Wednesday, November 22, 2023

चार्वाक दर्शन/लोकायत दर्शन

चार्वाकदर्शन - लोकायतदर्शन

    इस मत का प्रवर्तक बृहस्पति हुआ है । बृहस्पति का विश्वास था कि जो कुछ है, यही लोक है, इसलिये इसी की चिन्ता करनी चाहिये और इसी को सुखदायी बनाना चाहिये। परलोक के लिये व्यर्थ व्यय और व्यर्थ परिश्रम नहीं उठाना चाहिये। इस विश्वास को लेकर उन्होंने अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ मानकर धर्म और मोक्ष के विषयों का खण्डन किया है।

प्रमाण निर्णय

    प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है क्योंकि यथार्थज्ञान के साधन केवल इन्द्रिय ही हैं। इन्द्रिय पांच बाहर हैं और एक अन्दर। नेत्र, श्रोत्र, घ्राण, रसना और त्वचा बाह्य इन्द्रिय हैं और मन अन्तरिन्द्रिय है। बाह्य इन्द्रियों से बाहर का अनुभव होता है और अन्तरिन्द्रिय से अन्दर का। नेत्र से रूप, श्रोत्र से शब्द, घ्राण से गन्ध, रसना से रस और त्वचा से स्पर्श का अनुभव होता है और मन से सुख दुःख का वा इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और ज्ञान का। बस इतना ही अनुभव है। यहां तक ही हमारे इन्द्रियों का साक्षात् सम्बन्ध है। इसी को प्रत्यक्ष कहते हैं और यही प्रमाण है। जिस ज्ञान में इन दोनों प्रकार के इन्द्रियों में से किसी का भी साक्षात सम्बन्ध नहीं है वह प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि सीधा सम्बन्ध न होने के कारण वह एक सम्भावनामात्र है न कि निश्चित यथार्थज्ञान। अतएव वह प्रमाण नहीं ।

    अनुमान का सारा ज्ञान इस बात पर निर्भर है कि हम जिन दो पदार्थों को एकसाथ देखते रहते हैं उनमें से एक को देखकर दूसरे का उसके साथ होना निश्चय कर लेते हैं, जैसे - धूम को देखकर अग्नि का निश्चय कर लेते हैं। परन्तु यह निर्भर कैसा सच्चा है ? भला जब अग्नि एक अलग पदार्थ है और धूम एक अलग तो फिर यह नियम कैसे हो सकता है कि जहां धूम है, वहां अग्नि अवश्य होगी। जिन पदार्थों के मेल से धूम बना है, वह यदि बिना अग्नि के उसी भान्ति किसी तरह मिल जाएं वा मिला दिये जाएं तो बिना अग्नि के धूम उत्पन्न हो जाएगा अथवा अग्निजन्य धूम की ही बन्द करके वहां लेजाकर छोड़ दें जहां अग्नि नहीं तो वह धूम बिना अग्नि के होगा। लो हम तुम को एक सुगम रीति बतलाते हैं  - धूम को एक बड़ी मशक में भरलो और अधिक सर्दी गर्मी से बचाने का उपाय करके उसका मुंह ऊपर रखकर एक तालाब में उतार दो और मुंह खोल दो, धूम वहां से ज्यों का त्यों निकलने लगेगा। अब उस धूम को देखकर जो अग्नि का अनुमान करके वहां पहुंचेगा, वह ऐसी जगह पहुंचेगा, जहां अग्नि नहीं बल्कि यदि वहां दूसरी जगह से लाकर भी रखी जाए, तौभी न रहे, और यदि वह अग्नि तापने के लिये गया हो, तो और भी ठिठुर जाए। अब बताओ उसको तुम्हारा अनुमान प्रमाण होगा वा नहीं। देखो, यहां भी जो अंश प्रत्यक्ष का है वह यथार्थ है और जो अनुमान का है, वही अयथार्थ है, क्योंकि धूम तो है पर अग्नि नहीं है। यही दशा सारे अनुमानों की है और युक्ति इसमें यह है कि अनुमान मन से होता है न कि किसी बाह्य इन्द्रिय से। अग्नि का अनुमान नेत्र से नहीं होता बल्कि मन से होता है। अब मन बाह्यज्ञान में सदा बाह्य इन्द्रियों के अधीन होता है। मन अग्नि को इसलिये जानता है कि नेत्र ने उसे दिखलाई है। यदि नेत्र न दिखलाता तो मन कभी न जानता क्योंकि “परतन्त्रं बहिर्मनः" मन बाहर (बाहर के विषयों में) परतन्त्र है। अतः मन जब कि बाहर परतन्त्र है तो नेत्र के अधीन ही अग्नि को देख सकता है और अब जबकि नेत्र अग्नि को नहीं दिखला रहा, मन का अग्नि को जानना चालाक मन की चालाकी मात्र है जो कभी-कभी पकड़ी भी जाती है। पर यह चालाकी ही है, प्रमाण नहीं बन सकती है। इसलिये अनुमान कोई प्रमाण नहीं। अनुमान की तरह शब्द भी प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि शब्द प्रमाण दूसरे के यथार्थज्ञान और यथार्थ कथन पर निर्भर करता है। यदि कहने वाले ने ठीक जाना है और ठीक कहा है तो उस से दूसरे को भी यथार्थज्ञान हो सकता है पर इसमें क्या प्रमाण है कि उसने यथार्थ ही जाना है और यथार्थ ही कहा है। यह हो सकता है कि उसने ठीक न जाना हो या जानकर भी अयथार्थ कहा हो। यद्यपि उसने पहले कभी अयथार्थ न कहा हो फिर भी यह निश्चय कैसे हो सकता है कि वह अब भी यथार्थ ही कह रहा है। इसलिये शब्द भी प्रमाण नहीं हो सकता है। उपमानादि और जितने प्रमाण वादियों से माने गए हैं वह अनुमान और शब्द के अन्तर्गत हो जाते हैं और यदि अलग भी मान लिये जाएं तो भी उनका निर्भर इन्हीं पर है। जब यही प्रमाण नहीं तो वह कैसे हो सकते  हैं। इसलिये प्रसक्ष ही एक प्रमाण है।

प्रमेय निर्णय

    पृथिवी, जल, तेज और वायु, यह चार तत्व हैं, इन्हीं के मेल से पृथिव्यादि लोक बने हैं और इन्हीं के मेल से तृण, घास, वृक्ष और देह उत्पन्न होते हैं। जो कुछ है सब इन्हीं के मेल से बना है। जैसे - परिणामविशेष से जौ आदि से मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है इसी प्रकार देह के आकार में परिणत इन तत्वों में चेतनता उत्पन्न हो जाती है और उनके नाश होने पर नाश हो जाती है। अतः चैतन्यावशिष्ट देह ही आत्मा है, अतएव "मैं मोटा हूं, मैं दुबला है" इत्यादि प्रतीति होती है, क्योंकि मोटा होना, दुबला होना, देह का धर्म है, इसलिये वही आत्मा है, अतिरिक्त नहीं। देह से अतिरिक्त आत्मा में कोई प्रमाण नहीं, क्योंकि प्रयक्ष ही केवल प्रमाण है, प्रत्यक्ष से देह ही सिद्ध होता है, देहातिरिक्त कोई सिद्ध नहीं होता, और अनुमानादि प्रमाण ही नहीं। जब देह ही आत्मा हुआ, तो वह मर कर न कहीं जाता है, न आता है, यहीं भस्म हो जाता है, फिर परलोक कैसा ? कर्मों का साक्षी और फलदाता कोई ईश्वर नहीं। यदि कोई दण्ड दण्ड देने वाला है, तो वह राजा ही है, तुम्हारा ईश्वर तो किसी को दण्ड देता कभी किसी ने देखा नहीं। अतः यदि राजा को ईश्वर कहो तब तो ठीक है पर उसके सिवाय कोई ईश्वर नहीं क्योंकि उसमें कोई प्रमाण नहीं हो सकता है। परलोक के विषय में बृहस्पति ने कहा है –

न स्वर्गो नापवर्गों वा नैवात्मा पारलौकिकः ।
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्चफलदायिकाः ॥ 1 ॥
अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् ।
बुद्धिपौरुषहीनांनां जीविकाधातृनिर्मिता ॥ 2 ॥
पशुश्चेनिहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति ।
स्व पिता यजमानेन तत्र कस्मान्नहिंस्यते ॥ 3 ॥
मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम् ।
गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थ पाथेयकल्पनम् ॥ 4 ॥
स्वर्गस्थिता यदा तृप्ति गच्छे युस्तत्रदानतः ।
प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते ॥ 5 ॥
यावज्जीवत्सुखं जीवेणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ 6 ॥
यदि गच्छेत् परं लोकं देहादेष विनिर्गतः ।
कस्माद्भूयोन चायाति बन्धुस्नेह समाकुलः ॥ 7 ॥
ततश्चजीवनोपायो ब्रह्मणैर्विहित स्त्विह ।
मृतानां प्रेतकार्याणि नत्वन्यविद्यते कचित् ॥ 8 ॥
अर्थ- न स्वर्ग है, न मोक्ष है, न ही आत्मा परलोक में जानेवाला है और न ही वर्ण और आश्रम आदिकों के कर्मफलदायक हैं। अग्निहोत्र, तीनों वेद, त्रिदण्डधारण, और भस्मलेपन, यह ब्रह्मा ने, बुद्धि और पुरुपार्थ से हीन लोगों की जीविका बनाई है। ज्योतिष्टोम में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग को जाता है, तो यजमान अपने पिता को ही उसमें क्यों नहीं मार देता। मरे हुए प्राणियों का श्राद्ध यदि उनके लिये तृप्तिकारक हो, तो परदेश जाने वालों के लिये तोशा तय्यार करना व्यर्थ है। यदि स्वर्ग में स्थित पितर यहां दान से तृप्त होजाते हैं, तो महल पर बैठे हुओं के लिये यहां क्यों नहीं देते हो। सो जब तक जीवे, सुखी जीवे, ऋण लेकर भी घी पीवे, भस्म हुए देह का फिर आना कहां। यदि यह देह से निकलकर परलोक को जाए, तो फिर वह बन्धुओं के स्नेह से घबराया हुआ वापिस क्यों नहीं आ जाता है।  इसलिये मरे हुए के लिये प्रेतकर्म करना ब्राह्मणों ने अपने जीवन का उपाय बनाया है, इसके सिवाय और कुछ नहीं है।
    यहां जो, कोई राजा कोई रंक है, कोई रोगी कोई नीरोग है, न कोई दुर्बल कोई बलवान है, कोई बुद्धिहीन कोई बद्धिमान है और कोई पशु कोई मनुष्य है, इत्यादि विचित्रता है, इसमें प्राणियों के अदृष्ट कारण नहीं, किन्तु यह सारी विचित्रता खभाव से ही है - "अग्निरुष्णो जलं शीतं शीतस्पर्शस्तथा ऽनिलः केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात्तदयवस्थितिः" अग्नि गर्म है, जल ठण्डा है, और वायु शीतस्पर्शवाला है, यह किसने विचित्रता की है ? किसी ने नहीं इसलिये स्वभाव से इनकी यह व्यवस्था है।
    जब देह ही आत्मा है और उसके लिये यही लोक है। तो यहां का सुख ही हमारा उद्देश्य होना चाहिये। इसलिये - "यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्तिमृत्योरगोचरः। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः" जब तक जिये, सुख से जिये, मृत्यु से तो बचाव नहीं, और जब देह भस्म हो गया, तो फिर आना कहां। अतः ऐहिकसुख को पुरुपार्थ मानकर उसी के बढ़ाने में यत्न करना चाहिये। यह नहीं समझ बैठना चाहिये, कि यहां का सुख दुःख से मिला हुआ है, इसलिये यह ग्रहण करने योग्य ही नहीं, किन्तु, दुःख का परिहार करके सुख का ग्रहण करते जाना चाहिये, न कि दुःख के भय से सुख को ही छोड़ देना चाहिये। क्या कभी ऐसा होता है, कि हरिण हैं, इस डर से कोई धान ही न बोए, वा भिखारी हैं, इस डर से भोजन ही न बनाए। इसी प्रकार दुःख के डर से सुख का परित्याग नहीं कर देना चाहिये, जैसाकि कहा है - "त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणैषा। ब्रीहीन जिहासति सितोत्तमतण्डलाढ्यान् को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी" विषयों के संग से उत्पन्न होने वाला सुख, दुःख से मिला हुआ होता है, इसलिये वह त्याग के योग्य है, ऐसा विचार मूर्खों का है। भला कौन अपना हित चाहने वाला पुरुष श्वेत उत्तम चावलों से भरे हुए धान को इस डर से छोड़ना चाहता है, कि वह तुषों से ढपे हुए हैं। जैसे तुषों को अलग करके चावल खाए जाते हैं, वैसे दुःखों को हटाकर सुखों का उपभोग करना चाहिये यही बुद्धिमत्ता है। अतः यहां ही स्वर्ग, यहां ही नरक और यहां ही मोक्ष है। ऐश्वर्य ही स्वर्ग है, कांटे आदि से उत्पन्न होने वाला  दुःख ही नरक है। देह का नाश ही मोक्ष है। जो कुछ है बस यही है, न कोई परलोक है, न उसके लिये कोई धर्म है। धर्म की बातें लोगों ने अपनी जीविका के लिये बनाली हैं। इस मिथ्या अध्यास को छोड़ो और लोक के मुख से वंचित मत रहो। अर्थशास्त्र के अनुसार कमाओ, कामशास्त्र के अनुसार भोगो, और नीतिशास्त्र के अनुसार बर्ताव करो। इसी में तुम्हारा कल्याण है। यही परमपुरुपार्थ है और सच तो यह है, कि कहने में चाहे कुछ ही कहो, पर करने में तो हमारा ही मत फैला हुआ है। देखलो लोगों को, वह डरते किस से हैं, राजा से, वा ईश्वर से और किस की चिंता में लगे रहते हैं, लोक की वा परलोक की और अपना आप किस को समझते हैं, शरीर को वा अलग किसी आत्मा को। बस कथन में चाहे आत्मा, परलोक और ईश्वर की पुकार मचालो, पर करने में तुम भी हमारे साथ ही मिल जाते हो, अतएव हमारा मत लोकायत अर्थात लोक में फैला हुआ है।

चार्वाक दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र

"यावज्जीवेत सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।"

चार्वाक दर्शन के प्रमुख सिद्धांत

  • 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्वानि' अर्थात् पृथ्वी, जल तेज, वायु- ये चार तत्व है।
  • 'भूतान्येव चेतयन्ते' अर्थात् भूत ही चैतन्य उत्पन्न करने का कार्य करता है।
  • 'चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः' अर्थात् चैतन्य-युक्त स्थूल शरीर ही आत्मा है।
  • 'मरणमेवापवर्गः' अर्थात् मरण ही मोक्ष है।
  • अर्थकामौ पुरुषार्थौ' अर्थात् अर्थ और काम ये दोनों पुरुषार्थ है।
  • 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्' अर्थात् प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है।

चार्वाक दर्शन

    चार्वाक दर्शन को नास्तिक दर्शन माना गया है, क्योंकि वह न तो वेदों को मानता है, न परलोक को और न ही ईश्वर में विश्वास करता है। उक्त नास्तिक दर्शन का संस्थापक बृहस्पति नाम के आचार्य को माना जाता है। कुछ विद्वान बृहस्पति के शिष्य चार्वाक के द्वारा प्रचारित होने के कारण इसे चार्वाक दर्शन के नाम से पुकारते है। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार चार्वाक नाम इसलिए पड़ा कि इसके मानने वालों के वचन बड़े मीठे होते थे। ‘चारु’ अर्थात सुन्दर ‘वाक’ होने के कारण चार्वाक कहलाए। जहाँ तक इसके साहित्य का प्रश्न है, कुछ गिने-चुने बार्हस्पत्य सूत्र इस दर्शन के सर्वस्व है। इस दर्शन का सबसे प्राचीन नाम ‘लोकायत’ है, क्योंकि यह लोक अर्थात जगत में आयत अर्थात फैला हुआ था। इसे बार्हस्पत्यशास्त्र भी कहा जाता है, क्योंकि यह आचार्य बृहस्पति के सूत्रों पर आधारित है। इसे जड़वाद अथवा भौतिकवाद भी कहा जाता है, क्योंकि यह जड़ अथवा भौतिक तत्वों को प्रधान मानता है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन को बार्हस्पत्यशास्त्र, लोकायतमत, जड़वाद या भौतिकवाद, नास्तिकवाद आदि नामों से पुकारा जाता है। ये सभी सिद्धान्त स्वेछाचारित, स्वतन्त्रवाद, संयमवाद अथवा भोगवाद के पोषक है जो चार्वाक दर्शन की विचारधारा के अनुकूल है।

