पशु बलि, वर्ण-व्यवस्था इत्यादि का विरोध करती है।