जैन दर्शन एक सामान्य परिचय
भारतीय दर्शन में जैन धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस धर्म की गिनती श्रमण दर्शन में होती है। यह ऐतिहासिक काल की दृष्टि से बौद्ध धर्म से पहले आता है। दोनों ही धर्मों की स्थापना छठी शताब्दी में हुई। इस प्रकार ये दोनों दर्शन समकालीन हैं। अधिकांश आधुनिक विद्वान् जैन धर्म का प्रवर्तक वर्धमान महावीर को मानकर उसका प्रारम्भ छठी शताब्दी ई. पू. में मानते हैं। जबकि जैन मान्यता के अनुसार महावीर चौबीस तीर्थंकरों में से अन्तिम अर्थात् चौबीसवें तीर्थंकर थे।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे, परन्तु उन्होंने धर्म के संवर्द्धन, सुधार, प्रचार और प्रसार में विशेष योगदान दिया। जैन शब्द की उत्पत्ति जिन से हुई है। जिन शब्द संस्कृत की 'जि' धातु से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है-जीतना। इस व्युत्पत्ति के आधार पर जिन वह है, जिसने अपने स्वभाव या मनोवेगों पर विजय प्राप्त कर ली है। 'जिन' के अनुयायी ही जैन कहलाते हैं। जैन धर्म के अनुयायी अपने धर्म प्रचारकों को 'तीर्थंकर' कहते हैं। तीर्थंकर सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो चुके होते हैं। इन्हें आदरणीय पुरुष भी कहा जाता है। इनके बताए मार्ग पर चलकर मनुष्य बन्धनमुक्त हो जाता है।
महावीर स्वामी का परिचय
महावीर स्वामी का जन्म 599 ई. पू. में वज्जि संघ के अन्तर्गत कुण्डग्राम के ज्ञातृक क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के महल में हुआ। इनके बचपन का नाम वर्द्धमान था। इनकी माता का नाम त्रिशला था। महावीर, माता-पिता की मृत्युपर्यन्त उनके साथ ही रहे। इन्होंने भी 30 वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ले लिया और 12 वर्ष की कठोर तपस्या करके ज्ञान प्राप्त किया, तब ये महावीर या 'जिन' कहलाए। कर्म बन्धन की ग्रन्थि खोल देने के कारण इन्हें निग्रन्थ भी कहा जाता है। 527 ई. पू. में पावापुरी में इन्होंने देह का त्याग किया। जैन धर्म में दो सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है-श्वेताम्बर एवं दिगम्बर। दोनों में मूल सिद्धान्तों का भेद नहीं है वरन् गौण बातों को लेकर ही भेद है। भद्रबाहु के अनुयायी दिगम्बर एवं स्थूलभद्र के अनुयायी श्वेताम्बर कहलाए। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी नग्न रहते हैं, वे किसी भी प्रकार का वस्त्र धारण नहीं करते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी सफेद वस्त्र धारण करते हैं, ये कुछ उदार होते हैं।
जैन साहित्य
साहित्य |
साहित्यकार |
तत्त्वार्थाधिगम |
उमास्वामी |
न्यायावतार |
सिद्धसेन दिवाकर |
षड्दर्शन समुच्चय |
हरिभद्रकृत |
षड्दर्शन विचार |
मेरुतुंग |
पंचास्ति कायसार |
कुन्दकुन्दाचार्य |
जैन श्लोक वर्तिक |
विद्यानन्द |
आत्मानुशासन |
गुणभद्र |
द्रव्य संग्रह |
नेमिचन्द्र |
स्याद्वाद् मंजरी |
मल्लिषेण |
जैन दर्शन में सत्त की अवधारणा
जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में सत् और असत् दोनों ही अंग विद्यमान रहते हैं। एक वस्तु अन्य वस्तु में रूपान्तरित हो सकती है, रूपान्तरित वस्तु अन्य वस्तु में बदल सकती है। जैन दर्शन उत्पाद, नाश और नित्यता से युक्त पदार्थ को सत् मानता है, जो पदार्थ या वस्तु ऐसी नहीं है, वह उसे असत् मानता है।
जैन दर्शन में द्रव्य की अवधारणा
द्रव्य गुणों का आधार है। जैन दर्शन में द्रव्य को धर्मी भी कहते हैं। धर्मी उसे कहते हैं जिसमें धर्म रहता है और दर्शनों की भाषा में धर्म गुण का पर्यायवाची है। प्रत्येक द्रव्य सदसत् धर्मों का आधार होता है। उसमें कुछ ऐसे आवश्यक गुण या धर्म होते हैं, जो उनकी सत्ता के लिए नितान्त आवश्यक होते हैं। इन्हीं के आधार पर हम उन्हें तद्द रूप में जानते और पहचानते हैं।
जैन दर्शन में द्रव्य के दो भेद किए गए हैं-अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अस्तिकाय का अर्थ है-बहुप्रदेश व्यापी और अनस्तिकाय का अर्थ है-एक प्रदेश व्यापी। जैन दर्शन केवल काल को ही अनस्तिकाय या एक प्रदेश व्यापी मानता है, शेष सभी को अस्तिकाय या बहुप्रदेश व्यापी।
जैन दर्शन में गुणों की अवधारणा
वस्तुओं के अनन्त धर्म होते हैं। धर्म किसी धर्मी का होता है, धर्म में जो लक्षण पाया जाता है, उसे धर्म कहते हैं। धर्मी का दूसरा नाम द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के धर्म होते हैं स्वरूप या नित्य धर्म तथा आगन्तुक या परिवर्तनशील धर्म। स्वरूप धर्म में होते हैं, जो द्रव्य में सदा विद्यमान रहते हैं। उदाहरणस्वरूप चैतन्य आत्मा का स्वरूप धर्म है। आगन्तुक धर्म द्रव्य में सदा वर्तमान नहीं रहते, वे आते-जाते हैं। जैन दर्शन में स्वरूप धर्मों को गुण कहते हैं तथा आगन्तुक धर्मों को पर्याय कहते हैं। इस प्रकार द्रव्य वह है जिसमें गुण व पर्याय हों।
जैन दर्शन में पर्याय की अवधारणा
जब मनुष्य राग-द्वेष आदि मानसिक बाधाओं पर विजय पाता है, तब अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा भूत विचारों को जान सकता है। ऐसे ज्ञान को मन:पर्याय कहते हैं, क्योंकि इससे दूसरों के मन में प्रवेश हो सकता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य के दूसरे धर्म को आगन्तुक या परिवर्तनशील धर्म कहते हैं। इसी आगन्तुक या परिवर्तनशील धर्म को जैन दर्शन में पर्याय कहा गया है।