प्रत्यक्ष एक मात्र प्रमाण

    भारतीय दर्शन का मूलाधार प्रमाण-विचार अथवा ज्ञान-मीमांसा है। ज्ञान-मीमांसा ज्ञान की उत्पत्ति, उसके स्वरूप तथा ज्ञान की प्राप्ति के साधनों का विवेचन करती है। भारतीय दर्शन में कुल मिलाकर छः प्रमाण- प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि माने गए है। चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष को ही एक मात्र प्रमाण मानता है।  अनुमान, शब्दादि प्रमाणों को यह विश्वसनीय नहीं मानता। प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुसार, केवल इंद्रियों के द्वारा ही विश्वास योग्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है। इंद्रिय एवं वस्तु के संसर्ग से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। समस्त प्रमेय अर्थात दृश्यमान जगत का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा होता है। अतः चार्वाक की दृष्टि में, इंद्रिय ज्ञान ही एक मात्र यथार्थ ज्ञान है। विस्तृत अर्थ में प्रत्यक्ष ज्ञान वह है जो इंद्रियों से प्राप्त होता है। इंद्रियों की संख्या पाँच है-आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ। आँख से रूप का, कान से शब्द का, नाक से गन्ध का, त्वचा से स्पर्श का व जीभ से स्वाद का ज्ञान प्राप्त होता है। इन्हीं पाँच इंद्रियों से प्राप्त ज्ञान ही प्रत्यक्ष कहलाता है।  प्रत्यक्ष ज्ञान निश्चित एवं सन्देह रहित होता है। इसलिए कहा गया है-‘प्रत्यक्षम्  किं प्रमाणम्’। प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण मानने के कारण चार्वाक दर्शन अन्य प्रमाणों, विशेषकर अनुमान एवं शब्द  का खण्डन करता है।

अनुमान तथा शब्द की समीक्षा

    चार्वाक दर्शन के अनुसार, अनुमान निश्चयात्मक नहीं होता अर्थात उसके द्वारा पूर्ण निश्चयात्मक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती, क्योंकि अनुमान का मूल आधार ‘व्याप्ति’ है और व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं हो सकता। व्याप्ति दो वस्तुओं के बीच नित्य सम्बन्ध का नाम है। हेतु और साध्य के बीच में जो व्यापक सम्बन्ध होता है, उसे व्याप्ति कहते है- जैसे अग्नि और धूम का सम्बन्ध। यहाँ चार्वाक का कहना है कि व्याप्ति का निश्चयात्मक न प्रत्यक्ष से हो सकता है, न अनुमान से, न शब्द से और न ही उपमान के द्वारा। जब यह कहा जाता है कि पर्वत अग्निमान है, क्योंकि वहाँ धूम है तब हम प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष पर चले जाते है।

    चार्वाक कि दृष्टि में व्याप्ति-ज्ञान सम्भव नहीं है। केवल प्रत्यक्ष ही यथार्थ ज्ञान का आधार है। प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है-बाह्य तथा आभ्यांतर। बाह्य प्रत्यक्ष, इंद्रियों एवं वस्तुओं के संसर्ग पर आश्रित है। व्याप्ति में साध्य (अग्नि) और साधन (धूम) का नित्य-साहचर्य होता है। बाह्य-इंद्रियों का सम्बन्ध केवल वर्तमान काल की वस्तुओं से होता है। अतः जो वस्तुएँ अति दूर है, भूत या भविष्यकालीन है, वे प्रत्यक्ष से परे है, और व्याप्ति सम्बन्ध तभी बनता है जब उसका सभी अवस्थाओं से सम्बन्ध हो। इस प्रकार बाह्य-इंद्रियों से व्याप्ति-ज्ञान सम्भव नहीं है।

    चार्वाक मतानुसार शब्द प्रमाण से भी व्याप्ति सिद्धि सम्भव नहीं है। आप्त पुरुष के वचन को शब्द प्रमाण कहा गया है, लेकिन चार्वाक की दृष्टि से कोई आप्त पुरुष नहीं है। इस प्रकार शब्द प्रमाण द्वारा भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है। उपमान के द्वारा भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है, क्योंकि उपमान संज्ञा-संज्ञि (गवय एवं गोसदृश) के सम्बन्ध का ज्ञान करता है जो सोपाधिक है। अतः उपमान के लिए उपाधि रहित सम्बन्ध का ज्ञान कराना सम्भव नहीं है।

    अनुमान प्रमाण इतना व्यापक है कि हम सब उसके आधार पर निःशंक अपना कार्य करते है। लेकिन चार्वाक मानता है कि हम बिना विचारे अनुमान की सत्यता मान लेते है। फलतः अनेक भ्रान्तिपूर्ण धारणाओं पर कार्य करते रहते है। कभी-कभी अनुमान संयोगवश सही निकल आते है, पर वे बार-बार गलत भी पाये जाते है। अतः यह कहना उचित होगा कि अनुमान निश्चयात्मक नहीं होता। संक्षेप में, अनुमान का प्रामाणिक होना स्वाभाविक गुण नहीं है।

    चार्वाक शब्द प्रमाण को भी नहीं मानता है, क्योंकि शब्द अनुमान की भाँति ही संदिग्ध होते है। आप्त पुरुष के वचन को शब्द प्रमाण कहा जाता है। चार्वाक के अनुसार, शब्दों पर आधारित ज्ञान दो प्रत्यक्षों का ही परिणाम है। विश्वनीय व्यक्ति का वचन श्रवण से श्रुत होने के कारण प्रत्यक्ष का विषय है। अतः उसके लिए शब्द प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं है। अर्थात आप्तपुरुषों से ज्ञान शब्दों के रूप में मिलता है, और शब्दों का सुनना तो प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार शब्द-ज्ञान दो प्रत्यक्षों के द्वारा होता है। ऐसे शब्द ज्ञान को प्रामाणिक माना जा सकता है।

    लेकिन चार्वाक की मुख्य आपत्ति यह है कि ऐसे आप्तवचन जो हमें अप्रत्यक्ष वस्तुओं के बारे में विश्वास दिलवाने का प्रयास करते है, बिल्कुल अविश्वासनीय है। अनेक व्यक्तियों को वेदादि में पूर्ण विश्वास है और वेदों के शब्दों को वे आप्तवचन मानते है अर्थात उनमें जो कुछ लिखा है वही सत्य है, किन्तु चार्वाकों का मानना है कि वेदों को तो धूर्त-पुरोहितों ने रचा है। इन पण्डितों ने झूठी आशाओं के द्वारा मनुष्यों को वैदिक कर्मों के अनुसार चलने को कहा है। चार्वाक का कहना है कि वेद विरोध पूर्ण युक्तियों से भरा पड़ा है जो द्विअर्थक, असपष्ट एवं असंगत है।

उपर्युक्त दृष्टिकोण के अलावा, चार्वाक कहता है कि जब हम किसी एक आप्तपुरुष के वचनों पर विश्वास करते है तो हम सहज ही यह अनुमान कर लेते है कि ‘सभी आप्त पुरुषों के वचन मान्य है’ यह आप्तपुरुष का वचन है, अतः उनका वचन मान्य है’। इस प्रकार शब्द प्रमाण की सत्यता अनुमान पर आश्रित हो जाती है, किन्तु जब अनुमान सिद्ध ही संदिग्ध है तो शब्द प्रमाण की सिद्धि भी संदिग्ध है। कभी-कभी अनुमान अथवा शब्द संयोगवश सही निकल जाते है, पर अनेक बार वे असत्य भी निकलते है। इस प्रकार शब्द को ज्ञान प्राप्ति का यथार्थ साधन नहीं माना जा सकता है।

अभौतिक पदार्थों का निराकरण

    चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है और उन्हीं वस्तुओं की सत्ता में विश्वास करता है जो प्रत्यक्ष अर्थात दृष्टिगोचर है। अतः वह आत्मा, ईश्वर, नरक-स्वर्ग आदि अदृष्ट विषयों में आस्था नहीं रखता। चार्वाक तत्वमीमांसा के अन्तर्गत निम्नलिखित विचार आते है-

चार्वाक दर्शन में जगत् का स्वरूप 

    चार्वाक दर्शन में, जड़ ही एकमात्र सत्ता है। जड़ तत्व चार प्रकार के होते है- पृथ्वी, जल, तेज और वायु। ये ही चार तत्व जगत के उपदान कारण है अर्थात यह जगत इन्हीं प्रत्यक्ष-भूतों से निर्मित एवं विकसित है। इन्हीं निर्जीव तत्वों पर आश्रित होने के कारण, जगत का स्वरूप भौतिक है। इसलिए चार्वाक दर्शन भौतिकवादी है। भारतीय दर्शन में पंच महाभूत- पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश को स्वीकार किया गया है। चार्वाक आकाश तत्व को इसलिए स्वीकार नहीं करता क्योंकि आकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता। आकाश का ज्ञान अनुमान के द्वारा सिद्ध किया जाता है जो चार्वाक को मान्य नहीं है। अतः आकाश तत्व का अस्तित्व संदिग्ध है।

चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप  

    चार्वाक यह मानते है कि जड़-तत्वों से केवल निर्जीव पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हुई है, अपितु आत्मादि सजीव द्रव्य भी इन्हीं से उत्पन्न हुये है। भारतीय दर्शन में आत्मा को एक नित्य द्रव्य, अमर, चैतन्य आदि माना गया है। किन्तु वे उसे नहीं मानते। किसी स्थायी आत्मा या चैतन्य का अस्तित्व नहीं है, और न ही चैतन्य किसी अभौतिक तत्व अर्थात आत्मा का गुण है। नित्य आत्मा का कोई प्रत्यक्ष नहीं होता। अतः उसका कोई अस्तित्व नहीं है। चार्वाक मत में चैतन्य की उस सत्ता को माना गया है जो जड़-तत्वों के संयोग से उत्पन्न होता है। चैतन्य और देह का मिश्रण ही प्राणियों का आधार है। जड़-तत्वों से बनी देह का ही प्रत्यक्ष होता है। चैतन्य देह के अन्तर्गत है। इसलिए चैतन्य को देह का ही गुण मानना चाहिए। चैतन्य देह को ही आत्मा कहना उचित होगा अर्थात ‘चैतन्यविशिष्टों देहः एवं आत्मा’। यह देह पृथ्वी, जल, तेज और वायु का संघात है, और इन्हीं के मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न होता है। चैतन्य (आत्मा) शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर से भिन्न आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। अतः अभौतिक अमर-नित्य आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। मृत्यु के पश्चात शरीर के नष्ट हो जाने से चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। यही जीवन का अन्त है। 

चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप 

    चार्वाक मत नित्य आत्मा के समान, ईश्वर के अस्तित्व को भी नहीं मानता, क्योंकि ईश्वर का कोई प्रत्यक्ष नहीं होता। स्पष्टतः चार्वाक अनीश्वरवादी है। चूंकि ईश्वर का प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए प्रत्यक्षवादी चार्वाक ईश्वर की सत्ता अस्वीकार करते है। ईश्वर जगत का सृष्टा नहीं है। जड़-तत्वों के सम्मिश्रण से संसार की उत्पत्ति हुई है अर्थात चार्वाक के मतानुसार, जड़-तत्वों का स्वयं अपना-अपना स्वभाव है। अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल वे संयुक्त होते है और उनके स्वतः सम्मिश्रण से जगत की उत्पत्ति होती है। इसलिए चार्वाक मत ‘स्वभाववाद’ कहलाता है जिसके अनुसार जगत की उत्पत्ति के लिए, किसी ईश्वर अथवा सर्वशक्तिमान स्रष्टा की अवश्यकता नहीं है।

चार्वाक दर्शन कर्म एवं पुनर्जन्म 

    वेद, उपनिषद, गीता-दर्शनों में कर्म-सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गई है। जिसके अनुसार प्राणी जैसा कर्म करता है वैसा ही फल प्राप्त करता है अर्थात प्रत्येक मानव प्राणी को शुभ-कर्मों का फल सुख और अशुभ-कर्मों का फल दुःख के रूप में मिलता है। कभी-कभी फल संचित होता रहता है जो कालान्तर में फलदायक होता है। लेकिन चार्वाक मत प्रत्यक्षवादी एवं अपरलोकवादी होने के कारण ऐसे इंद्रियातीत कर्म-सिद्धान्त को नहीं मानता। वह कर्मफल को स्वीकारता है, पर वह इसी वर्तमान जीवन का व्यापार है, क्योंकि भविष्य-जीवन नहीं होता। मृत्यु समस्त कर्मों का अन्त है।

चार्वाकों द्वारा धर्म तथा मोक्ष का निराकरण

    वैदिक परंपरा में चार पुरुषार्थ –अर्थ, काम, धर्म एवं मोक्ष माने गए है। चार्वाक धर्म और मोक्ष को नहीं मानता, क्योंकि जगत में धर्म नाम की कोई चीज नहीं है। संसार में न धर्म है, न पुण्य है और न पाप है। चार्वाक के अनुसार, वर्तमान सुखों को त्याग कर परलौकिक सुख की आशा करना नितान्त मूर्खता है। धार्मिक कृत्यों को पुरोहित-वर्ग ने स्थापित किया है ताकि पाखण्डियों के स्वार्थों की सिद्धि होती रहे। चार्वाक का कहना है यदि धार्मिक अनुष्ठान तथा यज्ञ में की गई पशुबलि से स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव है तो यज्ञमान अपने माता-पिता की बलि क्यों नहीं दे देता ताकि वह स्वर्ग जा सके। इसलिए स्वर्ग-नरग अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए, वैदिक क्रिया-कर्म व्यर्थ है। स्वर्ग पाने के लिए, और नरग से बचने के लिए, अथवा प्रेतात्माओं की तृप्ति के लिए वैदिक यज्ञ, बलि, श्राद्ध आदि किए जाते है। चार्वाक इन विचारों को नहीं मानते। चार्वाक के अनुसार, दुःखो से मुक्ति पाना सम्भव नहीं है, क्योंकि जब तक देह है, तब तक दुःखों का होना स्वाभाविक है। यह जीवन सुख-दुःख का संगम है। दुःख को कम किया जा सकता है, और सुखों की वृद्धि की जा सकती है। चूंकि चार्वाक धर्म-मोक्ष को जीवन का लक्ष्य नहीं मानते, इसलिए वे केवाल अर्थ-काम को ही जीवन का परम लक्ष्य स्वीकार करते है। बुद्धिमान व्यक्तियों को अर्थ और काम के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए, क्योंकि वे ही सुख वृद्धि के लिए आवश्यक है। इन दोनों में भी केवल काम ही परम लक्ष्य है, क्योंकि अन्तिम लक्ष्य अर्थ नहीं हो सकता, वह तो केवल काम का साधन मात्र है। इस प्रकार चार्वाक स्वर्ग-नरक, धर्म-मोक्ष, पाप-पुण्य, धर्माधर्म, परलोकादि को नहीं मानता।

    चार्वाक जीवन का परम उद्देश्य सुख को ही स्वीकार करता है। इसलिए इसके मत को सुखवादी कहा जाता है। शुभ जीवन वहीं है जिसमें अधिकतम सुख मिले। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को वही कर्म करना चाहिए जिससे अधिकतम सुख की प्राप्ति हो। चूंकि व्यक्ति का अस्तित्व इसी जीवन एवं काल तक ही सीमित है, अतः इसे वर्तमान जीवन में अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, साथ ही साथ वही मनुष्य का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए।

चार्वाक दर्शन की ज्ञान मीमांसा

    चार्वाक दर्शन के अनुसार, यथार्थ ज्ञान का स्वरूप मात्र प्रत्यक्षात्मक या साक्षात प्रतीति है। फलतः इसका साधन या प्रमाण एकमात्र प्रत्यक्ष है। चार्वाक प्रत्यक्ष ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान का साधन मानता है। चार्वाकों ने इंद्रियों के द्वारा प्रत्यक्षीकृत जगत को ही सत्य माना है और उससे भिन्न पदार्थों को असत् कहा है। जैसे त्वगिन्द्रियों के द्वारा कोमल, कठोर, गर्म या ठण्डा या समशीतोषण आदि भावों का बोध होता है। रसनेन्द्रियों अर्थात जीभ से कटु अर्थात कड़वा, कषाय अर्थात कसैला, अम्ल अर्थात खट्टा, एवं मधुरादि रसों का ग्रहण होता है। इसी तरह घ्राणेंद्रियों अर्थात नाक से सुगन्ध और दुर्गन्ध का बोध होता है। चक्षुरिंद्रियों अर्थात आँखों से धरती, आकाश, मनुष्य, पशु, जड़-चेतन, नदी, पहाड़ आदि के ज्ञान हमें प्राप्त होते है। श्रोत्रेंद्रियों अर्थात कानों से गीत, नाद, प्रिय-अप्रिय ध्वनि का बोध होता है। यही पाँच प्रकार की अनुभूत वस्तुएं चार्वकों की दृष्टि में प्रमाणभूत मानी जाती है। इनकी दृष्टि में अनछुए, अनचखे, अनसुने, अनदेखे और अनसूंघे पदार्थों की सत्ता किसी भी प्रकार से मान्य नहीं है।

