सांख्य दर्शन का सामान्य परिचय एवं
उसका साहित्य
सांख्य दर्शन भारतीय दर्शन की चिन्तन
परम्परा में प्राचीनतम दर्शन है। इस दर्शन का उल्लेख पुराणों, महाभारत,
रामायण,
श्रुति
एवं स्मृति में है।गीता में भी सांख्य एवं योग दर्शन का उल्लेख मिलता है।अन्य
दर्शनों की तुलना में यह दर्शन सर्वाधिक प्रभावशाली है सांख्य के बारे में उक्ति
है कि “नास्ति सांख्य समं ज्ञानं' अर्थात् सांख्य के समान और कोई ज्ञान
नहीं है।
सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल
हैं। सांख्य दर्शन का मूल ग्रन्थ महर्षि कपिल का 'तत्त्व समास'
है।फिर
उन्होंने सांख्यमत को विस्तारपूर्वक समझाने की दृष्टि से 'सांख्य सूत्र'
नामक
विशद् ग्रन्थ की रचना की।वर्तमान में ईश्वरकृष्ण की 'सांख्यकारिका'
ही
उपलब्ध है। ईश्वरकृष्ण आचार्य पंचशिख के शिष्य थे।सांख्यकारिका ही सांख्य दर्शन का
आधार है।
सांख्य का शाब्दिक अर्थ संख्या से
है।विद्वानों के विचार हैं कि इस दर्शन में ऐसे तत्त्वों की संख्या गिनी जाती है,
जिनका
ज्ञान हमें मोक्ष दिलाने वाला है, इसलिए इसे सांख्य कहते हैं। सांख्य का
एक अर्थ सम्यङ्ख्यानम अर्थात सम्यक् ज्ञान
या पूर्ण विचार भी है, परन्तु ज्ञान केवल जानकारी मात्र नहीं है, बल्कि विवेक है
जो आत्मा से अविद्या को निकालकर आत्मा को मुक्त करता है।
सांख्य दर्शन की प्रमुख रचनाएँ एवं
रचनाकार
रचना
|
रचनाकार
|
सांख्यकारिका भाष्य
|
गौड़पाद
|
तर्क कौमुदी
|
वाचस्पति
|
सांख्य प्रवचन भाष्य
|
विज्ञान भिक्षु
|
सांख्य सार
|
विज्ञान भिक्षु
|
सांख्य सूत्र
|
कपिल मुनि
|
सांख्य प्रवचन सूत्र
|
कपिल मुनि
|
तत्त्व समाज
|
कपिल मुनि
|
सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद
सांख्य दर्शन एक द्वैतवादी दर्शन है,
क्योंकि
यहाँ प्रकृति तथा पुरुष को दो परम तत्त्वों के रूप में स्वीकार किया गया है। यह एक
अनीश्वरवादी, किन्तु आस्तिक दर्शन है, क्योंकि यह ईश्वर की सत्ता को तो
स्वीकार नहीं करता, किन्तु वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करता है। सांख्य एक
वस्तुवादी दर्शन है, क्योंकि यह ज्ञाता से स्वतन्त्र और पृथक् की सत्ता को स्वीकार करता
है। ईश्वरकृष्ण ने
अपनी सांख्यकारिका में सत्कार्यवाद की सिद्धि के लिए निम्नलिखित उक्ति दी है।
“असदकरनादुपादान ग्रहणात्
सर्वसम्भवाभावात्।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्
कार्यम्। ”
उपरोक्त उक्ति के निहितार्थ को
निम्नांकित बिन्दुओं से समझा जा सकता है
- असदकरणात् यदि कार्य उत्पन्न होने से पूर्व कारण में विद्यमान नहीं हो, तो वह अपने कारण से उत्पन्न नहीं हो सकता; जैसे—यदि तिल
में तेल नहीं होता, तो उसे लाखों प्रयत्न करने पर भी नहीं निकाला जा सकता।
- उपादानग्रहणात् कार्य की प्राप्ति के लिए हम उपादान कारण (सामग्री) को ग्रहण करते हैं अर्थात् किसी निश्चित कार्य की प्राप्ति के लिए कोई निश्चित सामग्री ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि उपादान कारण में कार्य पहले से
ही अस्तित्ववान होता है।
- सर्वसम्भवाभावात् यदि कार्य उत्पत्ति से पूर्व अपने कारण में अस्तित्ववान नहीं होता, तो किसी भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न हो जाता, किन्तु
ऐसा नहीं होता, बल्कि कारण से वही कार्य उत्पन्न होता है जो उसमें अस्तित्ववान होता
है।
- शक्तस्य शक्यकरणात् कारण में कार्य उत्पन्न करने की शक्ति होती है। यह शक्ति इसी रूप में होती है कि कार्य कारण में पहले से ही अस्तित्ववान है।
- कारणभावाच्च कारण और कार्य में कोई भेद नहीं है, क्योंकि कारण और कार्य दो भिन्न पदार्थ नहीं हैं, कारण
ही विभाजित होकर कार्य के रूप में प्रकट हो जाता है।
सांख्य दार्शनिकों ने उपरोक्त
सत्कार्यवाद से सम्बन्धित अपने जो विचार प्रस्तुत किए हैं, उसके विरुद्ध
असत्कार्यवादियों ने गम्भीर आपत्ति जताते हुए कहा कि सत्कार्यवाद के इस मत को
स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में अस्तित्ववान
रहता है। इस सन्दर्भ में असत्कार्यवादियों की मान्यता है कि कार्य एक नवीन
उत्पत्ति है, कार्य का कारण में कोई अस्तित्व नहीं रहता है। कार्य जब उत्पन्न होता
है, तभी अस्तित्ववान होता है। उत्पत्ति से पूर्व कार्य का कहीं कोई
अस्तित्व नहीं होता है। अपने इस मत को
सिद्ध करने के लिए असत्कार्यवादी दार्शनिक, जिनमें नैयायिक
मुख्य हैं, निम्न तर्क देते हैं-
- यदि कार्य, कारण में ही होता है तो उत्पत्ति का
क्या अर्थ है? जब वह पहले से ही था, तो क्यों कहते हैं कि उत्पन्न हो गया।
- यदि कार्य उत्पन्न होने से पहले ही अपने कारण में अस्तित्ववान था, तो फिर निमित्त कारण की क्या आवश्यकता है?