जैन दर्शन में जीव का स्वरूप
जैन दर्शन में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। आत्मा के स्थान पर 'जीव' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ जीव, आत्मा का पर्यायवाची है। जैन दर्शन में जीव को एक चेतन द्रव्य माना गया है। चैतन्य जीव का मूल लक्षण है। यह जीव में सदैव विद्यमान रहता है। चैतन्य के अभाव में जीव की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जैन दर्शन में जीव को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि 'चेतना लक्षणो जीव:'।
जैन दार्शनिकों का जीव सम्बन्धी यह विचार न्याय-वैशेषिक के आत्मा विचार से भिन्न है, क्योंकि न्याय-वैशेषिक के अनुसार आत्मा स्वभावतः चैतन्य से रहित है। जब आत्मा का सम्पर्क पाँच इन्द्रियों तथा मन से होता है, तो आत्मा में चैतन्य का संचार होता है। अतः स्पष्ट है कि न्याय-वैशेषिक में चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण माना गया है, परन्तु जैन दर्शन में चैतन्य को आत्मा का स्वभाव माना गया है। चैतन्य जीव में सर्वदा अनुभूति रहने के कारण जीव को प्रकाशमान माना गया है तथा कहा गया है कि वह अपने आप को प्रकाशित करता है, साथ ही अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। जैन दार्शनिक जीव को नित्य मानते हैं, जबकि शरीर को नाशवान। जीव और शरीर की इस विभिन्नता के अतिरिक्त दूसरी विभिन्नता यह है कि जीव आकार विहीन है, जबकि शरीर आकार युक्त है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार जीव का अपना कोई आकार नहीं होता, किन्तु वह जिस शरीर को धारण करता है, उसी के अनुरूप आकार ग्रहण कर लेता है; जैसे प्रकाश का अपना कोई आकार नहीं होता, किन्तु जिस कमरे में वह प्रकाशित होता है, उसी कमरे का आकार ग्रहण कर लेता है।
शरीर के आकार में अन्तर होने के कारण जीव के भी भिन्न-भिन्न आकार हो जाते हैं। जैनों का यह मत कि आत्मा का विस्तार सम्भव है, अन्य दार्शनिकों को भी मान्य है। इस विचार को प्लेटो और अलेक्जेण्डर ने भी अपनाया है। उल्लेखनीय है कि जीव के विस्तार और जड़द्रव्य के विस्तार में भेद है। जीव का विस्तार शरीर को घेरता नहीं है, बल्कि यह शरीर के समस्त भाग में अनुभव होता है। इसके विपरीत जड़द्रव्य स्थान को घेरता है। जहाँ पर एक जड़द्रव्य का निवास है, वहाँ पर दूसरे जड़द्रव्य का प्रवेश पाना असम्भव है, परन्तु जिस स्थान में एक जीव है वहाँ दूसरे जीव का भी समावेश हो सकता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक कमरे में दो प्रकाश प्रकाशित हो सकते हैं।
जैन दार्शनिकों के अनुसार यह सारा संसार अनन्त जीवों से परिपूर्ण है। जीव का निवास केवल मनुष्यों, पशुओं और पेड़-पौधों में ही नहीं है, बल्कि छोटे-से-छोटे जीव-जन्तुओं, धातुओं, पत्थरों जैसे पदार्थों में भी होता है। जैन दर्शन में समस्त जीवों को दो श्रेणियों में बाँटा गया है-मुक्त जीव और बद्ध जीव।
मुक्त एवं बद्धजीव
मुक्त जीव उन आत्माओं को कहा गया है, जिन्होंने मोक्ष को प्राप्त कर लिया है। ‘बद्ध जीव' इसके विपरीत उन आत्माओं को कहा जाता है, जो बन्धनग्रस्त हैं। बद्ध जीव का विभाजन पुन: दो प्रकार के जीवों में किया गया है-'स्थावर' और त्रस'। स्थावर जीव, गतिहीन जीवों को कहा जाता है, ये पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और वनस्पति में निवास करते हैं। इनके पास सिर्फ एक ही ज्ञानेन्द्रिय होती है-स्पर्श की। इसीलिए इन्हें एकेन्द्रिय जीव भी कहा जाता है। इन्हें केवल स्पर्श का ही ज्ञान होता है। त्रस जीव वे हैं, जो गतिशील होते है।
विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु तथा मानव आदि इसी श्रेणी में आते हैं। ये निरन्तर विश्व में भटकते रहते हैं। जैन दार्शनिकों ने जितने भी जीवों की चर्चा की है, सभी चेतन हैं। परन्तु जहाँ तक चैतन्य की मात्रा का सम्बन्ध है, भिन्न-भिन्न कोटि के जीवों में चैतन्य की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। कुछ जीवों में चेतना कम विकसित होती है, तो कुछ जीवों में चेतना अधिक विकसित होती है। सबसे अधिक विकसित चेतना मुक्त जीवों की होती है। इन्हें एक छोर पर रखा जा सकता है। सबसे कम विकसित चेतना स्थावर जीवों में है, इसलिए इन्हें दूसरे छोर पर रखा जा सकता है।
जीव के अस्तित्व के लिए प्रमाण
जैन दर्शन में जीव के अस्तित्व के लिए निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं
● किसी भी वस्तु का ज्ञान उसके गुणों को देखकर होता है। इसी प्रकार हमें जीव के गुणों; जैसे-चेतना, सुख-दुःख, सन्देह, स्मृति इत्यादि की प्रत्यक्षानुभूति होती है। इनसे इन गुणों के आधार पर जीव का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। इस प्रकार जीव के गुणों को देखकर जीव के अस्तित्व का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है।
● शरीर को इच्छानुसार परिचालित किया जाता है। शरीर एक प्रकार की मशीन है। मशीन को चलायमान करने के लिए एक चालक की आवश्यकता होती है। इससे सिद्ध होता है कि शरीर का कोई-न-कोई चालक अवश्य होगा, वह जीव है।
● आँख, कान, नाक इत्यादि इन्द्रिय ज्ञान के विभिन्न साधन हैं। इन्द्रिय ज्ञान के साधन होने के फलस्वरूप अपने आप ज्ञान नहीं दे सकती हैं। इससे प्रमाणित होता है कि कोई-न-कोई सत्ता अवश्य है, जो विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करती है, वह सत्ता ही जीव है।