चार्वाक दर्शन में अनुमान की प्रामाणिकता

    न्याय, वैशेषिक, मीमांसा-प्रभृति वैदिक दर्शन तथा जैन एवं बौद्ध आदि अवैदिक दर्शन अनुमान की प्रामाणिकता मानते है। प्रत्यक्ष के द्वारा समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती और न समस्त लोकव्यवहार की उत्पत्ति ही सिद्ध हो सकती है। अगत्या इन दर्शनिकों को अनुमान को भी प्रमाण के रूप में मानना ही पड़ता है। किन्तु चार्वाक किसी भी स्थिति में अनुमान को प्रमाण के रूप में मानने को तैयार नहीं है- ‘नानुमानं प्रमाणम्’ (बार्हस्पत्यसूत्र)। इस विषय में चार्वाकों की तर्क-प्रणाली बड़ी ही स्फीत, चुटीली और मर्मस्पर्शिनी है। उनका कहना है कि असंदिग्ध व्याप्तिज्ञान में ही निश्चयात्मक ज्ञान की सम्भावना बनती है, किन्तु किसी भी व्याप्ति का निश्चयात्मक ज्ञान न तो प्रत्यक्ष से हो सकता है, न अनुमान से, न शब्द से और न ही उपमान से।

    अनुमान का आधार व्याप्ति-ज्ञान माना गया है। व्याप्ति किसी पदार्थ के साहचर्य या स्वाभाविक सम्बन्ध को कहा जाता है। धूम और अग्नि में साहचर्य या स्वाभाविक सम्बन्ध है। जैसे- इस पहाड़ में आग लगी है- ‘पर्वतों अयं वह्वीमान’, क्योंकि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ आग होती है-‘यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्विः’। इस तर्क से यह सिद्ध होता है कि साहचर्य या स्वाभाविक सम्बन्ध इस तर्क का आधार है। पर यहाँ धूम एवं आग में स्वाभाविक सहचार की मात्र कल्पना है, किन्तु ऐसी कल्पना का स्वरूप एक जैसा नहीं होता, जो आज है, कल भी वैसा था या भविष्य में भी वैसा ही रहेगा- यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

    सामान्य के आधार पर भी व्याप्ति-ज्ञान सम्भव नहीं है, क्योंकि दो व्यक्तियों के बीच अविनाभाव या साहचर्य सम्बन्ध नहीं होता, क्योंकि यह निश्चित नहीं है कि जाति में व्याप्त सभी गुण व्यक्ति में भी हो। इसी तरह आभ्यंतर प्रत्यक्ष से भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि अन्तःकरण बाह्य इंद्रियों पर आधारित है। अतः बाह्य वस्तुओं पर इसकी स्वतंत्र प्रकृति नहीं हो सकती।

चार्वाक दर्शन का स्वभाववाद

    स्वभाव का अभाव तो कहीं नहीं दिखता। अतः सर्वत्र सर्वदा रहने वाले स्वाभाविक सम्बन्ध को त्रेकालिक सम्बन्ध चार्वाक मानते है। लेकिन हम यदि किन्हीं दो वस्तुओं के स्वाभाविक साहचर्य को भूत और वर्तमान में मान भी ले तो भविष्य में नहीं मान सकते, क्योंकि भविष्य का ज्ञान हमें वर्तमान में नहीं हो सकता। अतः त्रेकालिक होने के आधार पर कोई सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं स्वीकार किया जा सकता। भूतकाल में हमने जहाँ तक देखा है, तथा वर्तमान काल में हम जो देख रहें है, इसी आधार पर ही हम कुछ कह सकते है, किन्तु इसी भूत और वर्तमान के आधार पर भविष्य की निश्चयात्मक व्याख्या तो हम नहीं कर सकते। भविष्य में स्वरूप-परिवर्तन या घटना-क्रम का बदलाव स्वाभाविक होता है। अतः जब भविष्य अनिश्चित है तो दोनों में स्वाभाविक सम्बन्ध की मात्र कोरी कल्पना ही है। इसी तरह जगत की उत्पत्ति और विनष्टि का कारण भी चार्वाक उनके स्वभाव को ही मानते है। इस सन्दर्भ में चार्वकों की मान्यता है कि आग का गर्म होना, पानी का ठण्डा होना, हवा का शीतल बहाना तो उनका स्वभाव ही है। सुखी मनुष्य को देखकर धर्म की कल्पना तथा दुःखी मनुष्य को देखकर अधर्म की कल्पना औचित्य की परिधि से बाहर है। यहाँ मनुष्य के सुख का कारण न तो धर्म है और न ही दुःख का कारण अधर्म है। मनुष्य स्वभाव से ही सुखी अथवा स्वभाव से ही दुःखी होता है। चार्वाक का यह सिद्धान्त दार्शनिकों के बीच स्वभाववाद के नाम से ख्यात है।

चार्वाक दर्शन में कार्य-कारण नियम

    कुछ दार्शनिक कार्य-कारण नियम को ‘क्षित्युंकुरादि-कतृजन्यं कार्यत्वात्’ के आधार पर व्याप्ति सिद्ध करते है तथा व्याप्ति के आधार पर अनुमान करते है कि कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता और कारण बिना कार्य का फल भी नहीं होता। इस तरह कारण-कार्य का सम्बन्ध नियत या अनिवार्य है, किन्तु चार्वाक को कारण-कार्य का सिद्धान्त मान्य नहीं है। उनकी दृष्टि में कारण-कार्य का सम्बन्ध अनियत और आकस्मिक है, क्योंकि बिना कारण के भी कहीं कार्य होता है, और कारण रहने पर भी कार्य नहीं होता। फलतः कार्य-कारणभाव के लिए उपाधियों का होना भी आवश्यक शर्त है। किसी भी कार्य की उत्पत्ति के सभी समय सभी उपाधियों का प्रत्यक्ष दर्शन असम्भव है, अतः उनके बिना कार्य-कारण भी नहीं हो सकता। इस तरह कार्य-कारणभाव सम्बन्ध को या इस आधार पर अनुमान प्रमाण की सिद्धि नहीं होती। इस परिस्थिति में चार्वाक का कहना है कि यह तो मणि, मन्त्र और औषधि की तरह अनियत और आकस्मिक है, अनिवार्य नहीं। कभी-कभार अचानक मणि की प्राप्ति हो जाती है, मन्त्र भी निष्फल हो जाते है एवं औषधि-सेवन भी कुछ रोगियों को रोगमुक्त करने में विफल हो जाता है। इन उदाहरणों में केवल सम्भावना दीख पड़ती है और सम्भावना जहाँ है वहाँ अनिवार्य नहीं है। यही कारण है कि चार्वाक कार्य-कारणभाव को मानने के लिए तैयार नहीं है। ऐसी स्थिति में वे अहेतुक वस्तु के सदभाव अर्थात अकस्मातभूति को अंगीकार करते है। इन्हीं कारणों से बाध्य होकर चार्वाक लोक अनुमान को प्रमाण नहीं मानते है। साथ ही शब्द प्रमाण को भी स्वीकार नहीं करते है।

चार्वाक दर्शन में शब्द प्रमाण की अमान्यता

    भारतीय दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए शब्द को दार्शनिकों ने तीसरा प्रमाण कहा है, किन्तु चार्वाक ने इसे स्वतंत्र प्रमाण मानने से इन्कार कर दिया है। उनका मानना है कि शब्द प्रमाण से भी व्याप्ति की सिद्धि नहीं की जा सकती, क्योंकि कुछ वैशेषिकों ने इसे अनुमान में ही अन्तर्भूत कर दिया है। न तो शब्द प्रमाण से व्याप्ति सम्भव है और न ही उपमान के द्वारा यह उपलब्ध है। चार्वाक के अनुसार, शब्द स्वतंत्र प्रमाण नहीं है। शब्द से अर्थ का अनुमान ही होता है। जब अनुमान ही प्रामाणिक नहीं तो शब्द भी अप्रामाणिक ही है। चार्वाक शब्द को अप्रामाणिक सिद्ध करने के लिए कई सशक्त तर्क उपस्थित करते है। उनका कहना है कि न्यायशास्त्र के अनुसार, ‘तसमाद प्रमाणम् शब्दःअनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः’ इतना ही नहीं शब्द को परिभाषित करते हुये लिखा है-‘आप्तोपदेशः शब्द’। आप्त पुरुष कौन है? धर्म का साक्षात्कार करने वाले परम पूज्य पुरुष तो कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते। अगर इनकी सत्ता स्वीकार भी करे तो लोककल्याणकारी वचन दुर्लभ हो जाते है। यही कारण है कि वेदों की प्रामाणिकता भी चार्वाकों को अमान्य है। वेद वाक्यों में परस्पर विरोध से, अनर्थक शब्दों के प्रयोग से, अप्रत्यक्ष पदार्थों की कल्पना से प्रमाणग्राह्यता नहीं है। अश्वमेघ यज्ञ में गर्हित कार्य-कलाप के वर्णन करने से, जर्फरी-तुर्फरी जैसे अनर्थक शब्दों के प्रयोग से, यज्ञों में पशुबलि विधान से, मांसभक्षण जैसे अप्रासंगिक प्रथा से यह प्रतीत होता है कि वेद बनाने वाले भण्ड, धूर्त या निश्चय ही निशाचर थे। वेदों की जितनी निन्दा, कुत्सा या गर्हित आलोचना चार्वाकों ने की है, उतना शायद ही किसी ने किया हो।

    वैदिक मंत्रों में मुख्यतः तीन दोषों की परिगणना इन्होंने कि- अनृत, व्याघात और पुरुक्ति (तसमाद प्रमाणम् शब्दःअनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः)। कुछ वैदिक मन्त्र झूठे एवं काल्पनिक स्वर्ग-नरग जैसे विषयों का प्रतिपादन करते है तो कुछ मंत्रों में व्याघात-जैसे दोष है, अर्थात एक स्थान पर किसी विषय के लिए एक मन्त्र है तो ठीक उसी विषय के लिए दूसरी जगह ठीक विपरीत दूसरा मन्त्र उपलब्ध है। इसी तरह पुनरुक्त दोष-एक ही मन्त्र का कई देवताओं के लिए कई स्थानों पर प्रयोग मिलता है। इसी तरह कई मंत्रों की अनेक बार आवृति भी है।

    इसके अतिरिक्त चार्वाकों की दृष्टि में अतीन्द्रिय एवं अलौकिक विषयों को सिद्ध करना शब्द प्रमाण का सबसे बड़ा दोष है। आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, स्वर्ग-नरग, प्रभृति केवल शब्द प्रमाण से सिद्ध होता है। इसका प्रत्यक्ष ज्ञान तो हो ही नहीं सकता। जो शब्द प्रमाण को मानते है, उन्हें ही इसमें विश्वास, भय या बचाव की भावना होती है। चार्वाक शब्द प्रमाण को ही नहीं मानते तो फिर उन उक्त विषयों में विश्वास का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी तरह चार्वाक उपमानों का भी प्रामाण्य नहीं मानते, क्योंकि इससे किसी विशेष ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है।

चार्वाक दर्शन से वस्तुनिष्ठ प्रश्न 


Monday, November 20, 2023

ugc net first paper mock test

UGC NET First Paper Mock Test June 2006 

यूजीसी नेट के सभी विषयों की परीक्षा में प्रथम पेपर अनिवार्य होता है जिसमें 50 प्रश्न होते हैं और प्रत्येक प्रश्न का 2 अंक निर्धारित होता है। प्रथम प्रश्न-पत्र का पाठ्यक्रम निर्धारित है जिसमें 10 इकाई से अलग-अलग प्रश्न पूछे जाते हैं। प्रथम प्रश्न-पत्र में जिन विषयों से प्रश्न पूछे जाते हैं उनकी सूची इस प्रकार है -

इकाई 1. शिक्षण अभिवृत्ति

  • शिक्षण: अवधारणाएँ, उद्देश्य, शिक्षण का स्तर ( स्मरण शक्ति, समझ और विचारात्मक ), विशेषताएँ और मूल अपेक्षाएं।
  • शिक्षार्थी की विशेषताएँ: किशोर और वयस्क विद्यार्थी की अपेक्षाएं (शैक्षिक, सामाजिक / भावनात्मक और संज्ञानात्मक, व्यक्तिगत भिन्नताएँ)।
  • शिक्षण प्रभावक तत्व: शिक्षक, सहायक सामग्री, संस्थागत सुविधाएँ, शैक्षिक वातावरण।
  • उच्च अधिगम संस्थाओं में शिक्षण की पद्धतिः अध्यापक केन्द्रित बनाम शिक्षार्थी केन्द्रित पद्धति, ऑफ लाइन बनाम ऑन-लाइन पद्धतियाँ (स्वयं, स्वयंप्रभा मूक्स इत्यादि)।
  • शिक्षण सहायक प्रणाली: परम्परागत आधुनिक और आई.सी.टी. आधारित।
  • मूल्यांकन प्रणालियाँ मूल्यांकन के तत्व और प्रकार, उच्च शिक्षा में विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली में मूल्यांकन, कम्प्यूटर आधारित परीक्षा, मूल्यांकन पद्धतियों में नवाचार। 

इकाई 2. शोध अभिवृत्ति

  • शोध: अर्थ, प्रकार और विशेषताएँ, प्रत्यक्षवाद एवं उत्तर- प्रत्यक्षवाद शोध के उपागम। 
  • शोध पद्धतियां प्रयोगात्मक विवरणात्मक, ऐतिहासिक, गुणात्मक एवं मात्रात्मक।
  • शोध के चरण। 
  • शोध प्रबन्ध एवं आलेख लेखन: फॉर्मेट और संदर्भ की शैली।  
  • शोध में ICT का अनुप्रयोग। 
  • शोध नैतिकता।

इकाई 3. बोध

  • एक गद्यांश दिया जाएगा, उस गद्यांश से पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देना होगा।

इकाई 4. संप्रेषण

  • संप्रेषणः संप्रेषण का अर्थ, प्रकार और अभिलक्षण। 
  • प्रभावी संप्रेषणः वाचिक एवं गैर-वाचिक, अन्तः सांस्कृतिक एवं सामूहिक संप्रेषण, कक्षा-संप्रेषण। 
  • प्रभावी संप्रेषण की बाधाएं। 
  • जन-मीडिया एवं समाज। 

इकाई 5. गणितीय तर्क और अभिवृत्ति

  • तर्क के प्रकार। 
  • संख्या श्रेणी अक्षर श्रृंखला, कूट और सम्बन्ध। 
  • गणितीय अभिवृत्ति ( भिन्न, समय और दूरी, अनुपात -समानुपात प्रतिशतता लाभ और हानि, ब्याज या छूट, औसत आदि)। 

इकाई 6. युक्तियुक्त तर्क

  • युक्ति के ढांचे का बोधः युक्ति के रूप, निरूपाधिक तर्कवाक्य का ढाँचा, अवस्था और आकृति, औपचारिक एवं अनौपचारिक युक्ति दोष, भाषा का प्रयोग, शब्दों का लक्ष्यार्थ और वस्त्वर्थ, विरोध का परंपरागत वर्ग।
  • युक्ति के प्रकार निगमनात्मक और आगमनात्मक युक्ति का मूल्यांकन और विशिष्टीकरण।
  • अनुरूपताएँ।
  • वेन आरेख तर्क की वैधता सुनिश्चित करने के लिए वेन आरेख का सरल और बहुप्रयोग। 
  • भारतीय तर्कशास्त्र ज्ञान के साधन। 
  • प्रमाण प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि।
  • अनुमान की संरचना, प्रकार, व्याप्ति हेत्वाभास।

इकाई 7. आंकड़ों की व्याख्या

  • आंकड़ों का स्रोत प्राप्ति और वर्गीकरण।
  • गुणात्मक एवं मात्रात्मक आंकड़े।
  • चित्रवत वर्णन (बार-चार्ट, हिस्टोग्राम, पाई चार्ट, टेबल चार्ट और रेखा चार्ट) और आंकड़ों का मानचित्रण।
  • आंकड़ों की व्याख्या।
  • आंकड़े और सुशासन।

इकाई 8. सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आई.सी.टी.)