- कारण और कार्य में भेद है, ये पृथक्-पृथक् हैं। यदि भेद नहीं है, तो सांख्य
दार्शनिक यह क्यों कहते हैं कि कारण से कार्य उत्पन्न हो गया, यह
कहें न कि कार्य-से-कार्य उत्पन्न हो गया।
अन्ततः कहा जा सकता है कि कार्य-कारण
के सम्बन्ध में उपरोक्त मत जो सांख्य दार्शनिकों और नैयायिकों द्वारा प्रस्तुत
किया गया है, इनमें से किसी को भी पूर्णत: सत्य नहीं माना जा सकता। न तो यह कहा जा
सकता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान था और न ही कहा जा
सकता है कि कार्य पूर्णतः एक नवीन उत्पत्ति है। इस सन्दर्भ में महात्मा बुद्ध के
विचार को प्रस्तुत करते हुए बस इतना ही कहा जा सकता है कि “किसी कार्य को तब तक
उत्पन्न नहीं किया जा सकता, जब तक कुछ अनुकूल और बाह्य सहयोगी घटक
न हों। ” अन्य शब्दों में, कार्य को अपनी उत्पत्ति के लिए एक या
अधिक कारणों की अपेक्षा होती है, इनके अभाव में कोई कार्य उत्पन्न नहीं
हो सकता।
सांख्य दर्शन में प्रकृति विचार
सांख्य दर्शन में प्रकृति का शाब्दिक
अर्थ है सृष्टि से पूर्व अर्थात् प्रकृति वस्तुतः जगत की समस्त वस्तुओं से पूर्व
है। पुरुष के अतिरिक्त संसार की समस्त वस्तुएँ इसी प्रकृति से उत्पन्न हुई हैं।
स्वरूपत: प्रकृति निरवयव, शाश्वत, अदृश्य, अचेतन,
किन्तु
सक्रिय है। प्रकृति की तीन विधाएँ हैं, जिन्हें गुण कहा जाता है। ये गुण तीन
प्रकार के हैं तथा प्रत्येक गुण के तीन उपगुण हैं; यथा-सत् गुण
सुखात्मक, हल्का, ज्ञानात्मक; रज् गुण दुःखात्मक, गति,
उत्तेजक;
तम्
गुण भारी, अवरोध तथा अज्ञान। स्पष्ट है कि प्रकृति त्रिगुणात्मक है, अत:
प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण जगत की समस्त वस्तुएँ त्रिगुणात्मक हैं।
सांख्य दर्शन में प्रकृति को प्रकृति
के अतिरिक्त विभिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है; जैसे-सांख्य
दर्शन में प्रकृति को 'प्रधान' कहा गया है, क्योंकि वह विश्व का प्रथम कारण है।
प्रकृति को 'जड़' कहा गया है, क्योंकि वह मूलतः भौतिक पदार्थ है।
प्रकृति को 'माया' कहा गया है, क्योंकि वह जगत् को सीमित करती है।
प्रकृति को 'अविद्या' कहा गया है, क्योंकि वह ज्ञान की विरोधात्मक है
आदि।
सांख्य दर्शन द्वैतवादी दर्शन है,
क्योंकि
यहाँ पुरुष एवं प्रकृति को दो परम तत्त्वों के रूप में स्वीकार किया गया है। यहाँ
चेतना को पुरुष कहा गया है तथा इसे स्वरूपतः निष्क्रिय माना गया है तथा प्रकृति के
जड़ात्मक होने के बाद भी सक्रिय माना गया है और बताया गया है कि यह समस्त जगत
प्रकृति का ही कार्य व्यापार है। प्रकृति को 'बीज रूपा'
कहा
गया है, क्योंकि सांख्य दार्शनिकों के अनुसार प्रकृति समस्त जगत् को अपने में
अव्यक्त रूप में अन्तर्निहित किए रहती है।
सांख्य दार्शनिकों के अनुसार जब पुरुष
का प्रकृति से सम्पर्क होता है, तो प्रकृति के भीतर जो जगत् अव्यक्त
रूप में विद्यमान रहता है, वह क्रमश: व्यक्त रूप में प्रकट होने
लगता है, इसे ही सृष्टि का विकास कहते हैं। यद्यपि समस्त विकास प्रकृति से
होता है, परन्तु उसके लिए पुरुष का सहयोग अनिवार्य है। अत: पुरुष अनिवार्य
सहयोगी की भूमिका में है, क्योंकि वह विकास के लिए उत्प्रेरक का
कार्य करता है। सांख्य दर्शन में चेतना को 'पुरुष' कहा
गया है। जब तक प्रकृति तथा पुरुष में सम्पर्क नहीं होता, तब तक प्रलय
रहती है। इस समय प्रकृति में स्वरूप परिवर्तन होते हैं अर्थात् गुण आपस में नहीं
मिलते; जैसे-सत् सत में, रज रज में तथा तम् तम में ही परिवर्तित
होता है। इस अवस्था को ही साम्यावस्था कहते हैं। प्रलय का अन्त प्रकृति तथा पुरुष
के सम्पर्क से हो जाता है। सम्पर्क से प्रकृति में उथल-पुथल होती है और
साम्यावस्था भंग हो जाती है तथा गुण आपस में मिलने लगते हैं अर्थात् गुण क्षोभ
होता है। प्रकृति की इस अवस्था को विषमावस्था तथा होने वाले परिवर्तनों को 'विरूप
परिणाम' कहते हैं। इस अवस्था में वस्तुएँ उत्पन्न होना प्रारम्भ हो जाती हैं
अर्थात् सृष्टि होने लगती है। इस क्रम में सर्वप्रथम महत् आविर्भूत होता है। महत्
से आविर्भूत होता है अहंकार तथा अहंकार से आविर्भूत होता है एकादश इन्द्रियाँ
अर्थात् मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ। इसके साथ ही अहंकार
से तन्मात्र अर्थात् सूक्ष्म भौतिक तत्त्व-शब्द, स्पर्श, रूप,
स्वाद
तथा गन्ध आविर्भत होते हैं। तन्मात्र से आविर्भूत होते हैं पंचमहाभूत। इस क्रम में
सर्वप्रथम आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी आविर्भूत होते हैं। चूंकि प्रकृति से उत्पन्न होने
वाले सभी पदार्थ त्रिगुणात्मक हैं, इसलिए बुद्धि भी त्रिगुणात्मक होती है।
बुद्धि में अन्य गुणों की अपेक्षा सत् की मात्रा अधिक होती है। इस कारण बुद्धि में
पारदर्शिता होती है, जिससे चैतन्य उसमें प्रतिबिम्बित होने लगता है। उदाहरणार्थ-जिस
प्रकार दीपक से काँच की दीवार एक तरह चमकने लगती है, ठीक उसी प्रकार
सत् की अधिकता के कारण चैतन्य बुद्धि में प्रतिबिम्बित होने लगता है। बुद्धि में
चैतन्य के प्रतिबिम्बित होते ही सोपाधिक पुरुष को कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है
अर्थात् वह जान जाता है कि वह शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार
आदि नहीं, बल्कि चैतन्य स्वरूप तथा पूर्ण ज्ञानस्वरूप है, साथ