● प्रत्येक जड़द्रव्य के निर्माण के लिए उपादान कारण (सामग्री) के अतिरिक्त निमित्त कारण की भी आवश्यकता होती है। शरीर भी जड़द्रव्य के समूह से बना है। प्रत्येक शरीर के लिए विशेष प्रकार के पुद्गल कण की आवश्यकता होती है। ये पुद्गल कण शरीर के निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं हैं, इनको रूप और आकार देने के लिए निमित्त कारण की आवश्यकता होती है। वह निमित्त कारण जीव ही है।
जीव की विशेषताएँ
जीव की अनेक विशेषताएँ हैं, जो निम्न हैं।
● जीव ज्ञाता है, वह भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है, परन्तु स्वयं ज्ञान का विषय कभी नहीं होता।
● जीव कर्ता है, वह सांसारिक कर्मों में भाग लेता है। कर्म करने में वह पूर्णत: स्वतन्त्र है। वह शुभ और अशुभ कर्म से स्वयं अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जैनों का जीव सम्बन्धी यह विचार सांख्य दर्शन के आत्मा सम्बन्धी विचार से विरोधात्मक सम्बन्ध रखता हुआ प्रतीत होता है। सांख्य दर्शन में आत्मा को अकर्ता कहा गया है। जैन दार्शनिकों के अनुसार इस संसार में अनन्त जीव विद्यमान हैं।
● जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त है अर्थात् जीव में अनन्त ज्ञान, आनन्द दर्शन, अनन्त शक्ति तथा अनन्त आनन्द विद्यमान है। अनन्तचतुष्ट्य मुक्त जीव का स्वरूप है, बन्धन की स्थिति में जीव का अनन्तचतुष्ट्य से युक्त स्वरूप बाधित हो जाता है।
जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप
अस्तिकाय के दो प्रकारों में यह द्वितीय है, इसे जड़ भी कहते हैं। जीवों का निवास स्थान यह जगत है, जगत जड़द्रव्यों से बना हुआ है। कुछ जड़द्रव्यों के कारण जीव शरीर धारण करते हैं और कुछ बाह्य परिस्थिति का निर्माण करते हैं। अजीव द्रव्य पाँच होते हैं। इनका वर्णन निम्नलिखित है-
- पुद्गल
- आकाश
- काल
- धर्म
- अधर्म
पुद्गल
जैन दर्शन में पुद्गल जड़तत्त्व या भौतिक तत्त्व है। तत्त्व रूप में पुद्गल का प्रयोग बौद्ध दर्शन में जीव के लिए आया है, किन्तु जैन दर्शन में यह भौतिक तत्त्व के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यह विश्व का भौतिक आधार है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पुद्गल के गुण हैं। व्युत्पत्ति के अनुसार पुद्गल वह है, जिसका संयोग और विभाग हो सके। इस परिभाषा का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि पुद्गल के दो प्रकार हैं-
- अणुरूप और
- स्कन्ध रूप।
पुद्गल के विभाजन की अन्तिम एवं सूक्ष्मतम अवस्था जो पुन: अविभाज्य हो, अणु कहलाती है। अणु अविभाज्य होने के कारण निरवयव होता है। इसका आदि, अन्त एवं मध्य कुछ भी नहीं होता। यह सूक्ष्मतम, अविभाज्य, निरवयव, निरपेक्ष एवं नित्य सत्ता है। इसका न तो निर्माण होता है और न विनाश। यह स्वयं अमूर्त है, स्वयं अमूर्त होते हुए भी यह सभी मूर्त वस्तुओं का आधार है। जैन दर्शन के अनुसार अणु से पुद्गलों के स्कन्ध या संघात पुद्गलों का निर्माण होता है।
जैन दर्शन की सृष्टिमीमांसा में विश्व का ढाँचा परमाणुओं से निर्मित माना जाता है। सभी भौतिक पदार्थ जो इन्द्रियों से जाने जाते हैं साथ ही अनुभव में आने वाली सभी वस्तुएँ जिनमें जीवों के शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन भी शामिल हैं, अणुओं से निर्मित हैं। दो-या-दो से अधिक अणुओं के संयोग से स्कन्ध या संघात पुद्गल उत्पन्न होते हैं।
अणुओं में आकर्षण शक्ति होती है, जिससे अणुओं में संयोग और वियोग होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु स्कन्ध पुद्गल हैं और सपूर्ण जगत् इन्हीं स्कन्धों से निर्मित है। प्रत्येक दृश्यमान पदार्थ एक स्कन्ध है और भौतिक जगत एक स्कन्धों का समूह है। भौतिक जगत में दिखाई देने वाले परिवर्तन अणुओं के संयोग और विभाग से उत्पन्न होते हैं। संक्षेप में अणु पुद्गल अदृश्य है, अनुमानजन्य है, किन्तु स्कन्ध पुद्गल दृष्टिगोचर है। अणु पुद्गल कारण-रूप है और स्कन्ध पुद्गल कार्यरूप। उल्लेखनीय है कि जैन दर्शन कर्म को भी परमाणविक मानता है। भारतीय दर्शन में अणुवादी कल्पना वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शनों को प्राप्त होती है।
जैन एवं वैशेषिक अणुवाद में कुछ समानताएँ हैं। दोनों विचारधाराओं के विचारक अणुओं को अविभाज्य, निरवयव, नित्य, अदृश्य तथा भौतिक जगत का उत्पादन कारण मानते हैं। दोनों दर्शनों के अणुवादी विचारों में मतभेद भी हैं; जैसे-जैन दार्शनिक अणुओं में केवल परिमाणात्मक भेद मानते हैं, किन्तु वैशेषिक दार्शनिक अणुओं में परिमाणात्मक और गुणात्मक भेद स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक अणुओं के गुणों को नित्य नहीं मानते, किन्तु वैशेषिक इनके गुणों को भी नित्य मानते हैं। जैन एवं बौद्ध दर्शनों के अणुओं में मुख्य अन्तर यह है कि जैन दर्शन के अणु नित्य हैं, किन्तु बौद्ध दर्शन में अणुओं को अस्थायी और विनाशी माना जाता है। संक्षेप में पुद्गल विचार के जैन दर्शन में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
आकाश
आकाश के कारण ही विस्तार सम्भव है। आकाश के कारण ही सभी आस्तिकाय द्रव्यों को कोई-न-कोई स्थान प्राप्त है। जीव पुद्गल धर्म व अधर्म आकाश में स्थित है। आकाश दृष्टिगोचर नहीं होता है। आकाश का अस्तित्व अनुमान के कारण सिद्ध होता है। द्रव्यों का कायिक विस्तार स्थान के कारण ही हो सकता है। आकाश के बिना आस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार सर्वथा असम्भव है। द्रव्य आकाश को व्याप्त करता है।