  • आई. सी. टी. सामान्य संक्षिप्तियाँ और शब्दावली।
  • इंटरनेट, इन्ट्रानेट, ई-मेल, श्रव्य दृश्य कॉन्फ्रेन्सिंग की मूलभूत बातें।
  • उच्च शिक्षा में डिजिटल पहले।
  • आई.सी.टी. और सुशासन।

इकाई 9 लोग, विकास और पर्यावरण

  • विकास और पर्यावरण: मिलेनियम विकास और संपोषणीय विकास का लक्ष्य।
  • मानव और पर्यावरण संव्यवहारः नृजातीय क्रियाकलाप और पर्यावरण पर उनका प्रभाव।
  • पर्यावरणपरक मुद्दे: स्थानीय क्षेत्रीय और वैश्विक वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, अपशिष्ट (ठोस, तरल, बायो मेडिकल, जोखिमपूर्ण, इलैक्ट्रॉनिक) जलवायु परिवर्तन और इसके सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक आयाम।
  • मानव स्वास्थ्य पर प्रदूषकों का प्रभाव।
  • प्राकृतिक और ऊर्जा के स्रोत, सौर, पवन, मृदा, जल, ताप, बायो-मास, नाभिकी और वन।
  • प्राकृतिक जोखिम और आपदाएं: न्यूनीकरण की युक्तियां।
  • पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (1986), जलवायु परिवर्तन संबंधी राष्ट्रीय कार्य योजना, अंतर्राष्ट्रीय समझौते / प्रयास।
  • मॉण्ट्रियल प्रोटोकॉल, रियो सम्मेलन, जैव-विविधता सम्मेलन क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौता, अंतर्राष्ट्रीय सौर संधि।

इकाई 10. उच्च शिक्षा प्रणाली

  • उच्च अधिगम संस्थाएं और प्राचीन भारत में शिक्षा।
  • स्वतंत्रता के बाद भारत में उच्च अधिगम और शोध का उद्भव।
  • भारत में प्राच्य पारंपरिक और गैर-पारंपरिक अधिगम कार्यक्रम।
  • व्यावसायिक / तकनीकी और कौशल आधारित शिक्षा।
  • मूल्य शिक्षा और पर्यावरणपरक शिक्षा।
  • नीतियां, सुशासन, राजनीति और प्रशासन।

यू जी सी नेट / जेआरएफ परीक्षा, जून -2006


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वेद एवं उपनिषद् के बारे में प्रत्येक भारतीय को इतना तो जानना ही चाहिए

वैदिक एवं उपनिषदिक विश्व दृष्टि 

    दार्शनिक विचारों के स्रोत के रूप में प्राचीनतम भारतीय ग्रन्थ वेद है, जिसके अन्तर्गत संहिता, ब्रह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद सभी सम्मिलित है। वेद के दो भाग है- मन्त्र एवं ब्रह्मण। ब्रह्मण ग्रन्थों के भाग को आरण्यक और आरण्यक के अन्तिम भाग को उपनिषद कहा जाता है। ब्रह्मणों में यज्ञ आदि के अनुष्ठान का और आरण्यक एवं उपनिषदों में आध्यात्म विद्या का वर्णन मिलता है।  वैदिक विश्व दृष्टि को चार चरणों में विभक्त किया गया है- 
  1. संहिता, 
  2. ब्रह्मण, 
  3. आरण्यक तथा 
  4. उपनिषद। 
  5. संहिता 
शब्द की चार अवस्थाएं है- 
  1. परावाक्, 
  2. पश्यन्तीवाक्, 
  3. मध्यमावाक् और 
  4. वैखरीवाक्। 
    सबसे सूक्ष्म अवस्था परावाक् है, जिसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है। उससे स्थूल अवस्था पश्यन्ती है, इस स्वरूप में शब्द की प्रथम अभिव्यक्ति होती है। वेद का प्रकाशन इसी अवस्था में ऋषियों के अंतःकरण में हुआ। इसलिए पश्यन्तीवाक् को वेद कहा जाता है। वेद वाक्यों की स्तुति अवस्था को मध्यमावाक् अथवा श्रुति कहते है। शब्द की सबसे स्थूल अवस्था 'वैखरीवाक्' है, जिसमें मनुष्य लोग बोलते है। वैखरी अवस्था में वेद-वाक्यों की शक्ति सुप्त अवस्था में रहती है, जिसको बार-बार वेद-मन्त्रों के पाठ से जाग्रत किया जा सकता है। 
    वेद-मन्त्रों के देवताओं की स्तुति पाठ के आधार पर महर्षि वेदव्यास ने वेद मन्त्रों का पृथक-पृथक संकलन किया, जिन्हें संहिता कहते है। वेद-मन्त्रों की चार संहिताएं है- 
  1. ऋग्वेद संहिता, 
  2. यजुर्वेद संहिता, 
  3. सामवेद संहिता एवं 
  4. अथर्ववेद संहिता। 

ऋग्वेद संहिता 

  • यह ऋचाओं का वेद है। 'ऋचा' का अर्थ- 'स्तुति वर्णन' है। 
  • देवताओं के गुणों का गुणगान करना स्तुति कहलाता है। 
  • वैदिक ऋषियों ने जिस भौतिक विषय में जो शक्ति या गुण पाए, उन्हें मन्त्रों में व्याप्त हुआ बतलाया है। 
  • इस जगत में अनेक देवता विविध शक्तियों के रूप में है, जिसकी स्तुति मन्त्रों द्वारा ही सम्भव है। 
  • ऋग्वेद विज्ञान का ग्रन्थ है। सृष्टि रचना एवं परिचालन करने वाली शक्तियों और उनकी सत्ता का विज्ञान ऋग्वेद में मिलता है। 

ऋग्वेद का विस्तार 

  • 10 मण्डल, 1028 सूक्त तथा 10462 मन्त्र 

ऋग्वेद का पाठ 

ऋग्वेद में तीन पाठ मिलते है- 
  1. साकल, 
  2. बालखिल्य एवं 
  3. वाष्कल। 
ऋग्वेद के मन्त्रों का विधिपूर्वक उच्चारण करने वाले को “होता” कहते है। 

ऋग्वेद मन्त्रों की स्त्रियाँ रचयिता 

वेद मन्त्रों की स्त्री रचयिता ने नाम है- 
  • लोपमुद्रा, 
  • अपाला, 
  • घोषा एवं 
  • गार्गी। 

ऋग्वेद में गायत्री मन्त्र 

  • ऋग्वेद में गायत्री मन्त्र तृतीय मण्डल में है, इस मण्डल में कुल 62 सूक्त है जो इंद्रदेव एवं अग्निदेव को समर्पित है। इसकी रचना महर्षि विश्वामित्र ने की है। 

ऋग्वेद के प्रमुख मण्डल एवं उनके रचयिता 

ऋग्वेद के प्रमुख मण्डल

रचयिता

द्वितीय मण्डल

ग्रस्तमद ऋषि

तृतीय मण्डल

विश्वामित्र ऋषि

चतुर्थ मण्डल

वामदेव ऋषि

पंचम मण्डल

अत्रि ऋषि

षष्टम् मण्डल

भारद्वाज ऋषि

सप्तम मण्डल

वशिष्ठ ऋषि

अष्टम मण्डल

कण्व ऋषि

  • ऋग्वेद का प्रथम और दशम् मण्डल क्षेपक माना जाता है। 
  • ऋग्वेद में वर्णित देवता 
  • ऋक् संहिता के अनुसार, 33 देवता है, जिनमें मुख्य अग्नि एवं इन्द्र को माना गया है। इन्द्र को सबसे शक्तिशाली देवता माना गया है।    

यजुर्वेद संहिता 

  • यजर्वेद में अनुष्ठानों तथा कर्मकाण्डों में प्रयुक्त होने वाले मन्त्रों का संग्रह है। यजुर्वेद गद्य एवं पद्य दोनों में लिखा है। 
  • समस्त सृष्टि-क्रम  को यज्ञ के रूप में एकात्मभाव से माना गया है। इस ग्रन्थ के दो मुख्य रूप है- कृष्ण यजुर्वेद एवं शुक्ल यजुर्वेद। 
  • शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेयी संहिता भी कहलाता है। 
  • यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय “ईशोंपनिषद” कहलाता है, जो कि अध्यात्म चिन्तन का उपनिषद है। 
  • शुक्ल यजुर्वेद का ब्रह्मण ग्रन्थ 'शतपथ" तथा कृष्ण यजुर्वेद का ब्रह्मण 'तैत्तिरीय' है। 
  • यजुर्वेद के मन्त्रों का विधिवत गान करने वाले पुरोहित को “अध्वर्यू” कहा जाता है। 

यजुर्वेद का विस्तार 

  • 40 अध्याय एवं 1975 मन्त्र 

यजुर्वेद में वर्णित प्रमुख यज्ञ 

  • अग्निहोत्र 
  • अश्वमेघ 
  • वाजपेय 
  • सोमयज्ञ 
  • राजसूय 
  • अग्निचयन 

यजुर्वेद की प्रमुख शाखाएं 

  • काठक 
  • कपिष्ठल 
  • मैत्रियाणी 
  • तैत्तिरीय 
  • वाजसनेयी 

सामवेद संहिता 

  • सामवेद में देवताओं की स्तुति में गए जाने वाले मन्त्रों का संग्रह है। 
  • यह वेद संगीत से सम्बन्धित है, इसलिए इस वेद को भारतीय संगीत का जनक भी कहा जाता है। 
  • सामवेद का उपवेद ‘गन्धर्ववेद’ है। 
  • सामवेद के ब्राह्मण है- पंचविश, षड्विश, जैमिनीय तथा छान्दोग्य। 
  • सामवेद के मन्त्रों का विधिवत गान करने वाला पुरोहित “उद्गाता” कहलाता है। 

सामवेद का विस्तार 

  • 6 आरचिक, 6 अध्याय, 1875 मन्त्र 
* ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद को 'वेदत्रयी' भी कहते है। 

अथर्ववेद संहिता

  • इस वेद को 'ज्ञान-वेद' कहा जाता है, क्योंकि ऋग्वेद के गुण-वर्णन, यजुर्वेद के यज्ञ-विधान और सामवेद की उपासना के अतिरिक्त जो ज्ञान विषयक शेष रह जाता है उसका संकलन अथर्ववेद में मिलता है।     
  • अथर्ववेद में जादू-टोना, मन्त्र-तन्त्र आदि का संग्रह माना जाता है। 
  • विभिन्न प्रकार की औषधियों का ज्ञान भी इस ग्रन्थ में मिलता है। 
  • अथर्ववेद को ‘ब्रह्मवेद’ भी कहा जाता है, क्योंकि इस वेद में ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन है। 
  • अथर्ववेद का उपवेद ‘शिल्पवेद’ है । 
  • अथर्ववेद का ब्राह्मण ‘गोपथ’ है। 
  • अथर्ववेद के उपनिषद- मुण्डक, प्रश्न तथा माण्डूक्य है।  

अथर्ववेद का विस्तार 

  • 20 काण्ड, 731 सूक्त एवं 5977 मन्त्र 

ब्रह्मण ग्रन्थ 

  • यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भाँति समझने के लिए ब्रह्मण ग्रन्थों की रचना की गई। 
  • ब्रह्मण ग्रन्थों में गद्य रूप में देवताओं की तथा यज्ञ की रहस्यमय व्याख्या की गई है। 
  • हर एक वेद का एक या एक से अधिक ब्रह्मण ग्रन्थ है। 

ब्रह्मण ग्रन्थों का विस्तार 

ऋग्वेद :

  • ऐतरेयब्राह्मण-(शैशिरीयशाकलशाखा)
  • कौषीतकि-(या शांखायन) ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)

सामवेद :

  • प्रौढ(या पंचविंश) ब्राह्मण
  • षडविंश ब्राह्मण
  • आर्षेय ब्राह्मण
  • मन्त्र (या छान्दिग्य) ब्राह्मण
  • जैमिनीय (या तावलकर) ब्राह्मण

यजुर्वेद

  • शुक्ल यजुर्वेद :
  • शतपथब्राह्मण-(माध्यन्दिनीय वाजसनेयि शाखा)
  • शतपथब्राह्मण-(काण्व वाजसनेयि शाखा)
  • कृष्णयजुर्वेद :
  • तैत्तिरीयब्राह्मण
  • मैत्रायणीब्राह्मण
  • कठब्राह्मण
  • कपिष्ठलब्राह्मण

अथर्ववेद :

  • गोपथब्राह्मण (पिप्पलाद शाखा)

ब्रह्मण ग्रन्थों के मुख्य वचन 

  • विद्वासों हि देवा - शतपथ ब्राह्मण के इस वचन का अर्थ है, विद्वान ही देवता होते हैं।
  • यज्ञः वै विष्णु - यज्ञ ही विष्णु है।
  • अश्वं वै वीर्यम् - अश्व वीर्य, शौर्य या बल को कहते हैं।
  • राष्ट्रम् अश्वमेधः - तैत्तिरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण के इन वचनों का अर्थ है - लोगों को एक करना ही अशवमेध है।
  • अग्नि वाक, इंद्रः मनः, बृहस्पति चक्षु .. (गोपथ ब्राह्मण)। - अग्नि वाणी, इंद्र मन, बृहस्पति आँख, विष्णु कान हैं।

आरण्यक 

  • आरण्यक हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च ग्रन्थ वेदों का गद्य वाला खण्ड है। ये वैदिक वाङ्मय का तीसरा हिस्सा है और वैदिक संहिताओं पर दिये भाष्य का दूसरा स्तर है। 
  • इनमें दर्शन और ज्ञान की बातें लिखी हुई हैं, कर्मकाण्ड के बारे में ये चुप हैं। इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। 
  • वेद, मंत्र तथा ब्राह्मण का सम्मिलित अभिधान है। 
  • ब्राह्मण के तीन भागों में आरण्यक अन्यतम भाग है।
  • सायण के अनुसार इस नामकरण का कारण यह है कि इन ग्रंथों का अध्ययन अरण्य (जंगल) में किया जाता था। 
  • आरण्यक का मुख्य विषय यज्ञभागों का अनुष्ठान न होकर तदंतर्गत अनुष्ठानों की आध्यात्मिक मीमांसा है। 
  • वस्तुत: यज्ञ का अनुष्ठान एक नितांत रहस्यपूर्ण प्रतीकात्मक व्यापार है और इस प्रतीक का पूरा विवरण आरण्यक ग्रंथो में दिया गया है। प्राणविद्या की महिमा का भी प्रतिपादन इन ग्रंथों में विशेष रूप से किया गया है। 
  • संहिता के मंत्रों में इस विद्या का बीज अवश्य उपलब्ध होता है, परंतु आरण्यकों में इसी को पल्लवित किया गया है। 
  • तथ्य यह है कि उपनिषद् आरण्यक में संकेतित तथ्यों की विशद व्याख्या करती हैं। इस प्रकार संहिता से उपनिषदों के बीच की श्रृंखला इस साहित्य द्वारा पूर्ण की जाती है।

‘आरण्यक’ शब्द का अर्थ

    आरण्यक ग्रन्थों का आध्यात्मिक महत्त्व ब्राह्मण ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक है। ये अपने नाम के अनुसार ही अरण्य या वन से सम्बद्ध हैं। जो अरण्य में पढ़ा या पढ़ाया जाए उसे ‘आरण्यक’ कहते हैं- अरण्ये भवम् आरण्यकम्।  आरण्यक ग्रन्थों का प्रणयन प्रायः ब्राह्मणों के पश्चात् हुआ है क्योंकि इसमें दुर्बोध यज्ञ-प्रक्रियाओं को सूक्ष्म अध्यात्म से जोड़ा गया है। वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए आत्मतत्त्व और ब्रह्मविद्या के ज्ञान के लिए मुख्य रूप से इन ग्रन्थों की रचना हुई है-ऐसा माना जाता है।

आरण्यक ग्रन्थों का विवेच्य विषय

    आरण्यक ग्रन्थ वस्तुतः ब्राह्मणों के परिशिष्ट भाग हैं और उपनिषदों के पूर्वरूप। उपनिषदों में जिन आत्मविद्या, सृष्टि और तत्त्वज्ञान विषयक गम्भीर दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन है, उसका प्रारम्भ आरण्यकों में ही दिखलायी देती है। आरण्यकों में वैदिक यागों के आध्यात्मिक और दार्शनिक पक्षों का विवेचन है। इनमें प्राणविद्या का विशेष वर्णन हुआ है। कालचक्र का विशद वर्णन तैत्तिरीय आरण्यक में प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत का वर्णन भी इस आरण्यक में सर्वप्रथम मिलता है।

