महाभारत: एक सामान्य परिचय
महाभारत: एक सामान्य परिचय
महाभारत संसार का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण
महाकाव्य है, जिसे महर्षि वेदव्यास ने रचा। यह केवल एक युद्ध
की कथा नहीं है, बल्कि इसमें धर्म, नीति, राजनीति, भक्ति, कर्तव्य, और मानव जीवन के विविध पहलुओं का गहन विश्लेषण मिलता है। इसे "पंचम
वेद" भी कहा जाता है, क्योंकि
इसमें वेदों की गूढ़ शिक्षाएँ निहित हैं।
1. रचनाकार – महर्षि वेदव्यास
- महर्षि
     वेदव्यास ने गणेशजी की सहायता से इस ग्रंथ की रचना की।
 - इसमें
     एक लाख से अधिक श्लोक हैं, जो इसे विश्व का
     सबसे लंबा महाकाव्य बनाते हैं।
 - यह
     कथा कुरुक्षेत्र के महायुद्ध और उसके पीछे के कारणों को विस्तार से
     प्रस्तुत करती है।
 
2. संरचना (पर्व और श्लोकों की संख्या)
महाभारत में 18 पर्व (अध्याय) और लगभग
1,00,000
श्लोक हैं।
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   पर्व
  का नाम  | 
  