ही उसे यह भी ज्ञान हो जाता है कि वह अकर्ता, अभोक्ता तथा
निर्लिप्त दृष्टा है।
सांख्य दर्शन में सृष्टि को
प्रयोजनपूर्ण माना गया है। यहाँ सृष्टि के दो प्रयोजन माने गए हैं –
- सोपाधिक पुरुष प्रकृति का अनुभव करें।
- सोपाधिक पुरुष कैवल्य स्वरूप की
अनुभूति करें।
किन्तु सांख्य दार्शनिकों द्वारा
विकासवाद की उपरोक्त जो व्याख्या की गई है, वह युक्तिपूर्ण
नहीं है। इसके विपरीत शंकर ने कुछ गम्भीर आपत्तियाँ की हैं, जो निम्न हैं-
- यदि सृष्टि पुरुष व प्रकृति के संयोग पर निर्भर करती है, यदि दोनों संयुक्त हैं, तब
सृष्टि शाश्वत हो जाती है और यदि दोनों पृथक् हैं, तो सृष्टि
असम्भव है, क्योंकि पुरुष के निष्क्रिय होने के कारण वह प्रकृति से संयुक्त नहीं
हो सकता।
- पुरुष द्वारा बुद्धि में प्रतिबिम्ब देखा जाना सम्भव नहीं, क्योंकि बुद्धि का अस्तित्व सृष्टि से पूर्व सम्भव नहीं है।
प्रकृति के अस्तित्व की सिद्धि हेतु
युक्तियाँ
'प्रकृति' का शाब्दिक अर्थ
है 'सृष्टि से पूर्व' अर्थात् प्रकृति वस्तुतः जगत् की समस्त
वस्तुओं से पहले है। पुरुष के अतिरिक्त संसार की समस्त वस्तुएँ इसी प्रकृति से
उत्पन्न हुई हैं। प्रकृति जड़ात्मक, अचेतन, किन्तु सक्रिय
है। प्रकृति की तीन विधाएँ हैं, जिन्हें गुण कहते हैं। ये गुण तीन
प्रकार के हैं—सत् गुण, रज् गुण, तम् गुण। इन तीनों के गुणों के तीन उपगुण हैं-सत् गुण के तीन उपगुण
सुख, हल्का तथा ज्ञान; रज् गुण के तीन उपगुण दुःख, गति
तथा उत्तेजक तथा तम् गुण के तीन उपगुण भारी, अवरोधक तथा
अज्ञान हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रकृति त्रिगुणात्मक है। चूंकि प्रकृति
त्रिगुणात्मक है, अत: इससे उत्पन्न होने वाली संसार की समस्त वस्तुएँ त्रिगुणात्मक
हैं। सत् गुण, तम् गुण एक-दूसरे के विपरीत होते हैं। तम् गुण प्रकाश का आवरण करता
है। रज् गुण चंचलता का सूचक, उत्तेजक, लाल एवं
अस्थिरता का प्रतीक है। इसी गुण के कारण इन्द्रियाँ विषयोन्मुख होती हैं। सांख्य
दर्शन में प्रकृति की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करते हुए इसकी सिद्धि हेतु
सांख्य दार्शनिकों ने कुछ तर्क दिए हैं। ये तर्क सत्कार्यवाद तथा अनुमान पर आधारित
हैं।
सत्कार्यवाद के अनुसार विश्व की स्थूल
एवं सूक्ष्म वस्तुओं का मूल कारण वही हो सकता है, जो स्थूल
पदार्थो; जैसे-जल, शरीर, मिट्टी आदि को उत्पन्न करने के साथ-साथ सूक्ष्म पदार्थों को; जैसे—मन,
बुद्धि,
अहंकार
आदि को भी उत्पन्न करने में सक्षम हो। सांख्य मतानुसार यह सूक्ष्म-अति-सूक्ष्म जड़
पदार्थ सामर्थ्यवान प्रकृति ही हो सकती है। यदि प्रकृति को मूल कारण के रूप में
स्वीकार न किया जाए, तो अनावस्था दोष पैदा हो जाएगा। सूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय होने के कारण
प्रकृति का प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रकृति के कार्यों के आधार पर ही उसकी सत्ता का
अनुमान किया जाता है। ईश्वरकृष्ण ने अपनी सांख्यकारिका में
प्रकृति के अस्तित्व को सिद्ध करने हेतु निम्न उक्ति दी है-
"भेदानां परिमाणात् समन्वयात्
शक्तित: प्रवृत्तेश्च।
कारणकार्यविभागादविभागद् वैश्व रूपस्य।
"
इस कारिका में प्रकृति की सत्ता की
सिद्धि हेतु निम्नांकित पंक्तियाँ प्राप्त होती हैं-
- भेदानां परिमाणात् अर्थात् जगत् में
जितने भी विषय हैं, वे सब सीमित परिणाम के हैं तथा एक-दूसरे पर आश्रित हैं। अत: वे अपना
कारण स्वयं नहीं हो सकते, उनका कारण कोई असीम तत्त्व ही हो सकता
है और वह तत्त्व ही प्रकृति है।
- समन्वयात् अर्थात् हमारे अनुभव के विषय
भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी इनमें कुछ सामान्य विशेषताएँ हैं; जैसे-सभी विषय
कभी हमें सुख, कभी दुःख तथा उदासीनता प्रदान करते हैं। अत: इन विषयों का कोई
सामान्य कारण अवश्य है। इस कारण को ही प्रकृति कहा गया है।
- शक्तितः प्रवृत्तेश्य अर्थात् हमारे
अनुभव के जितने भी विषय हैं, उनमें प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति
है। इन विषयों में प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति जहाँ से आई है, वह
स्रोत ही प्रकृति है।
- कारण-कार्य विभागाद् अर्थात् जितने भी
अनुभव के पदार्थ हैं, वे सभी किसी के परिणाम हैं अर्थात् इनका कोई-न-कोई कारण अवश्य है। इन
कारणों का भी कारण है तथा जो सभी का अन्तिम कारण तथा स्वयं-भू कारण है, वही
प्रकृति है।
- अविभागद् वैश्व रूपस्य अर्थात्
प्रलयावस्था में सभी वस्तुएँ कहीं-न-कहीं जाकर लय हो जाती हैं अर्थात् जहाँ सबका
लय हो जाता है, वही प्रकृति है।
सांख्य दर्शन का पुरुष विचार
सांख्य दर्शन द्वैतवादी दर्शन है।
सामान्यत: जिस सत्ता को अधिकांशत: भारतीय दार्शनिकों ने आत्मा कहा है, उस
सत्ता को सांख्य दर्शन में पुरुष की संज्ञा दी गई है। सांख्य दर्शन का पुरुष
चारित्रिक रूप से भारत के अन्य दर्शन के आत्म तत्त्व से भिन्न है, क्योंकि
सांख्य दर्शन में चेतना को 'पुरुष' कहा गया है।
उल्लेखनीय है कि हम कभी यह नहीं कहते कि पुरुष वह है, जिसमें चेतना
होती है, बल्कि चेतना ही पुरुष है। यहाँ इस चेतन तत्त्व को ही पुरुष की संज्ञा
दी गई है।
पुरुष ज्ञानस्वरूप है। जब तक पुरुष
अनादि अज्ञान के कारण अपने आप को शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार
आदि उपाधियों से युक्त समझता है, तब तक इस पुरुष को सोपाधिक पुरुष कहते
हैं। जब यह अनादि अज्ञान समाप्त हो जाता है, तब सोपाधिक
पुरुष अपने को जान पाता है कि मैं तो केवल चेतना हूँ। मेरा मन, बुद्धि,
शरीर
आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं त्रिगुणातीत हूँ अर्थात् पुरुष सत्, रज,
तम्
आदि गुणों से परे है। पुरुष अनुभवकर्ता नहीं है। पुरुष निष्क्रिय है, निर्लिप्त,
दृष्टा
तथा नित्यमुक्त है, किन्तु जब पुरुष अपने आप को अज्ञानी, कर्ता, भोक्ता
आदि समझने लगता है, तब वह बन्धन में हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि बन्धन में सोपाधिक
पुरुष रहता है न कि 'पुरुष'। यह सोपाधिक पुरुष ही सत्, रज, तम् गुणों का
अनुभवकर्ता, सक्रिय तथा संसार की वस्तुओं में लिप्त रहता है।
अहंकार के तीन भेद होते हैं-
- सात्विक (वैचारिक) इसमें सत् गुण की
आपेक्षिक प्रधानता है। इस अहंकार से ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों तथा प्रज्ञा
एवं आन्तरिक इन्द्रिय मन का विकास होता है।
- राजस इसमें रजोगुण की प्रधानता होती
है। यह सात्विक एवं तामसिक दोनों अहंकारों में सहायक होता है। राजस दोनों को शक्ति
प्रदान करता है।
- तामस अहंकार से सर्वप्रथम
पंचतन्मात्रों रूप, रस, गन्ध, स्पर्श व शब्द की उत्पत्ति होती है। सूक्ष्म होने के कारण 'तन्मात्र'
तथा
दिखाई न देने के कारण ‘अविशेष' कहलाते हैं। इन्हीं पाँच तन्मात्रों से
पाँच महाभूत-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु व आकाश की उत्पत्ति होती है।
पुरुष के अस्तित्व सिद्धि हेतु तर्क या
युक्तियाँ
सांख्य दर्शन में पुरुष की स्वतन्त्र
सत्ता (अस्तित्व) सिद्ध करने के लिए निम्नांकित उक्ति दी गई है-
“संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादि
विपर्ययादधिष्ठनात्।
पुरुषोस्ति भोक्तृभावात कैवल्यार्थ
प्रवृत्तेश्च। ”
इस उक्ति के निहितार्थ को निम्नांकित
बिन्दुओं में समझा जा सकता है-
- संघातपरार्थत्वात् सभी जड़ वस्तुएँ
किसी अन्य के लिए हैं, स्वयं अपने लिए नहीं हैं और वह अन्य कोई चेतना ही हो सकती है। इस
चेतना को ही सांख्य में पुरुष कहा गया है।
- त्रिगुणादि विपर्ययात् त्रिगुणात्मक
प्रकृति के अस्तित्व से तर्कत: सिद्ध होता है कि कोई त्रिगुणातीत सत्ता भी है। उस
त्रिगुणातीत सत्ता को ही पुरुष कहते हैं।
- अधिष्ठानात् हमारा समस्त लौकिक ज्ञान
तथा सुख, दुःख, उदासीनता आदि का अनुभव ज्ञाता की ओर संकेत करता है। इस लौकिक ज्ञान
और अनुभव का आधार कोई चेतन तत्त्व ही हो सकता है और वह चेतन तत्त्व 'पुरुष'
है।
- भोक्तृभावात सभी जड़ वस्तुएँ भोग्य हैं,
सुखानुभूति
तथा दुःखानुभूति के लिए। अत: कोई भोक्ता अवश्य है जो चैतन्य है और वह चैतन्य ही
पुरुष है।
- कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च अनेक
व्यक्तियों में इच्छा होती है इस संसार से मुक्त होने की, क्योंकि सांख्य
के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य कैवल्य है। इसकी प्राप्ति की प्रवृत्ति या इच्छा
चेतन तत्त्वों में ही हो सकती है और वह चेतन तत्त्व पुरुष है। अत: उपरोक्त तर्कों
के आधार पर पुरुष के अस्तित्व की सिद्धि होती है।
पुरुष की बहुलता (अनेकता) के लिए
युक्तियाँ
सांख्य दर्शन पुरुष की अनेकता के प्रमाण प्रस्तुत करता है, जिससे
यह अन्ततः पुरुष बहुत्ववाद या अनेकात्मवाद में परिणत हो जाता है। सांख्य दर्शन जब
यह कहता है कि पुरुष अनेक हैं, तो इससे सोपाधिक पुरुष की अनेकता सिद्ध
होती है। इस अनेकता को सिद्ध करने हेतु निम्नांकित उक्ति प्रस्तुत करता है
“जननमरणकरणानां प्रतिनियमात्युगपत
प्रवृत्तेश्च।
पुरुष बहुत्व सिद्ध
त्रैगुण्यविवर्ययाच्चैव।। "
इस उक्ति के निहितार्थ को निम्नांकित
बिन्दुओं में समझा जा सकता है-
- जनन विभिन्न पुरुषों का जनन अलग-अलग
होता है, अत: 'पुरुष' की अनेकता सिद्ध होती है।
- मरण विभिन्न पुरुषों की मृत्यु अलग-अलग
होती है, अत: पुरुष अनेक हैं, क्योंकि यदि पुरुष को अनेक न माना जाए,
तो
फिर एक पुरुष की मृत्यु से बाकी समस्त मनुष्यों की मृत्यु को स्वीकार करना पड़ेगा,
किन्तु
ऐसा नहीं होता।
- करणानां विभिन्न पुरुषों का व्यक्तित्व
अलग-अलग होता है। अत: पुरुष अनेक हैं; जैसे--कोई बहरा है, कोई
लंगड़ा है, कोई तेज बुद्धि वाला है आदि। इससे सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक हैं।।
- अयुगपत प्रवृत्तेश्च विभिन्न पुरुषों
की प्रवृत्तियाँ/ क्रियाएँ अलग-अलग होती हैं। ये क्रियाएँ दो प्रकार की होती
हैं-शारीरिक तथा मानसिक; जैसे-कोई रो रहा है, हँस
रहा है, गा रहा है, क्रोध में है आदि। इससे सिद्ध होता है
कि पुरुष अनेक हैं। अत: स्पष्ट है कि सांख्य दर्शन में जगत् के विकास के लिए पुरुष
का औचित्य है, क्योंकि पुरुष ही विकास को निर्देशित करता है। यद्यपि समस्त विकास
प्रकृति से होता है, परन्तु उसके लिए पुरुष का सहयोग अनिवार्य है, इसलिए पुरुष
अनिवार्य सहयोगी की भूमिका में है, क्योंकि वह विकास के लिए उत्प्रेरक का
कार्य करता है।
पुरुष की अनेकता की आलोचना
पुरुष की अनेकता की आलोचना निम्नलिखित
तरीकों से की जा सकती है-
- सांख्य दर्शन में आध्यात्मिक पुरुष की विशेषताएँ बताई गई हैं, परन्तु उसकी
अनेकता के सन्दर्भ में लौकिक पुरुष को स्वीकार किया गया है।