जैन दार्शनिक के अनुसार आकाश के भेद
जैन दार्शनिक आकाश के दो भेद मानते हैं
● लोकाकाश यह वह है जो जीवों तथा अन्य द्रव्यों का आवास स्थान है। इसमें सभी भौतिक जीव समाहित हैं।
● अलोकाकाश यह लोकाकाश से परे है। यह अशरीरी, निष्क्रिय, शुद्ध और द्रव्य रहित है। यह शून्य है।
काल
उमास्वामी के अनुसार द्रव्यों की वर्तना क्रिया, नवीनत्व या प्राचीनत्व काल के ही कारण सम्भव है। काल भी अदृश्य है। काल भी आकाश की भाँति अनुमान पर ही आधारित है। काल के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। वर्तना के लिए काल आवश्यक है, क्योंकि भिन्न-भिन्न क्षणों में वर्तमान रहना ही वर्तना है। अवस्थाओं में परिवर्तन भी काल के बगैर सम्भव नहीं है। बिना काल परिवर्तन के एक ही वस्तु में दो परस्पर विरोधी गुण नहीं आ सकते हैं। काल आस्तिकाय द्रव्य नहीं है, क्योंकि इसका खण्डन नहीं हो सकता। समस्त विश्व में एक ही काल युगपत् है।
धर्म व अधर्म
आकाश एवं काल की भाँति धर्म व अधर्म का अस्तित्व भी अनुमान पर आधारित है। धर्म व अधर्म के लिए क्रमश: गति और स्थिति प्रमाण हैं। धर्म व अधर्म के कारण ही वस्तुओं में गति सम्भव हो पाती है। ये दोनों ही नित्य, अमूर्त तथा गतिहीन हैं। दोनों ही निष्क्रिय एवं लोकाकाश से व्याप्त हैं, परन्तु वे गति तथा स्थिरता के उपादान कारण हैं। धर्म केवल गतिशील द्रव्यों की गति में ही सहायक है। अधर्म द्रव्यों के स्थिर रहने में सहायक होता है। धर्म व अधर्म दोनों में परस्पर विरोध होता है। दोनों ही गति और स्थिति के उदासीन कारण हैं। धर्म व अधर्म परोक्ष साधन माने जा सकते हैं।
जैन दर्शन का अनेकांतवाद
अनेकान्तवाद जैन दर्शन का सार सिद्धान्त है। यह एक तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त है जो बहुतत्त्ववादी, वस्तुवादी तथा सापेक्षतावादी है। अनेकान्तवाद जैन दर्शन का मूल सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार जगत में अनेक वस्तुएँ विद्यमान हैं तथा प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। जैनों ने कहा है अनन्त धर्मकम् वस्तु।
जैन दार्शनिकों के अनुसार यह संसार चेतन जीवन और भौतिक जड़तत्त्व से परिपूर्ण है। चेतन जीव तथा भौतिक जड़तत्त्व नित्य, परस्पर भिन्न तथा स्वतन्त्र हैं। जैन दर्शन में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, बल्कि आत्मा के स्थान पर 'जीव' शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ जीव आत्मा का ही पर्यायवाची है। यहाँ जीव को एक चेतन द्रव्य की संज्ञा दी गई है। चेतना जीव का स्वरूप लक्षण है।
जैन दर्शन में जीव को ज्ञाता, कर्ता तथा भोक्ता माना गया है। जीव की प्रमुख विशेषता यह है कि जीव जन्म नहीं लेता, बल्कि शरीर धारण करता है। जीव अनेक हैं। जैन जीवों के सम्बन्ध में बहुतत्त्ववादी मत को अपनाते हैं तथा कहते हैं कि यह समस्त संसार अनन्त जीवों से परिपूर्ण है। जीव का विकास केवल मनुष्यों, पशुओं और पेड़-पौधों में ही नहीं है, बल्कि धातुओं और पत्थरों आदि में भी जीव पाया जाता है। जैन दार्शनिकों का जीव सम्बन्धी यह मत सर्वात्मवाद का पोषक प्रतीत होता है।
जीव के अतिरिक्त दूसरा तत्त्व 'जड़तत्त्व' है। इसे जैन दर्शन में पुदगल की संज्ञा दी गई है। जड़तत्त्व का ही दूसरा नाम पुद्गल है। जैन दर्शन अकेला दर्शन है जिसमें जड़तत्त्व के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके विपरीत सांख्य दर्शन में जड़तत्त्व के लिए प्रकृति, न्याय दर्शन में परमाणु, शंकर के दर्शन में माया तथा रामानुज के दर्शन में उचित शब्द का प्रयोग किया गया है।
जैन दर्शन में पुद्गल को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जो पूर्ण होते रहे और गलते रहे, वही पुद्गल है। यहाँ पुद्गल के दो प्रमुख भेद हैं-अणु और स्कन्ध। पुद्गल का वह अन्तिम अंश जिसे विभाजित न किया जा सके अणु कहलाता है। अनेक अणुओं से स्कन्ध की रचना होती है। स्कन्ध अणुओं का समुदाय है। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये पुद्गल के चार गुण हैं। ये चारों गुण अणु तथा स्कन्ध में भी विद्यमान रहते हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार सत्ता द्रव्यों के रूप में है। द्रव्य वह है जिसमें उत्पत्ति, विनाश और धोव्य (नित्यता) पाया जाता है।
जैन दर्शन में द्रव्य के लिए धर्मी तथा गुण के लिए धर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। जैन दार्शनिकों ने धर्मों की परिवर्तनशीलता तथा अपरिवर्तनशीलता के आधार पर धर्मों को दो भागों में विभाजित किया है। द्रव्य के अपरिवर्तनशील धर्मों को स्वरूप धर्म तथा परिवर्तनशील धर्मों को आगन्तुक धर्म की संज्ञा दी गई है तथा इन्हें क्रमश: गुण तथा पर्याय कहा गया है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार गुण नित्य तथा पर्याय अनित्य हैं। इस प्रकार जैन दार्शनिक अपने द्रव्य विचार में अद्वैत वेदान्त और बौद्धों के मतों को महत्त्व देते हैं, क्योंकि अद्वैत वेदान्तियों के अनुसार द्रव्य नित्य तथा बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य परिवर्तनशील (अनित्य) है। अत: स्पष्ट है कि जैनियों का द्रव्य सम्बन्धी दृष्टिकोण अद्वैत वेदान्तियों तथा बौद्ध दार्शनिकों के दृष्टिकोणों का समन्वय मात्र है, जो जैन दार्शनिकों के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। जैन दार्शनिकों का अनेकान्तवादी सिद्धान्त दो एकान्तिक दृष्टियों को मिलाने वाली कोई दृष्टि मात्र नहीं है, बल्कि एक स्वतन्त्र दृष्टि है, जिसके द्वारा वस्तुओं के पूर्ण स्वरूप का प्रकाशन होता है। द्रव्य को नित्य, अनित्य, एक, अनेक आदि मानने के कारण इनके मत को अनेकान्तवाद कहा जाता है। यह अनेकान्तवादी दृष्टिकोण जीवन में सहयोग, समन्वय तथा सहिष्णुता को बढ़ावा देता है। जैन दार्शनिकों का अनेकान्तवादी सिद्धान्त वास्तविकता का एक सुसंगत सिद्धान्त है।