   मुख्य विषय  | 
 
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   आदिपर्व  | 
  
   महाभारत की उत्पत्ति, कुरुवंश का इतिहास, कौरव-पांडव जन्म कथा  | 
 
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   सभापर्व  | 
  
   पांडवों
  द्वारा इंद्रप्रस्थ की स्थापना, दुर्योधन का द्वेष, द्रौपदी चीरहरण  | 
 
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   वनपर्व  | 
  
   पांडवों का वनवास और विभिन्न ऋषियों से
  शिक्षा प्राप्त करना  | 
 
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   विराटपर्व  | 
  
   पांडवों
  का अज्ञातवास और विराट नगर में रहना  | 
 
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   उद्योगपर्व  | 
  
   युद्ध की तैयारियाँ, श्रीकृष्ण का शांति प्रस्ताव,
  असफल संधि प्रयास  | 
 
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   भीष्मपर्व  | 
  
   महाभारत
  युद्ध का आरंभ, श्रीकृष्ण का विराट स्वरूप, गीता उपदेश  | 
 
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   द्रोणपर्व  | 
  
   गुरु द्रोणाचार्य का युद्ध में वीरगति
  पाना  | 
 
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   कर्णपर्व  | 
  
   कर्ण
  का पराक्रम और अंत  | 
 
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   शल्यपर्व  | 
  
   शल्य की मृत्यु, युद्ध का अंतिम चरण  | 
 
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   सौप्तिकपर्व  | 
  
   अश्वत्थामा
  द्वारा पांडव पुत्रों की हत्या  | 
 
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   स्त्रीपर्व  | 
  
   युद्ध के बाद महिलाओं और राजवंश की
  दुर्दशा  | 
 
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   शांतिपर्व  | 
  
   युद्ध
  के बाद युधिष्ठिर को नीति और राज्यशासन की शिक्षा  | 
 
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   अनुशासनपर्व  | 
  
   भीष्म द्वारा धर्म और नीति की शिक्षा  | 
 
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   अश्वमेधिकपर्व  | 
  
   युधिष्ठिर
  का राज्याभिषेक, अश्वमेध यज्ञ  | 
 
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   आश्रमवासीपर्व  | 
  
   धृतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती का वनगमन  | 
 
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   मौसलपर्व  | 
  
   यादव
  वंश का विनाश  | 
 
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   महाप्रस्थानिकपर्व  | 
  
   पांडवों का हिमालय की यात्रा  | 
 
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   स्वर्गारोहणपर्व  | 
  
   स्वर्ग
  में पांडवों और श्रीकृष्ण का प्रवेश  | 
 
3. महाभारत की प्रमुख शिक्षाएँ
1.   
धर्म और अधर्म का युद्ध – सत्य और न्याय की हमेशा विजय होती है।
2.   
श्रीकृष्ण का गीता उपदेश – जीवन का सबसे बड़ा ज्ञान और कर्तव्य का पाठ।
3.   
कर्म का महत्व – फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
4.   
राजनीति और नीति शास्त्र – महाभारत में राज्य संचालन, कूटनीति और युद्ध नीति का
विस्तार से वर्णन है।
5.   
परिवार और समाज – महाभारत
पारिवारिक कलह और सत्ता संघर्ष की गहरी समझ देता है।
4. महाभारत का प्रभाव
- यह भारतीय
     संस्कृति, नीति, धर्म और
     समाज का आधार बना।
 - श्रीमद्भगवद्गीता, जो महाभारत का एक भाग है, आज भी जीवन दर्शन
     का सबसे बड़ा स्रोत है।
 - यह
     केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि इतिहास, दर्शन और मानव मनोविज्ञान का भी अद्भुत
     संगम है।
 
5. निष्कर्ष
महाभारत केवल एक महाकाव्य नहीं, बल्कि
मानव जीवन का दर्पण है। इसमें कौरवों और पांडवों के संघर्ष के माध्यम से
हमें धर्म, सत्य, कर्तव्य,
भक्ति, और नीति का वास्तविक अर्थ समझाया गया है। यह ग्रंथ हमें सिखाता है कि सत्य की हमेशा जीत होती है
और अधर्म का अंत निश्चित है।
गीता उपदेश: एक दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण
श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन, योग,
कर्म और भक्ति का सार है। यह महाभारत के भीष्मपर्व में
सम्मिलित है और इसे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र
में उपदेश दिया था। गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि
जीवन जीने की एक अद्वितीय कला भी है। इसमें मानव जीवन, कर्तव्य, नैतिकता और मोक्ष के मार्ग पर गहन विचार
प्रस्तुत किए गए हैं।
1. गीता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
- महाभारत
     युद्ध के दौरान जब अर्जुन ने अपने बंधु-बांधवों को युद्धभूमि में देखा, तो वह मोहग्रस्त होकर अपना धनुष रख देता है।
 - उसे
     अपने कर्तव्य और धर्म को लेकर संदेह होता है।
 - तब
     भगवान श्रीकृष्ण उसे योग, कर्म, भक्ति, और ज्ञान के
     माध्यम से धर्म और कर्तव्य का सही अर्थ समझाते हैं।
 - यह
     संवाद 18 अध्यायों और 700 श्लोकों में
     संकलित है।
 
2. गीता के प्रमुख उपदेश
(1) कर्मयोग – निष्काम कर्म का सिद्धांत
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु
कदाचन।"
(अध्याय 2, श्लोक 47)
- मनुष्य
     का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता नहीं
     करनी चाहिए।
 - निष्काम
     कर्म का अर्थ है स्वार्थरहित कर्म करना और ईश्वर को समर्पित भाव से
     कार्य करना।
 - यह
     सिद्धांत कर्तव्य भावना और आत्मविकास की प्रेरणा देता है।
 
(2) ज्ञानयोग – आत्मा का ज्ञान
"न जायते म्रियते वा कदाचिन्"
(अध्याय 2, श्लोक 20)
- आत्मा
     अजर,
     अमर और अविनाशी है।
 - मृत्यु
     केवल शरीर का परिवर्तन है, आत्मा अनंत और शाश्वत है।
 - आत्मा
     के ज्ञान से भय, मोह और दुख समाप्त हो जाते हैं।
 
(3) भक्तियोग – ईश्वर में अनन्य भक्ति
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं
व्रज।"
(अध्याय 18, श्लोक 66)
- श्रीकृष्ण
     कहते हैं कि सब कुछ त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें मोक्ष दूँगा।
 - यह
     संदेश प्रेम, भक्ति और ईश्वर में पूर्ण समर्पण की
     भावना को प्रकट करता है।
 