- सांख्य का पुरुष विचार कर्म-नियम की अवधारणा से संगति स्थापित करने में सफल नहीं हो सका। यहाँ पुरुष निष्क्रिय होने के कारण अकर्ता माना गया है और ऐसी स्थिति में उसे भोक्ता नहीं मान सकते।
- पुरुष को चेतन मानने के साथ-साथ निष्क्रिय मानना असंगत है।
- यदि पुरुष स्वतन्त्र, नित्य एवं शुद्ध चैतन्य स्वरूप,
साथ
ही पूर्ण ज्ञान स्वरूप है, तो कभी अज्ञान से ग्रसित नहीं हो सकता
तथा बन्धन में नहीं पड़ सकता।
- सांख्य दर्शन में जीवों के गुण, क्रिया, जन्म-मरण और आकृति-प्रकृति के भेद से पुरुषों का अनेकत्व सिद्ध किया
गया है, परन्तु ये सभी तो शरीर के धर्म हैं, पुरुष के नहीं,
क्योंकि
पुरुष तो अकर्ता, नित्य, अभोक्ता है, फिर उसके बल पर पुरुष बहु-तत्त्ववाद की
स्थापना कैसे की जा सकती है? अतः पुरुष को अनेक बना देना सांख्य
दर्शन की गम्भीर त्रुटि है।
- सांख्य दर्शन में पुरुष व प्रकृति का
स्वरूप व सम्बन्धसांख्य दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। इसके अनुसार पुरुष और प्रकृति
संसार के दो परम तत्त्व हैं। इस द्वैतवादी दर्शन में पुरुष का अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ चेतना को पुरुष कहा गया है तथा इसे निष्क्रिय,
ज्ञानस्वरूप,
अकर्ता,
अभोक्ता,
सभी
प्रकार के अनुभवों से रहित, निर्लिप्त दृष्टा तथा नित्य मुक्त
बताया गया है। पुरुष के विपरीत प्रकृति को निरवयव, शाश्वत, अदृश्य,
अचेतन,
किन्तु
सक्रिय बताया गया है।
- सांख्य दार्शनिकों के अनुसार अनादि
अज्ञान के कारण पुरुष को अपने उपरोक्त स्वरूप का ज्ञान नहीं रहता। अत: यह अपने आप
को शरीर, मन, इन्द्रिय तथा बुद्धि आदि समझता है तथा अपने आप को कर्ता, भोक्ता
तथा अनुभवकर्ता आदि मानता है। ऐसे पुरुष को ही सोपाधिक पुरुष की संज्ञा दी गई है।
यह पुरुष ही बन्धन में रहता है, जब तक कि उसे विवेक ज्ञान नहीं हो जाता
है।
- सांख्य दार्शनिकों के अनुसार, पुरुष
और प्रकृति के सहयोग से सम्पूर्ण विश्व निर्मित होता है। उल्लेखनीय है कि पुरुष और
प्रकृति का सम्बन्ध दो भौतिक पदार्थों की तरह नहीं है। यह एक अद्भुत सम्बन्ध है जो
एक-दूसरे को प्रभावित करता है। जिस प्रकार विचार का प्रभाव शरीर पर पड़ता है,
उसी
प्रकार पुरुष का प्रभाव प्रकृति पर पड़ता है। जब तक पुरुष का प्रकृति से संयोग
नहीं होता, तब तक प्रकृति में साम्यावस्था रहती है। इस अवस्था में प्रकृति से
कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि गुण आपस में नहीं मिलते
अर्थात् सत् सत् में, रज रज् में तथा तम् तम् में ही परिवर्तित होता रहता है। इस प्रकार के
परिवर्तन को स्वरूप परिवर्तन कहा जाता है। वास्तव में, यह प्रलय की
अवस्था है, किन्तु जैसे ही पुरुष का प्रकृति से सम्बन्ध स्थापित होता है,
गुण
क्षोभ होता है अर्थात् गुण आपस में मिलने लगते हैं, फलत: सृष्टि
प्रारम्भ हो जाती है। प्रकृति की यह अवस्था विषमावस्था कहलाती है तथा प्रकृति में
होने वाले परिवर्तनों को विरूप परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है। प्रश्न यह है कि
यदि प्रकृति सक्रिय तथा पुरुष निष्क्रिय है, तो इन दोनों के
बीच सम्बन्ध कैसे स्थापित हो सकता है? क्योंकि सम्बन्ध तभी स्थापित हो सकता
है, जब दोनों सक्रिय हों। इस समस्या का समाधान सांख्य दार्शनिक कुछ
उपमाओं के द्वारा करते हैं।
- सांख्य दार्शनिक कहते हैं कि जिस
प्रकार चुम्बक सन्निधि से लोहा चलायमान होता है, उसी प्रकार
पुरुष की सन्निधि मात्र से प्रकृति क्रियाशील हो जाती है। इस उपमा के अतिरिक्त
पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध को अन्धे और लंगड़े के सहयोग की उपमा दी गई है। एक
कथानक के अनुसार जंगल में आग लग जाने पर जिस प्रकार अन्धे और लंगडे ने एक-दूसरे के
सहयोग से जंगल को पार कर लिया था, उसा प्रकार का संयोग परुष तथा प्रकति
के बीच स्थापित होता है। अचेतन प्रकति चेतन पुरुष के प्रयोजन को प्रमाणित करने के
लिए जगत् का विकास करती है। प्रकृति का विकास प्रयोजनात्मक है। प्रकृति अचेतन होने
के बाद भी प्रयोजन संचालित होती है, इसलिए सांख्य का सिद्धान्त अचेतन
प्रयोजनवाद है।
- जिस प्रकार गाय के स्तन से अचेतन दूध
बछड़े के पालन-पोषण के लिए प्रवाहित होता है या जिस प्रकार अचेतन वृक्ष मनुष्यों
के भोग के लिए फल का निर्माण करता है, उसी प्रकार अचेतन प्रकृति पुरुष लाभ के
लिए सृष्टि करती है। सृष्टि का उद्देश्य पुरुषों के भोग में सहायता प्रदान करना
है। पुरुष के मोक्ष के निमित्त प्रकृति जगत् का प्रलय करती है। पुरुष को प्रकृति
से अपने पार्थक्य का ज्ञान होने पर पुरुष को मोक्ष की प्राप्ति होती है। चूंकि
सांख्य दर्शन में पुरुष को अनेक माना गया है, अत: इनका मत है
कि कुछ पुरुषों के मोक्ष प्राप्त कर लेने के बाद भी अन्य पुरुषों के भोग हेतु जगत्
की सृष्टि होती रहती है। सक्रिय रहना प्रकृति का स्वभाव है। किसी पुरुष के मोक्ष
प्राप्ति के साथ ही उसके सन्दर्भ में प्रकृति की क्रिया रुक जाती है तथा प्रकृति
में विरूप परिवर्तन के स्थान पर स्वरूप परिवर्तन प्रारम्भ हो जाते हैं। यह
साम्यावस्था है, जिसे प्रलय भी कहा जाता है।
- सांख्य दार्शनिकों के अनुसार, जिस
प्रकार दर्शकों के मनोरंजन के बाद नर्तकी नृत्य करना बन्द कर देती है, उसी
प्रकार पुरुष के विवेक ज्ञान के पश्चात् प्रकृति सृष्टि से अलग हो जाती है। यहाँ