अनेकान्तवाद सम्बन्धी जैन दार्शनिकों के तर्क
अनेकान्तवाद के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं
● हमारे दैनिक अनुभवों से यह सिद्ध होता है कि जगत में अनेक वस्तुएँ विद्यमान हैं।
● विभिन्न शोधों के आधार पर जब किसी वस्तु विशेष के सन्दर्भ में नवीन तथ्यों का प्रकाशन होता है, तो इससे सिद्ध होता है कि वस्तु में अनन्त धर्म हैं।
● वैचारिक विविधता की तर्कसंगत व्याख्या करने के लिए अनेकान्तवाद को मानना अनिवार्य है।
● एक ही वस्तु तथा विभिन्न वस्तुओं का देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार हमें भिन्न-भिन्न अनुभव होता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि वस्तुओं में अनन्त धर्म विद्यमान हैं।
● जगत में नाना प्रकार के दार्शनिक सिद्धान्त प्रचलित हैं जो कि विभिन्न दृष्टियों पर आधारित हैं। इस प्रकार सत्ता सम्बन्धी जितने सिद्धान्त हैं, वस्तुओं के उतने प्रकार के धर्म हैं।
● जगत में विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं की उपस्थिति भी द्रव्यों की विविधता को इंगित करती है।
अतः उपरोक्त तर्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि जैनियों का अनेकान्तवाद वास्तविक सुसंगत थ्योरी है।
जैन दर्शन में स्यादवाद
जैन दार्शनिकों का मत है कि जीव अल्पज्ञ है, क्योंकि कुछ कर्म पुद्गल पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं। साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है, वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण, सापेक्ष तथा एकांगी होता है। कारण यह है कि साधारण व्यक्ति किसी वस्तु को एक समय में एक ही दृष्टि से देख सकता है, इसलिए उस वस्तु के कुछ ही धर्मों को जान सकता है, परिणामस्वरूप वस्तु के सन्दर्भ में जो कुछ कहा जाता है वह अपूर्ण, सापेक्ष तथा एकांगी होने के कारण प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता है।
जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि इस सापेक्ष तथा एकांगी ज्ञान को प्रामाणिक बनाना है, तो ऐसे प्रत्येक सांसारिक ज्ञान के पूर्व हमें स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। उल्लेखनीय है कि यहाँ स्याद शब्द से तात्पर्य संशय, सम्भावना, अनिश्चितता तथा अज्ञेयता आदि से नहीं है, बल्कि यहाँ स्याद से तात्पर्य है, 'हो सकता है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार किसी वाक्य से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग यह संकेत करता है कि इस शब्द के साथ प्रयुक्त कथन की सत्यता सन्दर्भ विशेष पर निर्भर है, इसलिए यह कथन सापेक्षिक रूप से सत्य है। अन्य शब्दों में स्याद से युक्त कथन, काल, स्थान तथा दृष्टिकोण विशेष से आंशिक सत्य है, क्योंकि किसी अन्य दृष्टिकोण से कोई अन्य कथन भी उस वस्तु के बारे में प्रस्तुत किया जा सकता है, जो परस्पर भिन्न होते हुए भी अपने प्रसंग के अनुसार उस वस्तु के सन्दर्भ में आंशिक रूप से सत्य हो सकता है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार किसी भी सांसारिक ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग नहीं करना एकांगी मत के समतुल्य है, साथ ही अप्रामाणिक है। उदाहरणार्थ-कुछ अन्धे हाथी का आकार जानना चाहते थे। इस क्रम में किसी अन्धे ने हाथी का पैर पकड़ा और कहा कि हाथी स्तम्भ की तरह है, अन्य अन्धों ने भी हाथी के विभिन्न अंगों को (प्रत्येक अन्धे ने एक अंग को) स्पर्श किया; जैसे-पूँछ, पेट, कान आदि तथा क्रमश: रस्सी, दीवार तथा पंखे आदि के रूप में वर्णित किया।
जैन दार्शनिकों के अनुसार हाथी के स्वरूप के सन्दर्भ में प्रत्येक अन्धे का मत एकान्तिक था, क्योंकि प्रत्येक ने हाथी के किसी एक पक्ष का ही वर्णन किया था। उनमें हाथी के स्वरूप को लेकर परस्पर मतभेद भी पैदा हो गया था, किन्तु जैसे ही अन्धों को यह बताया गया कि प्रत्येक ने हाथी के अलग-अलग अंगों को स्पर्श किया है, तो उनका मतभेद दूर हो गया।
जैन दार्शनिक कहते हैं कि दार्शनिकों के बीच मतभेद का भी यही कारण है, क्योंकि वे किसी एक विषय को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखते हैं तथा उसी के अनुरूप अपना मत व्यक्त कर देते हैं और उसे ही सत्य मानने लगते हैं।
जैन दार्शनिकों के अनुसार उनके ये मत एकान्तिक हैं। अत: यदि दार्शनिकों को किसी विषय के सन्दर्भ में अपने मत को निर्दोष बनाना है अर्थात् प्रामाणिकता की श्रेणी में लाना है, तो प्रत्येक दार्शनिक को अपने मत से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है, क्योंकि स्याद से युक्त मत या कथन यह संकेत करता है कि उस कथन की सत्यता सन्दर्भ विशेष पर निर्भर है। इसके साथ ही यह अनुमान भी कर लिया जाता है कि वस्तु में अनेक धर्म विद्यमान हैं, जिनमें से एक या कुछ धर्मों का ज्ञान ही दार्शनिक को हो पाया है, अतः वस्तु से सम्बन्धित कथन आंशिक सत्य हैं।