(4) सांख्ययोग – आत्मा और शरीर का भेद
- आत्मा
     शुद्ध, निर्लिप्त और शाश्वत है, जबकि
     शरीर नश्वर है।
 - यह
     भेद जानने से मनुष्य संसार के मोह से मुक्त हो सकता है।
 - आत्मज्ञान
     ही परम मुक्ति का मार्ग है।
 
(5) श्रद्धा और विश्वास का महत्व
- जो
     व्यक्ति श्रद्धा और विश्वास के साथ कार्य करता है, वह जीवन में सफल होता है।
 - ईश्वर
     में विश्वास रखने वाला व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में धैर्य नहीं खोता।
 
3. गीता के उपदेशों का आधुनिक जीवन में महत्व
- कर्तव्यपरायणता – बिना स्वार्थ के कार्य करना।
 - मानसिक
     शांति – आत्मा के ज्ञान से मोह, भय
     और तनाव से मुक्ति।
 - आत्म-उन्नति – सच्चे ज्ञान और भक्ति से अपने व्यक्तित्व का विकास।
 - संतुलित
     जीवन – सुख-दुख में समान रहने की सीख।
 
4. निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव जीवन का मार्गदर्शक है। यह हमें बताती है कि कर्तव्य करना ही जीवन का उद्देश्य है, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। गीता का उपदेश हर व्यक्ति के लिए प्रासंगिक है, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहा हो। इसकी शिक्षाएँ मानवता, धर्म, कर्तव्य और जीवन के सही अर्थ को समझाने में सहायक हैं।
महाभारत का सांस्कृतिक महत्त्व
महाभारत का महत्त्व सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत अधिक है।
यह अपने आप में संपूर्ण साहित्य है। इसके शान्तिपर्व में राजनीति के विषयों का
व्यापक एवं गम्भीर प्रतिपादन है। इसके पात्रों को व्यास ने उपदेश का आधार बनाया है, जिससे लोग कर्तव्य की शिक्षा ले सकें। यह
एक ऐसा धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें प्रत्येक श्रेणी का मनुष्य
अपने जीवन के अभ्युदय की सामग्री प्राप्त कर सकता है। बाणभट्ट ने व्यास को कवियों
का निर्माता कहा है, क्योंकि महाभारत से कवियों को काव्य
सृष्टि के लिए प्रेरणा मिलती रही है। गीता में कर्म, ज्ञान
और भक्ति का सुन्दर समन्वय है। महाभारत में व्यास ने कहा है कि धर्म शाश्वत है।
अतः इसका परित्याग किसी भी दशा में भय या लोभ से नहीं करना चाहिए। शान्ति पर्व में
कहा गया है कि राजधर्म के बिगड़ने पर राज्य तथा समाज का सर्वनाश हो जाता है। मानव
जीवन को धर्म, अर्थ और काम के द्वारा मोक्ष की ओर ले जाने की
प्रक्रिया महाभारत में अच्छी तरह बताई गई है। इसलिए धर्म, राजनीति,
दर्शन आदि सभी विषयों का यह अक्षय कोष है।
गीता
महाभारत के भीष्म पर्व के अन्तर्गत 18 अध्यायों तथा 700
श्लोकों में व्याप्त गीता एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में विश्वविख्यात है। युद्ध
के आरम्भ में युद्ध के भयावह परिणाम की कल्पना करके अर्जुन विषादग्रस्त हो जाते
हैं, तब उन्हें कर्म के लिए
प्रेरित करते हुए कृष्ण उपदेश देते हैं। भगवान् कृष्ण के द्वारा उपदिष्ट होने से
इसे मूलतः भगवद्गीता कहते हैं। यद्यपि अर्जुन को युद्ध के लिए प्रवृत्त करने का
उद्देश्य दो-तीन अध्यायों में ही पूरा हो गया था, किन्तु
जीवन की व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक समस्याओं को सुलझाने के लिए अर्जुन के