आरण्यक ग्रन्थों का महत्त्व

    वैदिक तत्त्वमीमांसा के इतिहास में आरण्यकों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है। इनमें यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। इनमें मुख्य रूप से आत्मविद्या और रहस्यात्मक विषयों के विवरण हैं। वन में रहकर स्वाध्याय और धार्मिक कार्यों में लगे रहने वाले वानप्रस्थ-आश्रमवासियों के लिए इन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राणविद्या की महिमा का विशेष प्रतिपादन किया गया है। प्राणविद्या के अतिरिक्त प्रतीकोपासना, ब्रह्मविद्या, आध्यात्मिकता का वर्णन करने से आरण्यकों की विशेष महत्ता है। अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों की प्रस्तुति के कारण भी आरण्यक ग्रन्थ उपोदय हैं। वस्तुतः ये ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों को जोड़ने वाली कड़ी जैसे हैं, क्योंकि इनसे उपनिषदों के प्रतिपाद्य विषय और भाषा शैली के विकास का अध्ययन करने में सहायता मिलती है।

प्रमुख आरण्यक ग्रन्थ

  1. ऐतरेय आरण्यक - इसका संबंध ऋग्वेद से है। ऐतरेय के भीतर पांच मुख्य अध्याय (आरण्यक) हैं जिनमें प्रथम तीन के रचयिता ऐतरेय, चतुर्थ के आश्वलायन तथा पंचम के शौनक माने जाते हैं। डाक्टर कीथ इसे निरुक्त की अपेक्षा अर्वाचीन मानकर इसका रचनाकाल षष्ठ शताब्दी विक्रमपूर्व मानते हैं, परंतु वस्तुत: यह निरुक्त से प्राचीनतर है। ऐतरेय के प्रथम तीन आरण्यकों के कर्ता महिदास हैं इससे उन्हें ऐतरेय ब्राह्मण का समकालीन मानना न्याय्य है।
  2. शांखायन - इसका भी संबंध ऋग्वेद से है। यह ऐतरेय आरण्यक के समान है तथा पंद्रह अध्यायों में विभक्त है जिसका एक अंश (तीसरे अ. से छठे अ. तक) कौषीतकि उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है।
  3. तैत्तिरीय आरण्यक - दस परिच्छेदों (प्रपाठकों) में विभक्त है, जिन्हें "अरण" कहते हैं। इनमें सप्तम, अष्टम तथा नवम प्रपाठक मिलकर "तैत्तिरीय उपनिषद" कहलाते हैं।
  4. बृहदारण्यक - वस्तुत: शुक्ल युजर्वेद का एक आरण्यक ही है, परंतु आध्यात्मिक तथ्यों की प्रचुरता के कारण यह उपनिषदों में गिना जाता है।
  5. तवलकार (आरण्यक) - सामवेद से संबद्ध एक ही आरण्यक है। जिसमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में कई अनुवाक। चतुर्थ अध्याय के दशम अनुवाक में प्रख्यात तवलकार (या केन) उपनिषद् है।

आरण्यक ग्रन्थों का विभाजन

हर वेद का एक या अधिक आरण्यक होता है। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यकों का वेदानुसार परिचय इस प्रकार है-

ऋग्वेद

  • ऐतरेय आरण्यक
  • कौषीतकि आरण्यक या शांखायन आरण्यक

सामवेद

  • तावलकर (या जैमिनीयोपनिषद्) आरण्यक
  • छान्दोग्य आरण्यक

यजुर्वेद

  • शुक्ल
  • वृहदारण्यक
  • कृष्ण
  • तैत्तिरीय आरण्यक
  • मैत्रायणी आरण्यक

अथर्ववेद

  • यद्यपि अथर्ववेद का पृथक् से कोई आरण्यक प्राप्त नहीं होता है, तथापि उसके गोपथ ब्राह्मण में आरण्यकों के अनुरूप बहुत सी सामग्री मिलती है।

उपनिषद् 

  • उपनिषद दार्शनिक विचारों का प्राचीनतम संग्रह है, जिनमें शुद्धतम ज्ञानपक्ष पर बल दिया गया है। उपनिषदों को भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जाता है। 
  • उपनिषदों की कुल संख्या 108 मानी गई है, किन्तु आचार्य शंकर ने केवल 10 उपनिषदों पर ही अपने भाष्य लिखे है जो कि वर्तमान में लोकप्रिय है। 
  • निम्नलिखित श्लोक में दस उपनिषद् - ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, माण्डुक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और वृहदारण्यक बताएं गए हैं - 
"ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुंड-माण्डुक्य-तित्तिरिः
ऐतरेयञ्च छान्दोग्यं वृहदारण्यकन्तथा" ।।
  • इस सूची में कौशितकी, मैत्री और श्वेताश्वेतर नाम जोड़ देने पर मुख्य उपनिषदों की संख्या तेरह हो जाती है। 
  • उपनिषद वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग है, इसलिए इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है। इन्हें आरण्यक भी कहा जाता है क्योंकि इनका मनन अरण्य अर्थात वन के एकांत वातावरण में होता था। आरण्यक का मुख्य विषय आध्यात्मिक तत्व की प्राप्ति है। उपनिषदों में आत्मज्ञान, मोक्षज्ञान और ब्रह्मज्ञान की प्रधानता होने के कारण इन्हें आत्मविद्या, मोक्षविद्या और ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है। 
  • उपनिषद उप्, नि एवं सद् के संयोग से बना है। उप् का अर्थ निकट, नि का अर्थ श्रद्धा और सद् का अर्थ बैठना है। इस प्रकार उपनिषद का तात्पर्य है- श्रद्धापूर्वक ज्ञान के लिए गुरु के पास बैठना। आचार्य शंकर उपनिषद का अर्थ 'ब्रह्मज्ञान' से लेते है। 

उपनिषदों का परिचय

  1. ईश - ईश, उपनिषद्‌ का पूरा नाम 'ईशावास्य' है। प्रथम मन्त्र के प्रारम्भ के अक्षरों को लेकर ही यह नामकरण किया गया हैँ। इसमें केवल 18 मन्त्र हैं। दर्शन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ज्ञानोपार्जन के साथ-साथ कर्म करने की भी आवश्यकता हैँ, इस विषय का प्रतिपादन 'ईश' में है। यही मत 'ज्ञान-कर्म+समुच्चय-वाद' के नाम से बाद में प्रसिद्ध हुआ है ।
  2. केन - 'कैन' उपनिषद्‌ में ब्रह्म की महिमा का वर्णन है। ब्रह्म का ज्ञान इन्द्रियों से नहीं हो सकता । ब्रह्म की शक्ति से सभी देवताओं में शक्ति आती है। ब्रह्म ही सर्वव्यापी एक मात्र तत्त्व है।
  3. कठ - 'कठ' बहुत रोचक तथा महत्त्वपूर्ण उपनिषद्‌ है। यमराज तथा नचिकेता के संवाद से आत्म-ज्ञान की महिमा, संसार के विषयों की तुच्छता, आत्मा के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए शिष्य की परीक्षा तथा अन्त में आत्म-ज्ञान का उपदेश एवं आत्मा के स्वरूप का निरूपण, ये सभी विषय बहुत ही रोचक तथा सरल मन्त्रों के द्वारा इसमें वणित है। इसके बहुत से मन्त्र 'गीता' में पाये जाते है। 
  4. प्रश्न - 'प्रश्न' उपनिषद्‌ गुरु-शिष्य-संवाद के रूप में है। सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणी, कौसल्य, वेदर्भी और कबन्धी, ये ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासु पिप्लाद ऋषि के समीप हाथ में समिधा लेकर उपस्थित होते हैं और उनसे अनेक प्रकार के प्रश्न करते हैं जो परम्परा में या साक्षात्‌ ब्रह्मज्ञान के सम्बन्ध में हैं। आचार्य सभी प्रश्नों का क्रमशः उत्तर देकर शिष्यों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते हैं।
  5. मुण्ड - 'मुण्ड' उपनिषद्‌ को 'मुण्डक' भी कहते हैं । इसके मन्त्र बहुत रोचक और सरल हैं। इसमें 'सप्रपंच ब्रह्म' का निरूपण हैं । अनेक लौकिक दृष्टान्तों के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का वर्णन इस उपनिषद में बहुत ही युक्तिपूर्ण और मनोहर है।
  6. माण्डूक्य - 'माण्डूकय' सबसे छोटा उपनिषद्‌ हैं | इसमें मनुष्य की चारों अवस्थाओं (जाग्रत्‌, स्वप्न, सुधुष्ति तथा तुरीय) का वर्णन है। समस्त जगत्‌ 'प्रणव' से ही अभिव्यक्त होता हँ । भूत, भविष्यत्‌ तथा वर्तमान सभी इसी ॐकार के रूप हैं। आत्मा के चार पाद हैं जिनके नाम 'जागरितस्थान,' 'स्वप्नस्थान,' 'सुषुप्तस्थान' तथा 'सर्वप्रपञ्चोपशमस्थान' हैं ।  प्रथम में 'प्रज्ञा' बहिर्मुखी है, दूसरे में अन्तर्मुखी तथा तीसरे में एकीभूत प्रधानघन, आनन्दमय और चेतोमुखी है। चतुर्थ का वर्णण करना असम्भव है- न अन्तर्मुखी, न बहिर्मुखी; न दोनों, न प्रधानघन, न प्रज्ञा हैं, और न ही अप्रज्ञा है। इस अवस्था में सभी शान्त है।  इसे ही शिवं, अद्वेतं आदि शब्दों के द्वारा वर्णन किया जाता है। इस 'उपनिषद्‌' का महत्त्व विशेषरूप से शंकराचार्य के परमगुरु गौडपादाचार्य के द्वारा इस पर लिखी गयी कारिकाओं के कारण है। अद्वैत वेदांत का सारांश गौडपाद ने अपनी इन कारिकाओं में बहुत हीं सुन्दर रूप में लिखा है। कतिपय विद्वानों का कहता है कि गौडपाद ने बौद्धमत से प्रभावित होकर इन कारिकाओं को लिखा है, और यही कारण है कि उनके अनुकरण करने पीछे शंकराचार्य को भी कुछ लोगों ने 'प्रंच्छन्न बौद्ध' कहा है। 
  7. तैत्तिरीय - तैत्तिरीय उपनिषद्‌ भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस के तीन खंड हैं--पहला 'शिक्षाध्याय' हैं । इसमें वर्ण तथा स्वर के सम्बन्ध में उपदेश हैँ। पुनः ब्रह्म के तैतिरीय स्वरूप का निरूपण है और वेद की शिक्षा के अन्त में 'अनोपासी शिष्य को आचार्य का बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपदेश इसमें है। प्रत्येक विद्यार्थी तथा आचार को इन पंक्तियों को कथ्ठस्थ रखना चाहिए तथा अपने जीवन में इसके उपदेश को कार्य में परिणत करना चाहिए।  दूसरा खण्ड ब्रह्मानन्द-वल्ली' के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण हूँ । पंच कोषों का इस खंड में वर्णन हैं । इसके बहुत से मन्त्र बहुत ही प्रसिद्ध हैं तथा शास्त्र में समय-समय पर उल्लिखित होते हैं । इन्हें भी कष्ठस्थ करना आवश्यक हैँ। तीसरा खण्ड हैं - भुगुवल्ली'। भृगु के पिता वरुण ने अपने पुत्र को उदाहरणों के द्वारा ब्रह्मज्ञान का जो उपदेश दिया है, वही इस खण्ड का विषय है। 
  8. ऐतरेय - 'ऐतरेय' उपनिषद्‌ के प्रारम्भ में सुष्टि का वर्णन है कि पहले यही एक आत्मा था और कुछ नहीं था। इसी की इच्छा से लोकों की सृष्टि हुई एवं क्रमशः अन्य वस्तुओं की भी सुष्टि हुई।  दूसरे अध्याय में मनुष्य के जन्म के क्रम का निरूपण है कि किस प्रकार माता के गर्भ में जब जीव प्रवेश करता है तभी उसका प्रथम जन्म, गर्भ से बाहर आना उसका दूसरा जन्म तथा अपनी सन्तान को घर का भार सौंप कर जब वुद्धावस्था में वह मरता है, तो उसका तीसरा जन्म होता है। तीसरे अध्याय में आत्मा के ज्ञान का विचार है और विज्ञान के भिन्न-भिन्न रूपों का भी निरूपण हैं, जिससे ज्ञान के मार्ग का क्रमिक परिचय लोगों को होता है।
  9. छान्दोग्य - 'छान्दोग्य' एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा बड़ा उपनिषद्‌ है | इसमें सूक्ष्म उपासना के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का उपदेश प्रारम्भ में है । अनेक दृष्टान्तों के द्वारा, छोटी-छोटी कहानियों का उल्लेख कर ज्ञान की महिमा का इसमें निरूपण है। ब्रह्मज्ञान के स्वरूप का वास्तविक परिचय इस में दिया गया है । महावाक्‍यों के द्वारा आत्मा के साक्षात्कार करने की विधि का वर्णन युक्ति तथा अनुभव के आधार पर बड़ी रोचकता के साथ इसमें किया गया है । इस उपनिषद्‌ के पूर्व भी भारत में अनेक विद्याएँ थीं, जिनका उल्लेख नारद तथा सनत्कुमार के संवाद में हमें प्राप्त होता है । इस उपनिषद्‌ के बहुत से मन्त्र इतने प्रसिद्ध हैं कि वे वेदान्त के सभी ग्रन्थों में अद्वैत के प्रतिपादन के लिए उद्धुत किये जाते हैं। बुहदारण्यक के समान यह भी बहुत ही प्राचीन तथा प्रामाणिक उपनिषद्‌ है।
  10. बृहदारण्यक - बृहदारण्यक' सबसे बड़ा उपनिषद्‌ हैं। सबसे प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण भी है। आरम्भ में उपासना के सूक्ष्म रूप का वर्णन है, पश्चात्‌ सृष्टि के क्रम का भी निरूपण इसमें हैं। अनेक लौकिक दुष्टान्तों के द्वारा आत्मा और ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन तथा उसके सर्वंव्यापी होने का निरूपण इसमें है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण भाग याज्ञवल्क्य कांड' है, जिसमें याज्ञवल्क्य ने अपनी स्‍त्री को ज्ञान का जो उपदेश दिया है, उसका वर्णन है। इसमें न केवल अद्वैत का ही निरूपण है, किन्तु चार्वाक दर्शन से लेकर ज्ञान के सभी सोपानों का भी विशेष वर्णन है।  ब्रह्म और आत्मा के ऐक्य का भी प्रतिपादन इसी उपनिषद्‌ में पहले-पहल मिलता है। विदेह-जनक की सभा में याज्ञवल्क्य की विद्वत्ता का परिचय इसी उपनिषद्‌ में हम पाते हैं। अनेक आचार्यों को तथा जिज्ञासुओं को दिये गये उपदेशों का सुन्दर वर्णन भी इस उपनिषद्‌ में है।
  11. कौशितकी - इसके पहले अध्याय में देवगान और पितृयान मार्गों का वर्णन है तथा अंतिम अर्थात चतुर्थ अध्याय में बालाकि और अजातशत्रु की कथा की आवृत्ति है।  दूसरे अध्याय में कौषीतकी, पेंग प्रतर्दन और शुष्क भृं गार ऋषियों के सिद्धांतों का वर्णन है।  तृतीय अध्याय में इंद्र प्रदर्दन से कहते हैं कि मुझे ( इंद्र को ) जानने से ही मनुष्य का कल्याण हो सकता है। 
  12. मैत्री - मैत्री उपनिषद पर सांख्य और बौद्ध धर्म का प्रभाव दिखाई देता है। इसमे राजा बृहद्रथ शक्यायन के पास अपनी दार्शनिक जिज्ञासा लेकर जाता है। इस उपनिषद में खगोल-विद्या से साथ-साथ षडंग-योग का भी वर्णन है। 
  13. श्वेताश्वेतर - श्वेताश्वेतर के पहले अध्याय में तत्कालिक अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों जैसे- स्वभाववाद, कालवाद एवं यदृच्छावाद आदि की आलोचना की गई है। इस उपनिषद पर शैवमत और सांख्य-सम्बन्धी विचारों का प्रभाव है। इस उपनिषद के अनुसार, प्रकृत माया है और महेश्वर इसके स्वामी है। माया शब्द का प्रयोग करते हुए भी यह उपनिषद जगत को मिथ्या नहीं मानता है। 

उपनिषदों की प्रमुख उक्तियाँ 

  • अहम् ब्रह्मास्मि (मैं ही ब्रह्म हूँ) -----वृहदारण्यक उपनिषद 
  • अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है) ------- माण्डुक्य उपनिषद 
  • तत्वमसि (वह तुम ही हो) ----------- छान्दोग्य उपनिषद 
  • प्रज्ञान ब्रह्म (प्रज्ञा ही ब्रह्म है) -----------ऐतरेय उपनिषद
  • सत्यमेव जयते (सत्य की सदैव विजय है)----------मुण्डक उपनिषद 
  • आत्मा संसार के प्रत्येक पदार्थ में रहती है- -------- कठोपनिषद 