जैन दार्शनिकों का स्याद सम्बन्धी उपरोक्त मत एक प्रकार का सापेक्षतावाद है, जिसकी मान्यता है कि हमारा समस्त ज्ञान सापेक्ष है, किन्तु यह प्रत्ययवादी सापेक्षतावाद न होकर वस्तुवादी सापेक्षतावाद है, क्योंकि जैन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि किसी वस्तु का ज्ञाता से पृथक् तथा स्वतन्त्र अस्तित्व है और वस्तुओं के गुण हमारे मन पर निर्भर न हो, वस्तु पर ही निर्भर (आश्रित) है अर्थात् वस्तु में ही रहते हैं, लेकिन जब यह कहा जाता है कि वस्तुओं के गुण वस्तु में नहीं, बल्कि हमारे मन में रहते हैं, तो यह दृष्टिकोण प्रत्ययवादी सापेक्षतावाद कहलाता है, किन्तु जैन दार्शनिक इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते हैं। वे अपने वस्तुवादी सापेक्षतावाद के सन्दर्भ में मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि वस्तु के गुण वस्तु में ही रहते हैं। इनके अनुसार हमारा कोई विचार तभी सत्य हो सकता है, जब उसकी संगति बाह्य जगत में विद्यमान वस्तु में विद्यमान हो। जैनियों का यह विचार पाश्चात्य दार्शनिकों; जैसे- पार्मेनाइडीज, प्लेटो तथा लॉक आदि से साम्यता दर्शाता है।
स्यादवाद की आलोचनाएँ
जैनियों ने अपना स्यादवाद सम्बन्धी जो उपरोक्त मत प्रस्तुत किया है, उसको लेकर मुख्यत: अद्वैत वेदान्तियों तथा बौद्ध दार्शनिकों ने गम्भीर आपत्तियाँ जताई हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-
● स्यादवाद के अन्तर्गत समस्त ज्ञान को (सांसारिक ज्ञान) सापेक्ष मानते हैं, निरपेक्ष ज्ञान को स्वीकार नहीं करते, ऐसी स्थिति में सापेक्ष शब्द को भी तर्कतः स्वीकार नहीं किया जा सकता।
● शंकराचार्य ने स्यादवाद को पागलों का प्रलाप कहा है।
● यदि सभी सिद्धान्त आंशिक सत्य हैं, तो फिर स्यादवाद भी स्वत: आंशिक सत्यठहरता है।
● जैन स्यादवाद का खण्डन स्वयं करते हैं। स्यादवाद की मीमांसा करते समय वे स्यादवाद को भूलकर अपने ही मत को एकमात्र सत्य घोषित करते हैं। इस प्रकार स्यादवाद का पालन वे स्वयं नहीं कर पाते हैं।
● 'केवल ज्ञान' को निरपेक्ष ज्ञान कहना स्यादवाद के विरुद्ध है।
स्यादवाद का महत्त्व
स्यादवाद के विरुद्ध उठाई गई आपत्तियों के बाद भी इस सिद्धान्त का अपना महत्त्व है, क्योंकि स्यादवाद के द्वारा जैन दार्शनिक किसी ज्ञान की सत्यता को सन्दर्भ विशेष के अनुसार आंशिक सत्य मानते हैं न कि उसे पूर्ण असत्य घोषित करते हैं। परिणामत: यह धार्मिक संघर्ष, दार्शनिक विवाद तथा अन्य मतभेदों का शान्तिपूर्ण ढंग से समाधान करने का उदार मार्ग प्रस्तुत करता है।
स्यादवाद परस्पर सहयोग, सामंजस्य तथा समन्वयवादिता की भावना को बल प्रदान करता है। साम्प्रदायिकता एवं कट्टरवादिता को दूर करने के सम्बन्ध में इसका महत्त्व है। यह बहुधर्मी समाज को मान्यता प्रदान करता है। स्यादवाद एक प्रकार की मानसिक अहिंसा है जो व्यक्ति में हठवादिता को समाप्त करके उसे उदार बनाती है, फलत: दूसरे के विचारों की सत्यता को आंशिक रूप से ही सही, किन्तु वह सत्य मानने लगता है।
जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त
- स्याद अस्ति
- स्याद नस्ति
- स्याद अस्ति च नस्ति च
- स्याद अव्यक्तव्यम्
- स्याद अस्ति च अव्यक्तव्यम् च
- स्याद नस्ति च अव्यक्तव्यम् च
- स्याद अस्ति च नस्ति च अव्यक्तव्यम् च
जैनदर्शन में सप्तभंगीनय सिद्धान्त को नयवाद भी कहा जाता है। स्यादवाद, सप्तभंगीनय का आधार है। स्यादवाद के अन्तर्गत जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है, वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण, सापेक्ष तथा एकांगी होता है, फलतः प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता, क्योंकि वह अपने आंशिक सत्य होने का प्रकाशन नहीं करता। अत: यदि उस ज्ञान को प्रामाणिकता की कोटि में लाना है, तो उस ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। यहाँ 'स्याद' से आशय है 'हो सकता है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार सांसारिक ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करने पर किसी वस्तु के सन्दर्भ में सात नय या परामर्श प्राप्त होते हैं। यहाँ नय से तात्पर्य किसी सांसारिक ज्ञान को स्याद शब्द का प्रयोग करके उसकी आंशिक सत्यता को अभिव्यक्त करने से है। सात भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से प्राप्त सात नयों को ही यहाँ सप्तभंगीनय कहा गया है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार सप्तभंगीनय सात नयों का एकीकरण है न कि उनका समन्वय। सप्तभंगीनय के सातों नय निर्णयात्मक होने के कारण आंशिक सत्य तथा सापेक्ष हैं। सापेक्ष तथा आंशिक सत्य होने के कारण इनसे किसी वस्तु का अनन्त धर्मात्मक रूप प्रकट होता है। उल्लेखनीय है कि जहाँ पाश्चात्य दर्शन में परामर्श के दो भेदों आस्तिवाचक तथा नास्तिवाचक को स्वीकार किया है, वहीं जैन दार्शनिक परामर्श या नय के सात भेदों को स्वीकार करते हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
स्याद अस्ति
यह प्रथम परामर्श है। उदाहरणार्थ यदि कहा जाए कि “स्याद घड़ा काला है' तो इसका अर्थ यह होगा कि किसी विशेष स्थान-काल और परिस्थिति में घड़ा काला है। यह भावात्मक वाक्य है।