विवेक ज्ञान से आशय है कि पुरुष को यह ज्ञात हो जाता है कि मैं शरीर, मन,
इन्द्रिय
आदि नहीं हूँ, मैं कर्ता, भोक्ता तथा अनुभवकर्ता नहीं हूँ,
मैं
तो नित्य मुक्त, ज्ञान स्वरूप, त्रिगुणातीत, निर्लिप्त
दृष्टा मात्र हूँ।
प्रकृति एवं पुरुष के मध्य भेद
प्रकृति
|
पुरुष
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त्रिगुणात्मक
|
त्रिगुणातीत
|
अचेतन
|
चेतन
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सामान्य
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विशेष
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अविवेकी
|
विवेकी
|
दिखने वाली
|
दृष्टा
|
परिवर्तनशील
|
अपरिवर्तनशील
|
सक्रिय
|
निष्क्रिय
|
लिंग
|
अलिंग
|
सावयव
|
निरवयव
|
अंशव्यापी
|
सर्वव्यापी
|
पुरुष व प्रकृति के स्वरूप की आलोचना
सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति के
बीच जो सम्बन्ध स्थापित किया गया है, उसके विरुद्ध कुछ दार्शनिक समस्याएँ
हैं। सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट करने की कुछ
उपमाओं का प्रयोग किया गया है, जो विरोधपूर्ण प्रतीत होती हैं।
पुरुष और प्रकृति का सम्बन्ध अन्धे और
लंगड़े की तरह नहीं है। अन्धा और लंगड़ा दोनों ही चेतन और क्रियाशील हैं, जबकि
पुरुष और प्रकृति में से केवल प्रकृति को ही सक्रिय बताया गया है। अन्धे और लंगड़े
दोनों का उद्देश्य एक ही है, जंगल पार करना, परन्तु पुरुष और
प्रकृति में से केवल पुरुष का उद्देश्य ही मोक्ष प्राप्त करना है।
लोहे और चुम्बक का उदाहरण भी पुरुष और
प्रकृति के बीच सम्बन्ध की व्याख्या करने में असफल है। लोहा और चुम्बक दोनों ही
निर्जीव तथा अचेतन हैं. परन्त परुष और प्रकृति में से केवल प्रकृति ही अचेतन है.
पुरुष नहीं। चुम्बक लोहे को तभी आकृष्ट करता है, जब कोई लोहे को
चुम्बक के पास रखे। इसी प्रकार पुरुष तभी प्रकृति को प्रभावित कर सकता है, जब
कोई सत् अन्य पुरुष को प्रकृति के सम्मुख उपस्थित करे, किन्त सांख्य
दार्शनिक पुरुष और प्रकृति को छोड़कर किसी अन्य सत्ता को मौलिक नहीं मानते। अत:
पुरुष और प्रकृति के बीच सम्बन्ध सम्भव नहीं है।
सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति के
सम्बन्ध द्वारा विकास को प्रयोजनात्मक बताने का प्रयास किया गया है, किन्तु
यदि आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रयास असफल दिखाई देता है, क्योंकि
अचेतन होने के कारण प्रकृति का प्रयोजन मानना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता।
प्रयोजन की बात केवल चेतन सत्ता के
सन्दर्भ में ही की जा सकती है। प्रकृति को प्रयोजनपूर्ण सिद्ध करने के लिए सांख्य
ने कुछ उपमाओं का प्रयोग किया है जो उपयुक्त प्रतीत नहीं होती; जैसे—सांख्य
दर्शन में कहा गया है कि जिस प्रकार अचेतन दूध गाय के स्तन से बछड़े के लिए बहता
है, उसी प्रकार प्रकृति 'पुरुष' के भोग और मोक्ष
के लिए सृष्टि करती है, परन्तु सांख्य यहाँ भूल जाते हैं कि गाय से दूध मातृत्व प्रेम व
वात्सल्य से रचित होकर बहता है तथा जो गाय दूध दे रही है, वह चेतन है न कि
अचेतन। अत: यह उपमा अचेतन प्रयोजनवाद की पुष्टि करने में सफल नहीं हो पाती है।
अचेतन प्रयोजनवाद के सिलसिले में यह कहा जाता है कि अचेतन प्रकृति क्रिया करती है
और पुरुष भोग करता है। यदि इसे माना जाए तो कर्म-नियम का खण्डन होता है, क्योंकि
कर्म तो प्रकृति करती है, किन्तु कर्मों का फल पुरुष को भोगना
पड़ता है।
सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति को
स्वतन्त्र तथा निरपेक्ष माना गया है। यदि यह सत्य है, तो इनके बीच कभी
कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। शंकर के अनुसार, उदासीन पुरुष और
अचेतन प्रकृति का संयोग कराने में कोई भी तीसरा तत्त्व असमर्थ है।
इस प्रकार, पुरुष और
प्रकृति का संयोग काल्पनिक प्रतीत होता है। यदि पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध का
उद्देश्य भोग कहा जाए, तो प्रलय असम्भव हो जाएगी। यदि इस सम्बन्ध का उद्देश्य मोक्ष माना
जाए, तो सृष्टि असम्भव हो जाएगी। पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध का उद्देश्य
भोग और मोक्ष दोनों में से किसी को नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह
व्याघात जान पड़ता है।
अतः स्पष्ट है कि सांख्य दर्शन पुरुष
और प्रकृति के सम्बन्ध की व्याख्या करने में असफल रहा है। इस असमर्थता का कारण
सांख्य का द्वैतवाद है। सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति को स्वतन्त्र तथा
निरपेक्ष कहा गया। यदि पुरुष और प्रकृति एक ही तत्त्व के दो रूप माने जाते,
तो
यह कठिनाई उत्पन्न ही नहीं होने पाती।
सांख्य दर्शन का निरीश्वरवाद
ईश्वर की सत्ता को लेकर सांख्य दर्शन
के भाष्यकारों में पर्याप्त मतभेद हैं। उनमें अधिकांश तो ईश्वरवाद का खण्डन करते
हैं। ये भाष्यकार उन सभी आधारों का खण्डन करते हैं, जिनके आधार पर
ईश्वर से सृष्टि का उद्भव एवं विकास दिखाया जाता है। सनातन सांख्य मतावलम्बी मानते
हैं कि यह संसार कार्य श्रृंखला है इसलिए इसका कारण होना चाहिए, परन्तु
निःसन्देह वह कारण ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर को नित्य, निर्विकार
एवं पूर्ण परमात्मा माना गया है। जो परमात्मा निर्विकार, स्वयंभू एवं