प्रासंगिक प्रश्नों का उत्तर देने के कारण गीता का आकार बड़ा हो गया।
गीता के अध्यायों को योग कहा गया है। गीता में योग का
अर्थ है सम-दृष्टि (समत्वं योग उच्यते) अथवा कुशलतापूर्वक कर्म करना (योगः
कर्मसु कौशलम्) जिससे बन्धन न हो। गीता में मुख्य रूप से तीन योगों का
प्रतिपादन किया गया है- कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग। ये तीनों परस्पर सम्बद्ध तथा पूरक हैं।
कर्मयोग का अर्थ है, अपने निर्धारित कर्तव्यों का
निष्पादन, भौतिक लाभ की आशा रखे
बिना काम करना। इसे 'निष्काम कर्म' भी
कहा गया है। कामना से कर्म में आसक्ति होती है, जिससे बन्धन
की उत्पत्ति होती है। कृष्ण कहते हैं "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु
कदाचन" (तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल तुम्हारे वश में नहीं है।) ज्ञानयोग इसी की सिद्धि करता है। सर्वोपरि
ज्ञान यह है कि विश्व पर नियन्त्रण करने वाला परमात्मा (पुरुषोत्तम) है - 'वासुदेवः सर्वम्।' यह ज्ञान हो जाने पर ही
निष्काम कर्म संभव है, अन्यथा मनुष्य को स्वार्थ (सकाम कर्म)
से पृथक् नहीं किया जा सकता। कर्म, कर्मफल, प्रकृति आदि सब कुछ पुरुषोत्तम से नियन्त्रित होकर चल रहा है।
भक्तियोग परमात्मा को ही सर्वस्वसमर्पण का नाम है। इसे
योग-दर्शन में 'ईश्वर-
प्रणिधान' कहते हैं। अपने सभी कर्मों को ईश्वरार्पण की
दृष्टि से करें, तो मानव कभी असत्कर्म नहीं कर सकता। गीता का
वाक्य है- 'तत्कुरुष्व मदर्पणम्।'
भगवद्गीता पर संस्कृत में अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं। विश्व
की प्रायः सभी भाषाओं में इसके अनुवाद,
टीका, विवेचन, निबन्ध,
भाष्य आदि लिखे गए हैं। यह संसार के सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थों में
है।
महाभारत एवं आधुनिक समाज
महाभारत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह एक शाश्वत
धर्म- व्यवस्था का विधान करता है। यह शाश्वत धर्म व्यवस्था, अनेक दृष्टियों से भिन्न होते हुए भी
अभिन्न रूप वाली है। इस तथ्य को इस रूप में समझा जा सकता है कि महाभारतकार धर्म को
रूढ़ व्यवस्था नहीं मानते। वह उसे बदलते समाज एवं काल के साथ परिवर्तनीय स्वीकार
करते हैं।
मनुस्मृति एवं रामायण आदि में प्रतिपादित धर्म प्रायः
रूढ़ हैं जिनका उल्लंघन करने पर मनुष्य पाप का भागीदार बनता है। परन्तु महाभारतकार
का कहना है कि धर्म का निर्णय देश,
काल तथा व्यक्ति के अनुसार होता है। अतः उसे रूढ़ नहीं माना जा
सकता। शाश्वत धर्म को वेदव्यास भी मानते हैं जो त्रिकालाबाधित है तथा सदैव एकरूप
ही रहता है। उसका उल्लंघन अवश्य ही क्षम्य नहीं। परन्तु प्रत्येक युग का भी एक
विशिष्ट धर्म होता है जिसे युगधर्म कहा जाता है। इसी प्रकार आपद्धर्म तथा
व्यक्तिधर्म भी होते हैं। 
इस प्रकार महाभारत आज के समाज को धर्मभीरु नहीं, प्रत्युत धर्म के प्रति आश्वस्त बनाता
है। 'पञ्चानृतान्याहुरपातकानि' कहकर
पितामह भीष्म मानो आज के समाज को आश्वस्त करते हैं कि धर्म हमारा सन्तापक वैरी
नहीं, प्रत्युत सन्मित्र है, जो
प्रत्येक परिस्थिति में हमारी रक्षा करता है।

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