उपनिषदों से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य 

  • सबसे छोटा उपनिषद -- माण्डूक्य 
  • सबसे बड़ा उपनिषद -- वृहदारण्यक 
  • सबसे प्रचीन उपनिषद -- छान्दोग्य 
  • अश्वमेघ यज्ञ की चर्चा --  वृहदारण्यक उपनिषद में 
  • ब्रह्म का पूर्ण निषेधात्मक वर्णन -- वृहदारण्यक उपनिषद में 
  • उपनिषद महाकोश में उपनिषदों की संख्या -- 223 
  • मुण्डकोपनिषद के अनुसार उपनिषदों की संख्या -- 108 
  • आत्मा की तुरीय अवस्था मानी गई है -- माण्डुक्योपनिषद में 

ऋत-विश्व व्यवस्था की अवधारणा

  • ऋत शब्द की व्युत्पत्ति 'ऋत + क्त' से हुई है, जिसका अर्थ सत्य, ईमानदार, उचित या सही है। यह अव्यय भी है। अव्यय के रूप में इसका अर्थ है- सही ढंग या उचित रीति से। 
  • लौकिक संस्कृत साहित्य में इसका अर्थ है-एक स्थापित निश्चित विधियों या नियम, पावन प्रथा या नियम, अधिकार या खेतों से जीवन यापन करने वाला अर्थात् वे पावन प्रथाएँ जो धार्मिक दृष्टिकोण से आस्था पर आधारित होती हैं, उन्हें हम ऋत कहते हैं। 
  • ऋग्वैदिक काल में वरुण देवता को नैतिकता अर्थात् ऋत का स्वामी कहा गया है। ये समस्त प्रजाओं में ऋत या नियम का पालन करवाते थे।
  • संस्कृत साहित्य में सामाजिक नियमों का चिन्तन एवं धर्म विषयक चिन्तन वैदिककाल से ही प्रारम्भ हो चुका था। वैदिककाल के मूल में अतिप्राचीन काल से ही यह धारणा थी कि प्रकृति में सभी जगह एक मान्य एवं स्वीकृत नियम व्याप्त है, जिसके अनुसार समस्त प्राकृतिक शक्तियाँ नियन्त्रित एवं क्रमबद्ध हैं। नित्य नियमित रूप से सूर्य का पूर्व दिशा में उदित होना एवं पश्चिम दिशा में अस्तांचल की ओर गमन करना सूर्योदय के पहले नित्य उषा का आगमन, आकाश में वर्षण तथा ऋतुओं का निश्चित परिवर्तन आदि अनेक शाश्वत नियम हैं, जो अलौकिक हैं अर्थात् जिन्हें देखा नहीं जा सकता, केवल अनुभव किया जाता है। इसका कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता। इसी शाश्वत नियम को भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के साथ जोड़ा तथा इसे ऋत की संज्ञा प्रदान की। 
  • ऋत वह है, जो निरन्तर गतिशील है। इसका कभी भी अन्त नहीं हो सकता है, इसलिए इसे शाश्वत कहा गया है। ऋत की यही शाश्वतता (Universality) विश्व की श्रृंखला का मूल है। यही देवताओं में ग्रह, नक्षत्रों तथा अन्य वस्तुओं में विद्यमान है, जिसके प्रति वैदिककाल के लोगों में श्रद्धा थी, जिसे ऋग्वेद की विभिन्न ऋचाएँ (मन्त्र) सत्यापित करती हैं। प्रकृति के द्वारा नियन्त्रित सामाजिक व्यवस्था को वैदिक संस्कृत साहित्य में ऋत संज्ञा से जोड़ा गया है।
  • ऋत-विश्व व्यवस्था के सम्बन्ध में विभिन्न मत
  • ऋग्वेद की ऋचाओं में ऋत का व्यापक प्रयोग हुआ है, जिसे विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न अर्थ के द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
  • आचार्य यास्क ने 'ऋत' को 'ऋत-गतौ' धातु से उत्पन्न माना है तथा ऋत को जल के पर्याय के रूप में माना है। उन्होंने ऋत का 'सत्य' एवं 'यज्ञ' अर्थ भी स्वीकार किया है।
  • आचार्य सायण, स्कन्द स्वामी एवं वेंकटमाधव आदि भारतीय भाष्यकारों ने भी प्रायः यास्क का अनुसरण करते हुए 'ऋत' का यज्ञ, सत्य और जल अर्थ स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर ऋत का आदित्य एवं तेज अर्थ भी स्वीकार किया गया है। 
  • आधुनिक भारतीय भाष्यकारों में महर्षि अरविन्द ने ऋत का अर्थ 'सत्य' स्वीकार किया है। उनके अनुसार ऋत का यज्ञ अर्थ उचित नहीं है। कहीं-कहीं वे ऋत को सदाचार के अर्थ में स्वीकार करते हैं।
  • स्वामी दयानन्द सरस्वती भी ऋत को मुख्य रूप से 'सत्य' के अर्थ में ग्रहण करते हैं। अनेक स्थनों पर वे ऋत का यज्ञ, उदक एवं यथार्थ अर्थ भी स्वीकार करते हैं। 
  • पाश्चात्य दार्शनिक रॉय महोदय ने 'ऋत' को व्यवस्था के नियम के अर्थ में परिभाषित किया है तथा इसे जीवन के अनेक क्षेत्रों में परिभाषित किया है और इसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित किया है। उदाहरणस्वरूप यज्ञ नियम या व्यवस्था, प्रकृति में व्यवस्था और मानव जीवन में व्यवस्था आदि। भारतीय आलोचक भी रॉय की व्याख्या से व्यापक रूप से प्रभावित हुए तथा उन्होंने भी ऋत को व्यवस्था या नियम के अर्थ में स्वीकार किया। 
  • दार्शनिक विचारक डॉ. राधाकृष्णन ने 'ऋत' को सभी प्रकार के नियमों के अर्थ में स्वीकार किया है तथा इसे विश्व की व्यवस्था एवं सदाचार के नियम के अर्थ में ग्रहण करते हैं। 
  • डॉ. राजबली पाण्डेय 'ऋत' को विश्व की व्यवस्था, नैतिक व्यवस्था एवं कर्मकाण्डीय व्यवस्था के रूप में स्वीकार करते हैं। 
  • डॉ. पी. काणे ने ऋत को प्राकृतिक व्यवस्था, दैवी व्यवस्था एवं मानव के नैतिक व्यवहार के अर्थ में स्वीकार किया है।
  • ऋत को सर्वोच्च प्राकृतिक नियम की संज्ञा प्रदान की जाती है, जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि शासित है। ऋत की वैश्विक अवधारणा भी अनेक दार्शनिक विद्वानों द्वारा अलग-अलग प्रस्तुत की गई है। 
  • सन्त ऑगस्टीन की पैक्ट्स की व्याख्या तथा वेदों में प्रयुक्त ऋत में व्यापक असमानता देखने को मिलती है। ऋत का अर्थ सार्वभौम ब्रह्माण्डीय व्यवस्था एवं ऐसे कानून की अभिव्यक्तियों से माना गया है जो अटल है। सन्त ऑगस्टीन ने ऋत को पैक्ट्स के रूप में स्थापित किया है। पैक्ट्स का अर्थ स्वयं शान्ति से न होकर उन नियमों से है, जो शान्त एवं आनन्दपूर्ण पवित्र व्यवस्था का नियमन करते हैं। पाश्चात्य मध्यकालीन दर्शन पर ऑगस्टीन का व्यापक प्रभाव दिखता है। एक अन्य दार्शनिक एफ. विरोलझीमर का मत है कि ग्रीक वालों ने भारत से ऋत की भावना को लिया तथा उसके बाद यूनानियों से, रोमनवासियों से, नैटम रेशियो तथा नैचुरल रेशियो के सिद्धान्त को ग्रहण किया। 
  • भारतीय विद्वान् डॉ. पी. वी. काणे महोदय ने ऋत का तात्पर्य देवताओं के पूजा की सम्यक् एवं व्यवस्थित विधि स्वीकार से किया है। 
  • लॉन एल. फुल्लर महोदय ने ऋत की व्याख्या अच्छे और श्रेष्ठ जीवन की नैतिकता, मानव उपलब्धि का शिखर एवं मानव पूर्णता का सामान्य विचार प्राप्त करना अपेक्षित माना है।
  • दैवीय एवं मानवीय क्षेत्र
  • विश्व में एक नियमित व नैतिक व्यवस्था व्याप्त है। यही विश्व की शृंखला व धर्म का मूल है। वैदिककाल में भी लोग इसके लिए श्रद्धा रखते थे। ऋग्वेद की ऋचाएँ इसे प्रमाणित करती है। इसी अलंध्य नैतिक व्यवस्था को ऋत कहते हैं।
  • ऋत का तात्पर्य नियम या व्यवस्था होता है। इस संसार के प्रत्येक पदार्थ में एक नियमित व्यवस्था व्याप्त है। यही व्यवस्था ऋत कहलाती है। यह विश्व उसी ऋत की छायाप्रति है। इसी से अनुशासित होकर सूर्य पूर्व से निकलकर
  • पश्चिम में अस्त होता है। दिन-रात होते हैं। विश्व की सभी ऋतु इसी ऋत के कारण होती हैं। वेदों में वर्णित है कि विश्व में व्यवस्था के साथ-साथ अव्यवस्था भी व्याप्त है। इस प्रकार ऋत के विपरीत अनृत है। अनृत का तात्पर्य अव्यवस्था से है। पहले ऋत, तत्पश्चात् अनृत तत्त्व पैदा हुआ है। इस प्रकार जगत् में व्यवस्था तथा अव्यवस्था दोनों ही व्याप्त हैं।
  • ऋग्वेद में वर्णित है कि ऋत च सत्यं अर्थात् ऋत ही सत्य है। यदि जगत् में अनृत न हो अर्थात् अव्यवस्था न हो तो जीवन स्पर्शी नहीं हो पाएगा। जीवन में विकास ही नहीं होगा। ऋत जीवन की उपलब्धि है। अनृत त्याज्य है। ऋत सत्य व अनुशासन का प्रतीक है। अनृत अव्यवस्था और असत्य का प्रतीक है। जगत् के समस्त प्राणी, देव, दानव सभी ऋत के अधीन हैं। सुख की दिशा स्वयं से ऋत की ओर व आनन्द की दिशा ऋत से स्वयं की ओर है। ऋत के संरक्षक देव वरुण देव हैं। देवताओं को ऋतजात कहने के पीछे कारण केवल
  • यही है कि वे ऋत से उत्पन्न हुए हैं। वैदिककाल के बाद मीमांसा में इसे अपूर्व कहा गया है। वर्तमान के कर्मों का उपभोग परवर्ती जीवन में अपूर्व के द्वारा किया जा सकता है। न्याय वैशेषिक में इसे अदृष्ट कहते हैं। अदृष्ट इसलिए, क्योंकि यह दिखाई नहीं देता। नैतिक व्यवस्था आगे चलकर कर्मवाद कहलाई। कर्मवाद के अनुसार कर्म का फल कभी नष्ट नहीं होता एवं बिना किए हुए कर्म का फल प्राप्त नहीं होता है। हमारे जीवन की समस्त घटनाएँ अतीत में किए गए कार्यों के अनुसार होती हैं। नास्तिक दर्शन जैन एवं बौद्ध भी कर्मवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं।

सृष्टि के सिद्धान्त

  • सृष्टि के सिद्धान्तों की जानकारी के लिए 'पुरुषसूक्त' व 'नासदीय सूक्त' महत्त्वपूर्ण हैं। सृष्टि की कल्पना के सन्दर्भ में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पुरुष सूक्त के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति प्राकृतिक है। समस्त देव व देवियाँ इसमें सहायक हैं। 
  • प्रजापति एक विराट पुरुष है। उसका शरीर ही जगत् का उपादान कारण (सामग्री) है। जगत् के भिन्न-भिन्न भाग उस विराट पुरुष के अंग हैं। विराट पुरुष का मस्तक-आकाश, चरण-भूलोक, मन--चन्द्रमा, आँखें-सूर्य, नाभि-वायु, नि:श्वास-पवन के रूप में कल्पित हैं। उगता हुआ सूर्य सृष्टि का प्रथम परमतत्त्व है।
  • ऋग्वेद के नासदीय सूक्त के अनुसार, “सृष्टि की उत्पत्ति से पहले अँधेरा था। यह अँधेरा कहीं गहन, तो कहीं न्यून था। सब कुछ शून्य था। न जन्म, न मृत्यु, न प्रकृति, न दिन, न रात, न सत्, न असत्, न अन्तरिक्ष, न व्योप था, मात्र अन्धकार ही था। "
  • जगत् के उत्पत्तिकर्ता के रूप में परमवेद परमात्मा हैं जिन्हें इन्द्र, सूर्य, प्रजापति आदि के रूप में माना गया है। जब कहीं पर कुछ नहीं था, परमात्मा था। परमात्मा ने अपनी दिव्य शक्ति से एक दिव्य रूप पैदा किया, वह सूर्य कहलाया। यह प्रथम तत्त्व था, सूर्य के उत्पन्न होते ही अन्धकार नष्ट हो गया तथा प्रकृति में कम्पन हुआ और पृथ्वी तथा जल की उत्पत्ति हुई। प्रजापति से सभी देव प्रकट हुए। वेदों में सामान्यतः प्रजापति को ही जगत् का उत्पत्तिकर्ता माना गया है।
  • उपनिषदों में वर्णित है, तत्त्वमसि (तत्, त्व, मसि) अर्थात् वह तुम हो। गौतमबुद्ध ने भी माना है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में बुद्ध या बोधिसत्व होने की क्षमता रखता है। उपनिषदों में सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी दोनों सिद्धान्त वर्णित हैं, जो युक्तिसंगत लगे उसे ही सृष्टि की उत्पत्ति का कारण मानना चाहिए।

उपनिषदों में आत्मा का स्वरूप 

  • आत्मा एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ आन्तरिक सत्ता होता है। आत्मा की उत्पत्ति भारतीय दर्शन के अनुसार उपनिषद् से मानी गई है। उपनिषदों में आत्मा को परमतत्त्व माना गया है। वही एकमात्र सत्ता होती है। आत्मा मूल चैतन्य है, जो ज्ञाता है, ज्ञेय नहीं। मूल चेतना के आधार को ही आत्मा कहा गया है। वह नित्य एवं सर्वव्यापी है। आत्मा का विचार उपनिषदों का मुख्य केन्द्र-बिन्दु माना जाता है। यही कारण है कि आत्मा की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  • इन्द्र एवं प्रजापति संवाद में आत्मा के स्वरूप की चर्चा करते हुए प्रजापति कहते हैं कि आत्मा शरीर नहीं है। इसे वह भी नहीं कहा जा सकता है कि जिसकी अनुभूति स्वप्न या स्वप्नरहित निद्रावस्था में होती है। प्रजापति ने आत्मा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा है कि, “आत्मा जरा से मुक्त है, रोग एवं मृत्यु से मुक्त है, पाप से मुक्त है। आत्मा भूख, प्यास एवं शोक से मुक्त है। " यथार्थ आत्मा के स्वरूप को जानने के लिए प्रजापति ने लोगों को प्रेरित किया, जो पुरुष स्वप्न में मुक्त विचरण करता हुआ दिखाई देता है, वही आत्मा है। प्रजापति ने आत्मा को शारीरिक,
  • आनुभविक, विश्वातीत एवं निरपेक्ष बताया है। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि “आत्मा ही एकमात्र परमतत्त्व है, शेष सभी वस्तुएँ नाममात्र की हैं। "
  • उपनिषदों के अनुसार जीव तथा आत्मा में अन्तर बताया गया है। जीव वैयक्तिक आत्मा तथा आत्मा, परम आत्मा है। उपनिषद् के अनुसार जीव और आत्मा एक ही शरीर में अन्धकार एवं प्रकाश की तरह निवास करते हैं। जीव मानव द्वारा किए गए कर्मफलों को भोगता है एवं सुख-दुःख का अनुभव करता है। अज्ञान के फलस्वरूप जीव को बन्धन एवं दु:ख का सामना करना पड़ता है। 
  • आत्मा ज्ञानी है। इसका ज्ञान हो जाने से जीव दुःख तथा बन्धन से मुक्त हो जाता है। जीवात्मा कर्म के माध्यम से पुनः पाप का अर्जन करती है तथा उसका फल भोगती है। आत्मा को कर्म एवं पाप से परे माना गया है। वह जीवात्मा के अन्दर रहकर भी उसके द्वारा किए गए कर्मों का फल नहीं भोगती है। जीव तथा आत्मा दोनों को उपनिषद में नित्य एवं अज माना गया है।
  • उपनिषदों में जीव तथा आत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। वह मानव शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि से अलग तथा इनसे परे है। यह ज्ञाता, कर्ता एवं भोक्ता सभी है। उसका पुनर्जन्म होता है। वह कर्मों के अनुसार नियमित होती है। जीवात्मा अनन्त ज्ञान से शून्य है। माण्डूक्य उपनिषद् में जीवात्मा की चार अवस्थाओं के बारे में बताया गया है, जो निम्नलिखित हैं -
    1. जाग्रत अवस्था
    2. स्वप्नावस्था
    3. सुषुप्तावस्था
    4. तुरीयावस्था 
  • जाग्रत अवस्था - यह चेतना की प्रथम अवस्था है। इस अवस्था में ज्ञान अथवा चेतना का विषय भौतिक जगत् या बाह्य संसार है। जाग्रत अवस्था में संसार का ज्ञान प्राप्त होता है। जाग्रत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहा जाता है।
  • स्वप्नावस्था - यह दूसरी अवस्था है। इस अवस्था में ज्ञान का विषय आन्तरिक होता है। इस अवस्था में चेतना को 'तेजस्' कहते हैं।
  • सुषुप्तावस्था - यह तृतीय अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में जीवात्मा को 'प्रज्ञा' कहते हैं। इस अवस्था में आत्मा बाह्य व आन्तरिक किसी विषय का उपभोग नहीं करती, बल्कि केवल आनन्द का उपभोग करती है।
  • तुरीयावस्था - यह चतुर्थ अवस्था है। यह आत्म चेतना की अवस्था है। इस अवस्था में जीवात्मा आत्मा कहलाती है। यह शुद्ध चैतन्य है। शुद्ध चैतन्य से पूर्ण आत्मा, परमात्मा कहलाती है। माण्डूक्य उपनिषद् तुरीया की चर्चा शुद्ध चेतना के रूप में करता है।