पूर्ण है, वह परिवर्तनशील वस्तुओं का निमित्त कारण नहीं हो सकता अर्थात् वह
किसी भी क्रिया का प्रवर्तक नहीं हो सकता।
ईश्वर भौतिक तत्त्व नहीं है। अभौतिक
तत्त्व से भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अत: यह सिद्ध होता है कि जगत्
का मूल कारण नित्य, परन्तु परिणामी (परिवर्तनशील) है। यही नित्य परिणामी कारण प्रकृति
है। यह कहा जा सकता है कि प्रकृति तो जड़ है। इसकी गति को निरूपित एवं नियमित करने
के लिए चेतन सत्ता आवश्यक है, जो सृष्टि उत्पन्न करती है। जीवात्माओं
का ज्ञान सीमित रहता है, इसलिए जगत् के सूक्ष्म उपादान कारण को
नियन्त्रित नहीं कर सकते है।
अत: एक अनन्त बुद्धिमान चैतन्य युक्त
सत्ता की कल्पना करनी चाहिए जो प्रकृति का संचालन कर सके। इसी को ईश्वर कहते हैं,
परन्तु
ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर कुछ नहीं करता, वह किसी क्रिया
में प्रवृत्त नहीं होता, परन्तु प्रकृति का संचालन एक क्रिया
है। ईश्वर चूँकि पूर्ण है, अत: उसमें अपूर्ण इच्छा सम्भव नहीं है।
यदि यह कहा जाए कि ईश्वर का प्रयोजन अन्य जीवों की उद्देश्य पूर्ति है, तो
शंका उठती है कि बिना अपने किसी स्वार्थ के कोई भी व्यक्ति दूसरे की उद्देश्य
सिद्धि के लिए तत्पर नहीं रहता है। यदि ईश्वर में विश्वास किया जाए, तो
जीवों का स्वातन्त्र्य और अमरतत्त्व बाधित हो जाता है। यदि जीवों को ईश्वर का अंश
मान लें, तो उसमें ईश्वरीय शक्ति रहनी चाहिए, परन्तु यह देखने
में नहीं आती, इसके विपरीत यदि उन्हें ईश्वर के द्वारा उत्पन्न मानें, तो
फिर उनका मरण होना असम्भव है।
उपरोक्त सब बातों से निष्कर्ष निकलता
है कि प्रकृति ही संसार का मूल कारण है। प्रकृति अज्ञात रूप से स्वभावत: पुरुषों
के कल्याण के लिए उसी तरह सृष्टि रचना करती है, जिस तरह बछड़े
की सृष्टि के निमित्त गाय के थन से स्वत: दूध की धारा बहती है। सांख्य ईश्वरवाद का
निषेध करता है, अत: सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी है।
सांख्य दर्शन में मोक्ष (कैवल्य) की
अवधारणा
सांख्य दर्शन में भी अन्य भारतीय
दर्शनों (चार्वाक दर्शन को छोड़कर) की भाति मोक्ष को परम आध्यात्मिक लक्ष्य के रूप
में स्वीकार किया गया है। यहाँ मोक्ष से आशय 'समस्त दुःखों की
आत्यन्तिक निवृत्ति' मात्र से है न कि आनन्दपूर्ण अवस्था से। अन्यों की भाँति सांख्य भी
संसार को दु:खात्मक मानते हैं।
सांख्य के अनुसार, संसार
में तीन प्रकार के दुःख पाए जाते हैं-आध्यात्मिक दुःख अधिभौतिक दु:ख तथा अधिदैविक
दु:ख; इन तीन प्रकार के दु:खों को ही 'त्रिविध ताप'
की
संज्ञा दी गई है तथा इनसे मुक्त होने को ही जीवन के परम लक्ष्य के रूप में स्वीकार
किया गया है। यहाँ मोक्ष के लिए अपवर्ग शब्द का प्रयोग किया गया है।
अधिभौतिक दुःख बाह्य वस्तुओं; जैसे—बाढ़,
भूकम्प,
तूफान
आदि प्राकृतिक आपदाएँ, चोट लगना, घाव हो जाना इत्यादि अधिभौतिक दुःख हैं। अधिदैविक दःख अलौकिक
शक्तियों से जनित कष्ट; जैसे- भूत-प्रेतों, ग्रह-नक्षत्रों आदि से प्राप्त कष्ट
अधिदैविक कष्ट हैं। आध्यात्मिक दुःख शारीरिक व मानसिक पीड़ा से उत्पन्न दु:ख
आध्यात्मिक दु:ख कहलाते हैं; जैसे-बुखार होना, मन
का दुःखी होना, तनावग्रस्त रहना आदि।
सांख्य दर्शन के अनुसार वास्तविक रूप
में पुरुष, ज्ञानस्वरूप, चैतन्य तत्त्व, निष्क्रिय,
अकर्ता,
अभोक्ता,
समस्त
अनुभवों से रहित तथा नित्य मुक्त है, परन्तु अविवेक अथवा अविद्या के कारण वह
अपने ऊपर जड़ प्रकृति के गुणों को आरोपित कर लेता है अर्थात् वह अपने आपको शरीर,
मन,
बुद्धि,
अहंकार,
कर्ता,
भोक्ता,
अनुभवकर्ता
आदि समझने लगता है। प्रकृति के साथ पुरुष का अविवेक जनित यह तादात्म्य ही उसके
बन्धन तथा समस्त दुःखों का मूल कारण है। अत: मोक्ष प्राप्ति के लिए इस अविवेक और
इससे उत्पन्न प्रकृति के साथ पुरुष के तादात्म्य का विनाश अनिवार्य है। यह अविवेक 'तत्त्व
ज्ञान' द्वारा ही नष्ट हो सकता है। तत्त्व ज्ञान से आशय है पुरुष का अपने
वास्तविक स्वरूप को पहचान लेना। अन्य शब्दों में, तत्त्व ज्ञान से
आशय है-'आत्म-अनात्म विवेक' अर्थात् आत्मा अथवा पुरुष को अनात्म या
प्रकृति से पूर्णत: पृथक् समझना। इसी ज्ञान को सांख्याचार्यों ने 'विवेक
ख्याति' की संज्ञा दी है तथा मनन और निदिध्यासन को विवेक ख्याति के लिए
अनिवार्य माना है, वहीं कुछ अन्य सांख्य अनुयायी यम, नियम, आसन,
प्राणायाम,
प्रत्याहार,
धारणा,
ध्यान
तथा समाधि को विवेक ज्ञान के लिए अनिवार्य मानते हैं। इनके अनुसार इस अष्टांग
मार्ग का पालन करने से अविवेक दूर हो जाता है। अर्थात् पुरुष को अपने वास्तविक
स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। यही मोक्ष की अवस्था है, जिसमें समस्त
दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है।
सांख्य में जीवित रहते ही मोक्ष को
सम्भव माना गया है। ऐसी मुक्ति को जीवन मुक्ति तथा इसे प्राप्त करने वाले को 'जीवन
मुक्त' की संज्ञा दी गई है तथा बताया गया है कि जीवित रहते मोक्ष प्राप्त कर
लेने के बाद भी जीवन मुक्त तब तक विदेह मुक्ति को प्राप्त नहीं होता, जब
तक समस्त प्रारब्ध कर्मों का फल जीवन मुक्त द्वारा नि:स्वार्थ कर्म करते हुए भोग
नहीं लिया जाता। जैसे ही प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं, वह अपना शरीर
त्याग देता है अर्थात् विदेह मुक्त हो जाता है।