स्याद नस्ति
यह अभावात्मक परामर्श है। घड़े के सन्दर्भ में अभावात्मक परामर्श इस प्रकार होना चाहिए कि स्याद घड़ा इस कमरे में नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि कमरे में कोई घड़ा नहीं है। स्याद शब्द से इस तथ्य का बोध होता है कि विशेष रूप और रंग का घड़ा किसी समय विशेष में कमरे के अन्दर नहीं है। स्याद शब्द से स्थान, समय तथा रंग का बोध होता है। स्याद शब्द से यह बोध होता है कि जिस घड़े के सम्बन्ध में परामर्श हुआ है, वह घड़ा कमरे में उपलब्ध नहीं है।
स्याद अस्ति च नस्ति च
वस्तु की सत्ता एक अन्य दृष्टिकोण से भी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है। जैसे—घड़ा काला हो भी सकता है और काला नहीं भी हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में स्याद है और स्याद नहीं है, का ही प्रयोग हो सकता है।
स्याद अव्यक्तव्यम्
यदि किसी परामर्श पर परस्पर विरोधी गुणों के सम्बन्ध में विचार करना हो तो उसके विषय में 'स्याद अव्यक्तव्यम्' का प्रयोग होता है। काले घड़े के सम्बन्ध में कभी ऐसा भी हो सकता है, जब उसके बारे में निश्चिततापूर्वक कुछ कहा ही न जा सके कि वह काला है या लाल, अत: घड़े के सन्दर्भ में ‘स्याद अव्यक्तव्यम्' का प्रयोग ही उचित होगा।
जैनों का यह चौथा परामर्श महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि सभी प्रश्नों के उत्तर भावात्मक या निषेधात्मक रूप में प्रस्तुत करना वांछनीय नहीं है। क्योंकि कुछ ऐसे भी प्रश्न होते हैं, जिनके सम्बन्ध में मौन रहना या यह कहना कि इस बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता है, प्रशंसनीय है।
जैनों का चौथा परामर्श इस बात का प्रमाण है कि वे विरोध को एक दोष (हिंसा) के रूप में स्वीकार करते हैं, अत: वे विरोध न करने तथा उसके स्थान पर चुप रहने का आदेश देते हैं। इस प्रकार जैनों का चौथा परामर्श तर्किक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है।
स्याद अस्ति च अव्यक्तव्यम् च
वस्तु एक ही समय में उपलब्ध भी हो सकती है और फिर भी अवर्णनीय हो सकती है। किसी विशेष दृष्टि से घड़े को काला कहा जा सकता है, परन्तु जब प्रकाश आदि का अभाव हो तो ऐसी स्थिति में घड़े के रंग का वर्णन करना असम्भव हो जाता है। अत: घड़ा काला है और अवर्णनीय है। यह परामर्श पहले तथा चौथे परामर्श को जोड़ने पर प्राप्त होता है।
स्याद नस्ति च अव्यक्तव्यम् च
दूसरे और चौथे परामर्श को मिला देने पर छठा परामर्श प्राप्त होता है। 'किसी विशेष दृष्टिकोण से किसी वस्तु के बारे में नहीं है' कहा जा सकता है, परन्तु उस वस्तु के ठीक से दिखाई न देने पर उसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता हैं; जैसे-घड़े के बारे में कहा जा सकता है कि वह काला नहीं है, किन्तु दिखाई ही न देने पर उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
स्याद अस्ति च नस्ति च अव्यक्तव्यम् च
यह परामर्श तीसरे और चौथे को जोड़ कर बनाया गया है, जिसके अनुसार एक दृष्टि से घड़ा काला है, दूसरी दृष्टि से घड़ा काला नहीं है और जब दृष्टि स्पष्ट संकेत न करे, तो अवर्णनीय है।
सप्तभंगीनय की आलोचना
सप्तभंगीनय की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जा सकती है-
● सप्तभंगीनय के सातों नय बिखरे हुए मोती के समान हैं, क्योंकि स्यादवाद निरपेक्ष ज्ञान को स्वीकार नहीं करता तथा कहता है कि समस्त ज्ञान सापेक्ष है, किन्तु समस्या यह है कि यदि निरपेक्ष को स्वीकार न किया जाए, तो सापेक्ष की बात कैसे की जा सकती है? अत: निरपेक्ष ज्ञान के अभाव में सापेक्ष ज्ञान को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
● सप्तभंगीनय मूलत: सत् और असत् नामक बुद्धि कोटियों से निर्मित है, जो स्वयं जैन दार्शनिकों ने अद्वैत वेदान्तियों तथा बौद्धों से उधार ली हैं।
● सप्तभंगीनय की परीक्षा करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि उसके अन्तिम तीन नय ऊपर के नयों का योग मात्र हैं। इसीलिए कुमारिल भट्ट का मत है कि इस आधार पर सात नहीं, बल्कि सैकड़ों नय बनाए जा सकते हैं।
उपरोक्त आलोचना के बाद भी सप्तभंगीनय सिद्धान्त का अपना महत्त्व है, क्योंकि इस सिद्धान्त के माध्यम से जैन दार्शनिक किसी मत को सापेक्ष तथा आंशिक सत्य घोषित करते हैं न कि पूर्णत: असत्य। अतः इसे स्वीकार करने पर
जीवन में अनेक विवादों से बचा जा सकता है तथा जीवन में परस्पर सहयोग, सामंजस्य तथा समन्वयवादिता की भावना को बढ़ावा दिया जा सकता है।
जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा
जैन दर्शन चेतना को जीव का स्वरूप धर्म मानता है। जीव में स्वभावतः अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य एवं अनन्त आनन्द होता है। आशय यह है कि जैन धर्म में जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त होता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि ज्ञान स्वयं को प्रकाशित करने के साथ-साथ अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। जीवात्मा किसी पदार्थ को जानने के साथ ही स्वयं को भी जानती है। यद्यपि जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त है, फिर भी उसका शुद्ध चैतन्य कर्म पुद्गलों के कारण ओझल रहता है। जीव कर्म पुद्गलों के आवरण के कारण अपने पूर्ण ज्ञान को अभिव्यक्त नहीं कर पाता। कर्म पुद्गलों का क्षय हो जाने पर ही जीव को ज्ञान प्राप्त हो पाता है।
जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार
जैन दर्शन में ज्ञान दो प्रकार का होता है-
- परोक्ष ज्ञान तथा
- अपरोक्ष ज्ञान।
परोक्ष ज्ञान
जो ज्ञान साधारणतया अपरोक्ष माना जाता है, वह केवल अपेक्षाकृत अपरोक्ष है। इन्द्रियों की अपेक्षा के बगैर स्वत: प्राप्त ज्ञान परोक्ष ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान में आत्मा का पदार्थ से साक्षात् सम्बन्ध होता है।
परोक्ष ज्ञान के प्रकार
सिद्ध सेन दिवाकर के अनुसार परोक्ष ज्ञान के प्रकार निम्नलिखित हैं-
● स्मृतिज्ञान जिसे पहले कभी सुना, देखा या अनुभव किया गया हो, ऐसे विषय का यथार्थ स्मरण स्मृतिज्ञान कहलाता है।
● प्रत्यभिज्ञा जब मनुष्य किसी वस्तु को देखता है, तो उसे सादृश्यता का बोध होता है और वह उस वस्तु को पहचान लेता है, तब ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञा ज्ञान कहलाता है। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ होता है-पहले से जाना पहचाना।
● तर्कज्ञान तर्क के आधार पर अपनी युक्ति प्रस्तुत करना तर्कज्ञान होता है।
● अनुमान ज्ञान हेतु के द्वारा साध्य का ज्ञान प्राप्त करना अनुमान ज्ञान कहलाता है।
● आगम आप्त पुरुषों के वचन आगम कहलाते हैं।
अपरोक्ष ज्ञान
जो ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से तथा मन से उत्पन्न होता है, वह अपरोक्ष ज्ञान कहलाता है, क्योंकि इसमें आत्मा एवं वस्तुओं के बीच कोई माध्यम जैसे मन या इन्द्रियाँ होती हैं।
अपरोक्ष ज्ञान के प्रकार
अपरोक्ष ज्ञान के दो प्रकार होते हैं-
- व्यावहारिक ज्ञान
- पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान
व्यावहारिक ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान में इन्द्रियों या मन के द्वारा बाह्य एवं आभ्यन्तर विषयों का ज्ञान होता है।
पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान कर्म बन्धन के नष्ट होने पर प्राप्त होता है। इसमें आत्मा और ज्ञेय वस्तुओं का सीधा सम्बन्ध होता है। राग, द्वेष, मोह, माया में फँसे व्यक्ति को यह ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान तीन प्रकार का होता है, जिसका उल्लेख निम्नलिखित है
❖ अवधि ज्ञान जब मनुष्य अपने कर्म को अंशत: नष्ट कर लेता है, तो वह एक ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेता है, जिसके द्वारा वह अत्यन्त सूक्ष्म, दूरस्थ तथा अस्पष्ट द्रव्यों को भी जान सकता है। ऐसा तभी सम्भव है जब मनुष्य कर्म बन्धन से छुटकारा पाने का सफल प्रयास करे। अवधि ज्ञान असीम ज्ञान है। इसके द्वारा सीमित ज्ञान ही प्राप्त हो सकता है, इसी कारण इसे अवधि ज्ञान कहते हैं।
❖ मन: पर्याय जब मनुष्य राग, द्वेष, मोह, माया आदि पर विजय पा लेता है अर्थात् सभी विकारों से मुक्त हो जाता है, तब वह अन्य व्यक्तियों के वर्तमान, भूत विचारों को जान सकता है। इस प्रकार का ज्ञान मन: पर्याय कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान से व्यक्ति दूसरे के मन को भी पढ़ने में सक्षम हो जाता है।
❖ केवल ज्ञान ज्ञान में बाधक सभी कर्मों के नष्ट हो जाने से आत्मा शुद्ध हो जाए अर्थात् विकार रहित हो जाए, तो अनन्त ज्ञान प्राप्त होता है, केवल ज्ञान प्राप्त होने पर सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार का ज्ञान केवल मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है। यह ज्ञान देश व काल की सीमाओं से रहित होता है, इसी कारण यह ज्ञान असीम व अनन्त होता है।
अलौकिक ज्ञान
उपरोक्त तीनों प्रकार के ज्ञान पूर्णत: अपरोक्ष हैं। इन्हें जैन दार्शनिक अलौकिक ज्ञान भी कहते हैं। अलौकिक ज्ञान के अतिरिक्त दो प्रकार का लौकिक ज्ञान होता है-
- मति व
- श्रुति
इनकी चर्चा इस प्रकार है-
मति ज्ञान इन्द्रियों एवं मन से प्राप्त ज्ञान को मति ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार मति ज्ञान के अन्तर्गत व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान (बाह्य) तथा अन्तर (प्रत्यक्ष, स्मृति) प्रत्यभिज्ञा अनुमान आते हैं। मति ज्ञान दो प्रकार का होता है-
- इन्द्रियजन्य ज्ञान तथा
- अतीन्द्रिय ज्ञान
इन्द्रियजन्य ज्ञान में इन्द्रियों का बाह्य वस्तु से सम्पर्क होता है। इन्द्रियजन्य ज्ञान चार प्रकार से प्राप्त होता है। उदाहरण किसी भी ध्वनि के सुनने पर सर्वप्रथम इन्द्रियाँ संवेदन प्राप्त करती हैं, परन्तु ज्ञात नहीं होता कि ध्वनि किसकी है। यह अवस्था 'अवग्रह' कहलाती है। अवग्रह से केवल विषय का ग्रहण होता है। तब प्रश्न उठता है कि ध्वनि किसकी है? यह अवस्था ‘ईहा' कहलाती है, इसके बाद एक निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त होता है कि ध्वनि अमुक वस्तु की है, इसे 'आवाय' कहते हैं। इस प्रकार जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका मन में 'धारण' होता है, इसको ‘धारण' कहते हैं।
श्रुति ज्ञान किसी के बताने, प्रामाणिक ग्रन्थों को सुनने अथवा आप्त वचनों से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे श्रुत ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार के ज्ञान के लिए इन्द्रिय ज्ञान का होना जरूरी है। अत: मति ज्ञान से पहले श्रुत ज्ञान आता है। श्रुति ज्ञान त्रैकालिक ज्ञान का विषय होता है। श्रुत ज्ञान अपरिणामी होता है।
No comments:
Post a Comment