उपनिषदों में जीव के कोष 

उपनिषदों में जीव के पाँच कोषों का उल्लेख मिलता है-
  1. अन्नमय कोष 
  2. प्राणमय कोष 
  3. मनोमय कोष 
  4. विज्ञानमय कोष 
  5. आनन्दमय कोष 
  • अन्नमय कोष - हमारा यह स्थूल शरीर अन्न पर आश्रित होता है। इसे ही अन्नमय कोष कहते है। 
  • प्राणमय कोष - अन्नमय कोष के भीतर प्राणमय कोष होता है। यह शरीर में गति देने वाली प्राणशक्तियों से बना होता है। 
  • मनोमय कोष - प्राणमय कोष के भीतर मनोमय कोष है। यह मन पर आश्रित रहता है।
  • विज्ञानमय कोष - प्राणमय कोष के भीतर मनोमय कोष होता है। यह बुद्धि पर निर्भर करता है। विज्ञानमय कोष में ज्ञात व ज्ञेय का भेद समाप्त करने वाला ज्ञान समाहित राहत है। 
  • आनन्दमय कोष - विज्ञानमय कोष के भीतर आनन्दमय कोष होता है। यह आत्मा का सार है। यहाँ ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत मिट जाता है। यह शुद्ध चैतन्य रूप है। इसी के आधार पर आत्मा को सत् - चित् - आनन्द कहा गया है। 

उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप 

  • उपनिषद् में ब्रह्म को परमतत्त्व माना गया है। वही एकमात्र सत्ता है, जो जगत का सार एवं आत्मा है। ब्रह्म शब्द का उद्भव 'वृह' धातु से हुआ है, जिसका अर्थ बढ़ना या विकसित होना होता है। ब्रह्म को ही विश्व का कारण माना गया है। इसी से संसार का जन्म होता है तथा अन्त में संसार ब्रह्म में विलीन हो जाता है। इस प्रकार ब्रह्म को ही विश्व का प्रमुख आधार माना जाता है।
  • उपनिषदों में ब्रह्म के दो रूपों का वर्णन किया गया है। प्रथम परब्रह्म तथा द्वितीय अपरब्रह्म। परब्रह्म निर्गुण, निर्विशेष तथा अपरब्रह्म ससीम, सगुण एवं सविशेष है। परब्रह्म अमूर्त एवं अपरब्रह्म मूर्त है। परब्रह्म एवं अपरब्रह्म दोनों एक ही ब्रह्म के दो पक्ष हैं। उपनिषदों का ब्रह्म अद्वितीय है। वह द्वैत से शून्य है। उसे ज्ञाता एवं ज्ञेय का भेद नहीं है। उपनिषदों में ब्रह्म की व्याख्या एकवादी कही जा सकती है।
  • ब्रह्म समय से परे नित्य एवं शाश्वत है। उपनिषदों में ब्रह्म के विषय में कहा जाता है कि वह अणु से भी अणु एवं महान् से भी महान् है। ब्रह्म सभी दिशाओं में विद्यमान है। उपनिषद् में ब्रह्म को अचल कहा गया है। ब्रह्म यथार्थतः गतिहीन है, लेकिन व्यावहारिक रूप से गतिशील अवस्था में रहता है। ब्रह्म कारणों से परे है, इसलिए उसे परिवर्तनों के अधीन नहीं माना जाता है। वह अजर एवं अमर है। उपनिषदों के ऋषियों ने जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त अवस्थाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके यह सिद्ध किया कि आत्मचेतना ही परमतत्त्व है। आत्मचेतना ही आँख, नाक एवं कान को शक्ति देती है।
  • उपनिषद् में ब्रह्म के निषेधात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया गया है। वृहदारण्यक उपनिषद् में 'नेति-नेति' के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा है कि ब्रह्म न यह है न वह है। हम केवल यह कह सकते हैं कि ब्रह्म क्या नहीं है, हम यह नहीं कह सकते कि वह क्या है? तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म को वाणी एवं मन से परे बताया गया है। ब्रह्म का स्वरूप अनन्त है। वह सभी प्रकार की सीमाओं से शून्य है, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना कि ब्रह्म अज्ञेय है, को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
  • उपनिषदों में ब्रह्म को ज्ञान का आधार बताया गया है। ब्रह्म विशुद्ध सत्, विशुद्ध चित् एवं विशुद्ध आनन्द है, इसलिए इसे उपनिषदों में 'सच्चिदानन्द' कहा गया है।
  • उपनिषदों में ब्रह्म के दोनों स्वरूपों; यथा सगुण एवं निर्गुण की व्यापक व्याख्या की गई है। इसके विपरीत दक्षिणी भारत के प्रमुख भक्ति सन्त रामानुज ने उपनिषदों की व्याख्या में सगुण ब्रह्म पर बल दिया है। यही कारण है कि रामानुज एवं शंकर के ब्रह्म सम्बन्धी विचार अलग-अलग हैं।

यज्ञ (बलि) संस्थान की केन्द्रीयभूतता

    वैदिक युग में यज्ञ धर्म की सबसे प्रमुख अभिव्यक्ति थी। मनुष्य बिना किसी माध्यम के देवताओं से सम्पर्क रखते थे। ऐसी स्थिति में कृतज्ञता प्रकट करने के लिए प्रार्थना एवं समर्पण करना सीखा। इसके लिए यज्ञ की खोज की गई। वेदी बनाकर अग्नि प्रज्वलित कर भोज्य सामग्री अर्पित की गई। चार वेदों-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद में यज्ञ विधि का वर्णन है। ऋग्वेद में भी यज्ञ की महत्ता स्वीकृत थी। यज्ञ से सृष्टि की उत्पत्ति की भी एक सूत्र में चर्चा है।
वैदिक साहित्य के चार भाग हैं-संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्। द्वितीय भाग 'ब्राह्मण' कर्मकाण्ड से सम्बन्धित है। कर्मकाण्ड मुख्यतः यज्ञ से सम्बन्धित थे। मीमांसा दर्शन में यज्ञ की महत्ता पर चर्चा है। कल्पसूत्रों में यज्ञों का क्रमबद्ध वर्णन मिलता है। ज्योतिष भी विशेष नक्षत्र में यज्ञ करने की बात करता है। प्राचीन ग्रन्थों; यथा-रामायण, महाभारत, पुराण आदि में यज्ञों का वर्णन है। यज्ञ व्यक्तिगत लाभ के साथ-साथ सामाजिक लाभ के लिए भी किए जाते हैं। मनुस्मृति में वर्णित है कि यज्ञ में अग्नि को दी गई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है, फिर सूर्य से बादल, बादल से वर्षा, वर्षा से अन्न पैदा होता है।

यज्ञ के प्रकार

यज्ञों के मुख्य तीन प्रकार है
  1. श्रौत यज्ञ
  2. स्मार्त यज्ञ
  3. पंचमहायज्ञ
  • श्रौत यज्ञ - वैदिक यज्ञ श्रौत यज्ञ कहे जाते हैं। वैदिक आर्य अग्नि को देवताओं का मुख मानते थे। अत: मन्त्रोच्चार करते हुए वे अग्नि में हविष्य डालते थे। इस भावना के साथ कि देवता प्रसन्न होकर मनोकामना पूर्ण करेंगे। यज्ञ अलग-अलग उद्देश्यों के लिए किए जाते थे। कुछ श्रौत यज्ञों का वर्णन इस प्रकार है -
    1. अग्निहोत्र यज्ञ - यह यज्ञ गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले लोगों के लिए किया जाता था। यह यज्ञ प्रातः एवं सायं अग्नि देवता की उपासना के साथ सम्पन्न किया जाता है। इस यज्ञ को पाप का नाशक एवं स्वर्ग की ओर ले जाने वाली नाव के रूप में वर्णित किया गया है।
    2. वाजपेय यज्ञ - राजा सम्राट बनने के पश्चात अपनी शक्ति में प्रदर्शन के लिए इस यज्ञ का आयोजन करता था। इस यज्ञ में रथदौड़ का आयोजन किया जाता था।
    3. राजसूय यज्ञ - यह राजा के राज्याभिषेक से सम्बन्धित था। इस यज्ञ में राजा की कामना के लिए ईश्वर से प्रार्थना की जाती थी। मुख्य रूप से इन्द्र एवं वरुण देवता का यज्ञ में राज्याभिषेक किया जाता था।
    4. अश्वमेध यज्ञ - यह यज्ञों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। राजा द्वारा अपने साम्राज्य के विस्तार हेतु इस यज्ञ का आयोजन किया जाता था। जिसमें स्वतन्त्र रूप से एक घोड़ा छोड़ा जाता था। इस यज्ञ में घोड़े (अश्व) की बलि दी जाती थी।
    5. पशुबन्ध यज्ञ - यह यज्ञ सूर्य या प्रजापति देवता के सम्मान में किया जाता था। इसमें मुख्य रूप से नर बकरे की बलि दी जाती थी।
  • स्मार्त यज्ञ - स्मार्त यज्ञ निष्काम भाव से किया जाता था। इस यज्ञ को करते समय यह भावना रखी जाती थी कि देवता अवश्य अपनी इच्छा से यज्ञकर्ता को बिना माँगे फल देंगे।
  • पंचमहायज्ञ - पंचमहायज्ञ ऐसा यज्ञ था, जिसमें खर्च कम हो और पशुबलि भी न हो। इसे सीमित साधन एवं सीमित समय में किया जा सकता था। पंचमहायज्ञ निम्नलिखित हैं - ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ व मनुष्ययज्ञ। ब्रह्मयज्ञ से तात्पर्य स्वाध्याय से है। गृहस्थ को प्रतिदिन एकान्त में बैठकर धर्मग्रन्थों का पाठ करना चाहिए। प्राकतिक शक्तियों के प्रति कतज्ञता व्यक्त करने के लिए देवयज्ञ किया जाता था। प्राणिमात्र के लिए यज्ञ करना भूतयज्ञ कहलाता है। पितरों के प्रति यज्ञ पितृयज्ञ तथा अतिथि सत्कार मनुष्ययज्ञ है। गीता में यज्ञ की चर्चा है। गीता के अनुसार जो भी कर्म करें इस भाव से करें कि हम किसी यज्ञ में आहुति दे रहे हैं। इस प्रकार, गीता हमें यज्ञार्थ कर्म करने पर बल देती है। वर्तमान में भी यह यज्ञ किया जाता है। यज्ञ से व्याधियां दूर होती हैं, वातावरण शुद्ध होता है। यही कारण है कि आज भी वैदिक यज्ञों को सम्पन्न किया जाता है।

कर्म एवं पुनर्जन्म 

  • भारतीय धर्म एवं दर्शन दोनों में कर्मसिद्धान्त को प्रमुख स्थान प्राप्त है। कर्म-गति अद्वितीय मानी गई है। कर्म पुण्य और पाप दो अर्थों में प्रयुक्त होता है। 
  • कर्म दो प्रकार के माने जाते है- नित्य कर्म एवं नैमित्तिक कर्म । 
  • नित्य कर्म वे कर्म होते है जिनके करने से कोई पुण्य या अपूर्व वस्तु नहीं मिलती किन्तु न करने से पाप होता है। नैमित्तिक कर्म काम्य प्रधान होते है, जिनके करने से कर्मों का फल सुख व दुख के रूप में प्राप्त होता है और न करने से कोई पाप नहीं होता। नैमित्तिक कर्म काम्य प्रधान होने के कारण दो प्रकार के होते है- सकाम कर्म  एवं निष्काम कर्म। 
  • सकाम कर्म से सुख रूप में फल पाने का स्वार्थ निहित होता है, जबकि निष्काम कर्म में कामनाओं का अभाव होने के कारण निस्वार्थ होते है। जीव का पुनर्जन्म कर्म भोग के लिए ही होता है। सभी जीव अपने-अपने कर्मों का फल भोगते है। उपनिषदों में इसी कर्म-सिद्धान्त की चर्चा की गई है। कर्मों को शुभ व अशुभ कर्मों में विभाजित किया गया है। शुभ कर्मों का फल अच्छा एवं अशुभ कर्मों का फल बुरा होता है। ईशावस्योपनिषद में कहा गया है कि, “सत्कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीने की कामना करो” उपनिषदों का यह दृढ़ विश्वास है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा विद्यमान रहती है। वृहदारण्यकोपनिषद के अनुसार, “स्वर्णकार जिस प्रकार सोने के एक टुकड़े से आकृति बनाने के पश्चात दूसरी नवीन एवं सुंदरमय आकृति बनाता है, उसी प्रकार यह आत्मा इस शरीर को छोड़कर नवीन एवं सुन्दर शरीर को धरण करती है।” आत्मा की इस यात्रा का आधार उसके पूर्वजन्म में किए गए शुभाशुभ कर्म है। प्रत्येक जन्म के कर्म आगामी जीवन के रूप को निर्धारित करते है। उपनिषदों के अनुसार, “कर्मकाण्ड के द्वारा मुक्ति नहीं मिल सकती है।” मुण्डकोपनिषद का कहना है की “कर्म क्षुद्र नौकाओं के समान है जिसके द्वारा भवसागर को पर नहीं किया जा सकता है।” उपनिषदों के अनुसार मनुष्य के लिए दो मार्ग है- प्रेयस  एवं श्रेयस।  
  • प्रेयस का मार्ग सुख का मार्ग है जबकि सुख का परित्याग कर श्रेयस मार्ग कल्याण अर्थात मोक्ष का मार्ग है। सुख की आसक्ति से युक्त कर्म ही बन्धन का हेतु होता है और परिणाम रूप में मनुष्य का पुनर्जन्म होता है, जबकि श्रेयस मार्ग मुक्ति का मार्ग है। 