सांख्य दर्शन के अनुसार बन्धन और
मुक्ति दोनों व्यावहारिक हैं। पुरुष स्वभावतः नित्य मुक्त है। वह न तो बन्धन में
पड़ता है न मुक्त होता है। पुरुष को यह प्रतीत होता है कि बन्धन और मोक्ष होता है,
परन्तु
यह प्रतीति वास्तविकता का रूप नहीं ले सकती। अत: पुरुष बन्धन और मोक्ष दोनों से
परे है। सच यह है कि बन्धन और मोक्ष प्रकृति की अनुभूतियाँ हैं। प्रकृति ही बन्धन
में पड़ती और मुक्त होती है। पुरुष को बन्धन और मोक्ष का भ्रम मात्र हो जाता है।
सांख्य दर्शन एवं अरस्तू के कारण-कार्य
सिद्धान्त की तुलना
- कार्य-कारण भाव अरस्तू के दर्शन का एक
महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसके माध्यम से उसने जगत् की व्यापक
दार्शनिक व्याख्या करने का प्रयास किया। यहाँ कार्य-कारण भाव एक मौलिक एवं व्यापक
अवधारणा है। सांख्य दर्शन का कारण कर्ता सिद्धान्त सत्कार्यवाद कहलाता है। अरस्तू
की मान्यता है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु अपनी उत्पत्ति से पूर्व मैटर में
विद्यमान थी। अरस्तू मानते हैं कि जगत् की प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति के कारण
होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
- उपादान कारण उपादान कारण से आशय उस सामग्री से है, जिससे कार्य की
उत्पत्ति होती है; जैसे-घड़े के निर्माण के लिए मिट्टी उपादान (सामग्री) है।
- निमित्त कारण निमित्त कारण से आशय उन क्रियाओं, साधनों और उनका प्रयोग करने वाले से है,
जिनकी
सहायता से कार्य सम्पन्न किया जाता है। जैसे-घड़े के निर्माण के लिए चाक, डण्डा,
धागा
तथा कुम्भकार आदि निमित्त कारण हैं।
- आकारिक कारण आकारिक कारण को स्वरूप कारण भी कहा जाता है, जिससे आशय किसी वस्तु के प्रतिमान
(मॉडल) से है, जो निर्माणकर्ता के मस्तिष्क में रहता है।
- लक्ष्य कारण लक्ष्य कारण को अन्तिम कारण भी कहा जाता है जिससे आशय उस विचार से है जिसे मूर्त रूप प्रदान करना है: जैसे—कुम्भकार के मन में यह विचार रहता है कि मुझे घड़े का निर्माण करना है। वास्तव में, यह विचार एक प्रकार का प्रयोजन है, जिसकी प्राप्ति
करनी है।
- अरस्तू की मान्यता है कि आकारिक कारण
में ही निमित्त कारण और अन्तिम कारण समाहित हैं, क्योंकि मॉडल के
अनुरूप ही हम क्रियाओं और साधनों को अपनाते हैं तथा इस मॉडल का ही मूर्त रूप में
प्रकटीकरण करना हमारा लक्ष्य होता है। यही कारण है कि आगे चलकर अरस्तू ने कहा कि
किसी भी वस्तु और घटना की उत्पत्ति के मूल में वास्तव में, दो ही कारण होते
हैं-उपादान कारण तथा आकारिक कारण।
- अरस्तू ने जगत् की समस्त वस्तुओं और
घटनाओं के मूल में उपादान तथा आकारिक कारण को स्वीकार किया तथा इन्हें क्रमश: मैटर
और आकार की संज्ञा दी। अरस्तू ने मैटर को अनिश्चित तत्त्व की संज्ञा दी तथा बताया
कि मैटर में आकार ग्रहण करने तथा वस्तु के रूप में प्रकट होने की सम्भाव्यता होती
है। जो भी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, वे अपनी उत्पत्ति के पूर्व मैटर में ही
विद्यमान रहती हैं।
- अरस्तू के समान ही जहाँ सांख्य
दार्शनिक ‘प्रकृति' को जगत् की समस्त वस्तुओं का आदि कारण मानते हुए जगत् की समस्त
वस्तुओं को उनकी उत्पत्ति से पूर्व प्रकृति में ही अव्यक्त रूप में विद्यमान मानते
हैं, वहीं अरस्तू के समान आकारिक कारण को स्वीकार नहीं करते हैं। सांख्य
दार्शनिकों की मान्यता है कि किसी कारण से कार्य इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि
उसमें कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति होती है। किसी निश्चित कार्य के लिए किसी
निश्चित उपादान कारण की ही आवश्यकता होती है; जैसे-तेल
निकालने के लिए सामग्री के रूप में तिल की आवश्यकता है। सांख्य दार्शनिक जहाँ
मानते हैं कि कारण और कार्य में कोई भेद नहीं होता, क्योंकि कारण ही
विभाजित होकर कार्य के रूप में प्रकट हो जाता है, वहीं अरस्तू ने
कारण और कार्य में भेद किया है, साथ ही यह भी बताया है कि किसी समय में
जिसे कार्य की संज्ञा दी गई थी। ऐसा भी हो सकता है कि वह किसी अन्य कार्य की
उत्पत्ति के सन्दर्भ में कारण का रूप धारण कर ले। सांख्य दार्शनिक भी अरस्तू के
समान यह स्वीकार करते हैं कि कार्य किसी अन्य घटना के सन्दर्भ में कारण का रूप
धारण करके किसी अन्य कार्य को उत्पन्न कर सकता है।
- अरस्तू ने जगत् की समस्त वस्तुओं और
घटनाओं में आदि कारण के रूप में जहाँ मैटर और आकार को स्वीकार किया है, वहीं
सांख्य दार्शनिक एकमात्र प्रकृति को समस्त जगत् के आदि कारण तथा स्वयंभू कारण के
रूप में स्वीकार करते हैं, किन्तु दोनों ही इस मत पर सहमत दिखाई
देते हैं कि मैटर तथा प्रकृति से अपने आप कोई घटना या वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती।
इस सन्दर्भ में अरस्तू ने कहा है कि मैटर में विद्यमान सम्भाव्यता तब तक वस्तु के
रूप में प्रकट नहीं हो सकती, जब तक कि आकार उसे गतिशील न करे। इसी
प्रकार, सांख्य दार्शनिकों की मान्यता है कि प्रकृति से सृष्टि तब तक नहीं हो
सकती, जब तक कि पुरुष इससे संयुक्त न हो।
- अत: उपरोक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि
अरस्तू और सांख्य दार्शनिकों के कार्य-कारण भाव में यदि कुछ बातों को लेकर समानता
है, तो कुछ बातों को लेकर असमानता भी है।