उपनिषदों में मोक्ष का स्वरूप

    उपनिषदों में मोक्ष सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। उनके अनुसार, ज्ञान मोक्ष का साधन है, क्योंकि ज्ञान से अविद्या का नाश होता है जो दर्शन, बन्धन आदि का कारण है। अविद्या का नाश ही मोक्ष कहलाता है। कहीं-कहीं पर उपनिषदों में ‘आत्मनः स्वरूपेणास्थापनं मोक्षः’ माना गया है। अर्थात जब आत्मा परब्रहम का साक्षात्कार, अपने स्वरूप का ज्ञान कर लेती है तब उसकी यह स्वरूपस्थिति मोक्ष बन जाती है। इस अवस्था में किसी प्रकार का भय, दुःख नहीं रहता और अमृतत्व प्राप्त हो जाता है। समस्त जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्ति मिल जाती है। आत्मा की ऐसी अमृतावस्था को ही मोक्ष कहते है। ऐसी अवस्था में पहुँचने पर प्राणी जन्म-मरणशील जगत को पुनः प्राप्त नहीं होता। संक्षेप में वह ब्रहमय, ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। उपनिषदों के अनुसार, मोक्ष के तीन रूप बतलाए गए है, जो निम्न प्रकार है- 
  • जीवमुक्ति - जब किसी आत्मज्ञानी को देहावसान से पूर्व ही अपने ब्रह्म-रूप का ज्ञान हो जाता है तब उसे जीवनमुक्ति कहते है। कठोपनिषद यह कहता है कि जब साधक की समस्त कामनाएँ पूर्णतः नष्ट हो जाती है तब वह इसी शरीर में रहते हुये यहीं पर परब्रहम परमात्मा का दर्शन कर अमृतत्व प्राप्त कर लेता है। 
  • कर्ममुक्ति - जब कोई आत्मा कर्म से देवयान मार्ग से होकर ब्रह्मलोक में पहुँच जाती है तब उसे कर्म-मुक्ति कहा जाता है। यह अवस्था देहापात होने के पश्चात ही प्राप्त होती है। अतः इसे विदेहमुक्ति भी कहते है। 
  • सद्योमुक्ति - जब आत्मा को ब्रह्म-रूप ज्ञान हो जाता है, वह पूर्णतः मुक्ति हो जाती है, तब उसे सद्योमुक्ति कहते है। यही जीवन का परम लक्ष्य है। 
उपनिषदों के अनुसार, मरणोपरान्त प्राणी को तीन गतियाँ मिलती है, यथा-देवयान गति, पितृयान-गति और तृतियान-गति। 
  1. देवयान-गति - उपनिषदों के अनुसार, जो व्यक्ति अपने जीवनकाल में आध्यात्म विद्या का अभ्यास करता है, मरणोपरान्त सर्वप्रथम वे अग्नि में प्रवेश करते है। पुनः अग्नि से दिन में, दिन से शुक्ल-पक्ष में, शुक्ल-पक्ष से उत्तरायण षड मासों में, षडमासों से संवत्सर में, संवत्सर से सूर्य में, सूर्य से चंद्रमा में और चंद्रमा से बिजली में प्रवेश कर जाते है। विद्युतलोक में उनकी एक पारलौकिक पुरुष से भेंट होती है, जो उन्हे ब्रह्मलोक तक पहुंचाता है और वहाँ वह ब्रह्म में लीन हो जाता है। वहाँ जब ब्रह्म का पुनः प्रादुर्भाव होता है तब जीव क्रमशः पुनः मर्त्यलोक में पहुँच जाता है। जीव की मुक्ति से पूर्व यह आवागमन की प्रक्रिया चलती रहती है। 
  2. पितृयान-गति - यज्ञ करने वाले, दान देने वाले एवं शुभकर्मी व्यक्ति, जो पुजा-पाठ और प्रार्थना करते है, देहपात के पश्चात चिता की अग्नि में प्रवेश करते है और इससे पूर्व वे धूम-समूह में प्रवेश करते है। फिर धूम से रात में, रात से कृष्णपक्ष में, कृष्णपक्ष से दक्षिणायण के षड मासों में और यहाँ से वे सीधे पितृलोक में चले जाते है। पुनः पितृलोक से आकाश में और आकाश से चन्द्रलोक में तथा यहाँ से वे अन्न हो जाते है। इन अन्नों का देवगण भक्षण करते है। जबतक पुण्य शेष है, वे उस लोक में वास करते है। पुण्य क्षीण होते ही वे पुनः मर्त्यलोक में जाते है-‘क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोके विशान्ति’। तदनन्तर पुनः धरती पर लौटकर अपने पूर्वकृत कर्म के फलानुसार विविध योनियों में जन्म ग्रहण करते है। 
  3. तृतीयान-गति - उपर्युक्त दोनों मार्गों से भिन्न एक तीसरी राह भी है। वह तीसरी गति निम्नकोटि के जीव, जैसे कीड़े-मकोड़े, सरिसृप, पतंग-प्रभृति जीव के लिए है, जो सदैव जीते मरते रहते है। इनके जन्म-मरण का क्रम कभी टूटता नहीं है। 
    उपरोक्त जीवों की विविध गति की औपनिषदिक कल्पना जीव के पुनर्जन्म से सम्बन्धित है। आवागमन का यह चक्र अनवरत चलता रहता है। इसका अन्त मोक्ष से ही सम्भव है। मनुष्य आध्यात्म विद्या के सोपान से ही मोक्ष के प्रसाद तक पहुँच सकता है। इसी विद्या से वह दैहिक-दैविक और भौतिक तापत्रय से मुक्ति पा सकता है। इस अन्तिम अवस्था की प्राप्ति निष्काम भाव से कर्म करने वाले आत्मज्ञानियों के लिए ही हो सकती है। सकाम सत्कर्म करने वाले स्वर्णिम सुख का भोग कर सकते है, किन्तु निम्नस्तरीय जीवों के लिए जन्म-मरण का अन्त नहीं है। केनोपनिषद के अनुसार, देवयान को उत्तर मार्ग (उत्तरायण) तथा पितृयान को दक्षिण मार्ग अर्थात दक्षिणायण कहा जाता है। 

ऋण की अवधारणा 

ऋण की अवधारणा का उल्लेख वेदों में वर्णित है। ऋण तीन होते हैं-
  1. पितृ ऋण,
  2. देव ऋण 
  3. ऋषि ऋण
    आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टि से ये ऋण प्रत्येक व्यक्ति पर होते हैं। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमें ये ऋण चुकाने होते हैं। शतपथ ब्राह्मण में वर्णित है कि बालक जन्म लेते ही इन तीन ऋणों का ऋणी हो जाता है। हमारे ऋषि मुनियों ने कृतज्ञता पर शुरू से ही जोर दिया है। प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की भावना ने ही आर्यजनों को प्राकृतिक शक्तियाँ सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा आदि देव कहा तथा यज्ञ के माध्यम से उनके प्रति समर्पण करने को प्रेरित किया। आर्यों ने मातृ देवोभव, पितृ देवोभव, गुरु देवोभव आदि की शिक्षा बालकों को दी। साथ ही उन्हें यह भी बताया कि इनके प्रति हमारे कुछ ऋण होते हैं जिन्हें चुकाना उनका कर्त्तव्य है।
    समाज में जन्म लेते ही हमारे दायित्व हमारे साथ जुड़ जाते हैं। माता-पिता की सेवा करना, गुरु की आज्ञा का पालन, मृत्यु के पश्चात् माता-पिता का श्राद्ध करना नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ मूल्य हैं, जो एक आदर्श समाज की स्थापना करते हैं, परन्तु भारतीय ऋषि-मुनियों ने जो ऋण की बात कही है, वह दायित्व से भी आगे है। ऋण की व्यवस्था आने वाली पीढ़ी के प्रति दायित्व निर्वहन है। ऋण तीन होते हैं-ऋषि ऋण, पितृ ऋण, देव ऋण। महाभारत में एक चौथे ऋण का भी उल्लेख मिलता है, जिसे मनुष्य ऋण कहते हैं। इनका उल्लेख इस प्रकार है--
  1. ऋषि ऋण - बालक के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह शिक्षा पुराने समय में बालक को ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ऋषि से लेनी होती थी। बालक का ऋषि के साथ-साथ गुरु पर ऋण होता था। यही उस पर ऋषि ऋण था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इस ऋण से उऋण होने का साधन ब्रह्मचर्य में प्रवेश है। यहाँ प्रवेश का वास्तविक उद्देश्य गुरु द्वारा दी गई शिक्षा का समुचित रूप से धारण है। बालकों को शास्त्रों को याद करना आवश्यक था। इस प्रकार ऋषियों के द्वारा ही शास्त्रज्ञान का प्रसार होता रहता था। बालक को यह ज्ञान अगली पीढ़ी को स्थानान्तरित कर हमें ऋण से उऋण होना होता था।
  2. पितृ ऋण - पितृ ऋण पिता का ऋण है। इसे चुकाने हेतु विवाह करके सन्तान की उत्पत्ति का आदेश है। पितृ ऋण से मुक्ति गृह आश्रय से ही सम्भव है। सन्तान उत्पत्ति के साथ ही सन्तान के जन्म के बाद भी विभिन्न संस्कार जरूरी थे, ताकि सन्तान का पालन-पोषण ठीक से हो सके और वह श्रेष्ठ मानव बन सके।
  3. देव ऋण - यह देवताओं के प्रति ऋण है। वैदिक आर्यों ने प्राकृतिक शक्ति को देव कहा था, क्योंकि प्रकृति से मानव को जीवन मिला था। इन प्राकृतिक दैवीय शक्तियों की स्तुति हेतु वैदिक ऋषियों ने अनेक रचनाएँ रची हैं। केवल स्तुति से ही इन देवों के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता था, उसके लिए यज्ञ आदि करके ही उऋण हुआ जा सकता था। यज्ञों को करने से प्रकृति में सन्तुलन कायम होता था तथा धार्मिक परम्परा भी बनी रहती थी। यज्ञ गृहस्थ एवं वानप्रस्थ दोनों आश्रमों में सम्पन्न हो सकते थे। उपनयन संस्कार में बालक को तीन धागों का यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है। उसका तात्पर्य यही है कि उस पर तीन ऋण हैं, जिनसे उसे उऋण होना है।
  4. मनुष्य ऋण - महाभारत में जिस चौथे ऋण की चर्चा है वह यही ‘मनुष्य ऋण' है। प्रत्येक मानव समाज का ऋणी है। उसे इस ऋण से उऋण होने के लिए मनुष्य के प्रति अच्छा व्यवहार करना चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि वह निस्वार्थ भाव से प्रत्येक मानव को प्रेम करे एवं आवश्यकता पड़ने पर उसकी मद्द करे। समर्थ होने पर भी किसी की मदद न करने वाला भी पापी होता है। ऐसा गीता में वर्णित है। अतः हम सब का दायित्व है कि प्रत्येक मानव के प्रति अच्छा आचरण करें।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न


Sunday, November 19, 2023

ugc net first paper mock test

UGC NET First Paper Mock Test December 2005 

यूजीसी नेट के सभी विषयों की परीक्षा में प्रथम पेपर अनिवार्य होता है जिसमें 50 प्रश्न होते हैं और प्रत्येक प्रश्न का 2 अंक निर्धारित होता है। प्रथम प्रश्न-पत्र का पाठ्यक्रम निर्धारित है जिसमें 10 इकाई से अलग-अलग प्रश्न पूछे जाते हैं। प्रथम प्रश्न-पत्र में जिन विषयों से प्रश्न पूछे जाते हैं उनकी सूची इस प्रकार है -

इकाई 1. शिक्षण अभिवृत्ति

  • शिक्षण: अवधारणाएँ, उद्देश्य, शिक्षण का स्तर ( स्मरण शक्ति, समझ और विचारात्मक ), विशेषताएँ और मूल अपेक्षाएं।
  • शिक्षार्थी की विशेषताएँ: किशोर और वयस्क विद्यार्थी की अपेक्षाएं (शैक्षिक, सामाजिक / भावनात्मक और संज्ञानात्मक, व्यक्तिगत भिन्नताएँ)।
  • शिक्षण प्रभावक तत्व: शिक्षक, सहायक सामग्री, संस्थागत सुविधाएँ, शैक्षिक वातावरण।
  • उच्च अधिगम संस्थाओं में शिक्षण की पद्धतिः अध्यापक केन्द्रित बनाम शिक्षार्थी केन्द्रित पद्धति, ऑफ लाइन बनाम ऑन-लाइन पद्धतियाँ (स्वयं, स्वयंप्रभा मूक्स इत्यादि)।
  • शिक्षण सहायक प्रणाली: परम्परागत आधुनिक और आई.सी.टी. आधारित।
  • मूल्यांकन प्रणालियाँ मूल्यांकन के तत्व और प्रकार, उच्च शिक्षा में विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली में मूल्यांकन, कम्प्यूटर आधारित परीक्षा, मूल्यांकन पद्धतियों में नवाचार। 

इकाई 2. शोध अभिवृत्ति

  • शोध: अर्थ, प्रकार और विशेषताएँ, प्रत्यक्षवाद एवं उत्तर- प्रत्यक्षवाद शोध के उपागम। 
  • शोध पद्धतियां प्रयोगात्मक विवरणात्मक, ऐतिहासिक, गुणात्मक एवं मात्रात्मक।
  • शोध के चरण। 
  • शोध प्रबन्ध एवं आलेख लेखन: फॉर्मेट और संदर्भ की शैली।  
  • शोध में ICT का अनुप्रयोग। 
  • शोध नैतिकता।

इकाई 3. बोध

  • एक गद्यांश दिया जाएगा, उस गद्यांश से पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देना होगा।

इकाई 4. संप्रेषण

  • संप्रेषणः संप्रेषण का अर्थ, प्रकार और अभिलक्षण। 
  • प्रभावी संप्रेषणः वाचिक एवं गैर-वाचिक, अन्तः सांस्कृतिक एवं सामूहिक संप्रेषण, कक्षा-संप्रेषण। 
  • प्रभावी संप्रेषण की बाधाएं। 
  • जन-मीडिया एवं समाज। 

इकाई 5. गणितीय तर्क और अभिवृत्ति

  • तर्क के प्रकार। 
  • संख्या श्रेणी अक्षर श्रृंखला, कूट और सम्बन्ध। 
  • गणितीय अभिवृत्ति ( भिन्न, समय और दूरी, अनुपात -समानुपात प्रतिशतता लाभ और हानि, ब्याज या छूट, औसत आदि)। 

इकाई 6. युक्तियुक्त तर्क

  • युक्ति के ढांचे का बोधः युक्ति के रूप, निरूपाधिक तर्कवाक्य का ढाँचा, अवस्था और आकृति, औपचारिक एवं अनौपचारिक युक्ति दोष, भाषा का प्रयोग, शब्दों का लक्ष्यार्थ और वस्त्वर्थ, विरोध का परंपरागत वर्ग।
  • युक्ति के प्रकार निगमनात्मक और आगमनात्मक युक्ति का मूल्यांकन और विशिष्टीकरण।
  • अनुरूपताएँ।
  • वेन आरेख तर्क की वैधता सुनिश्चित करने के लिए वेन आरेख का सरल और बहुप्रयोग। 
  • भारतीय तर्कशास्त्र ज्ञान के साधन। 
  • प्रमाण प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि।
  • अनुमान की संरचना, प्रकार, व्याप्ति हेत्वाभास।

इकाई 7. आंकड़ों की व्याख्या

  • आंकड़ों का स्रोत प्राप्ति और वर्गीकरण।
  • गुणात्मक एवं मात्रात्मक आंकड़े।
  • चित्रवत वर्णन (बार-चार्ट, हिस्टोग्राम, पाई चार्ट, टेबल चार्ट और रेखा चार्ट) और आंकड़ों का मानचित्रण।
  • आंकड़ों की व्याख्या।
  • आंकड़े और सुशासन।

इकाई 8. सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आई.सी.टी.)

  • आई. सी. टी. सामान्य संक्षिप्तियाँ और शब्दावली।
  • इंटरनेट, इन्ट्रानेट, ई-मेल, श्रव्य दृश्य कॉन्फ्रेन्सिंग की मूलभूत बातें।
  • उच्च शिक्षा में डिजिटल पहले।
  • आई.सी.टी. और सुशासन।

इकाई 9 लोग, विकास और पर्यावरण

  • विकास और पर्यावरण: मिलेनियम विकास और संपोषणीय विकास का लक्ष्य।
  • मानव और पर्यावरण संव्यवहारः नृजातीय क्रियाकलाप और पर्यावरण पर उनका प्रभाव।
  • पर्यावरणपरक मुद्दे: स्थानीय क्षेत्रीय और वैश्विक वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, अपशिष्ट (ठोस, तरल, बायो मेडिकल, जोखिमपूर्ण, इलैक्ट्रॉनिक) जलवायु परिवर्तन और इसके सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक आयाम।
  • मानव स्वास्थ्य पर प्रदूषकों का प्रभाव।
  • प्राकृतिक और ऊर्जा के स्रोत, सौर, पवन, मृदा, जल, ताप, बायो-मास, नाभिकी और वन।
  • प्राकृतिक जोखिम और आपदाएं: न्यूनीकरण की युक्तियां।
  • पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (1986), जलवायु परिवर्तन संबंधी राष्ट्रीय कार्य योजना, अंतर्राष्ट्रीय समझौते / प्रयास।
  • मॉण्ट्रियल प्रोटोकॉल, रियो सम्मेलन, जैव-विविधता सम्मेलन क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौता, अंतर्राष्ट्रीय सौर संधि।

इकाई 10. उच्च शिक्षा प्रणाली

  • उच्च अधिगम संस्थाएं और प्राचीन भारत में शिक्षा।
  • स्वतंत्रता के बाद भारत में उच्च अधिगम और शोध का उद्भव।
  • भारत में प्राच्य पारंपरिक और गैर-पारंपरिक अधिगम कार्यक्रम।
  • व्यावसायिक / तकनीकी और कौशल आधारित शिक्षा।
  • मूल्य शिक्षा और पर्यावरणपरक शिक्षा।
  • नीतियां, सुशासन, राजनीति और प्रशासन।

UGC NET First Paper Mock Test December 2005

प्राकृतिक आपदा से बचाव

Protection from natural disaster   Q. Which one of the following is appropriate for natural hazard mitigation? (A) International AI...