मीमांसा दर्शन का सामान्य परिचय एवं साहित्य
पूर्व-मीमांसा अथवा मीमांसा दर्शन
मीमांसा दर्शन हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। इस शास्त्र को पूर्व-मीमांसा और वेदान्त को 'उत्तर मीमांसा' भी कहा जाता है।जैमिनी मुनि द्वारा रचित सूत्र होने से मीमांसा को 'जैमिनीय धर्म मीमांसा' कहा जाता है।
मीमांसा दर्शन
भारतीय दर्शन में वेदों की महत्ता सर्वविदित है। वेदों को मान्यता देने के कारण सांख्य, योग, वैशेषिक, मीमांसा, न्याय एवं वेदान्त, ये षड्दर्शन आस्तिक कहे जाते हैं। इन षड्दर्शनों में मीमांसा दर्शन पूर्णत: अग्रणी है, क्योंकि यह वेदों की सत्ता को स्थापित करता है तथा पूर्णत: वेदों पर आधारित है।
मीमांसा शब्द का सामान्य अर्थ 'विचार' करना है। भारतीय दर्शन के इतिहास में दो मीमांसा दर्शनों का उल्लेख मिलता है-पूर्व-मीमांसा एवं उत्तर मीमांसा। कालान्तर में इन्हें क्रमश: मीमांसा एवं वेदान्त के रूप में जाना जाता है। मीमांसा को पूर्व-मीमांसा कहने से स्पष्ट है कि यह वेदों के उपनिषद्-पूर्व भाग से सम्बन्धित है। उपनिषदों से सम्बन्धित दर्शन का नाम उत्तर मीमांसा (वेदान्त) है। वेदों के कर्मकाण्ड पर आधारित होने के कारण मीमांसा दर्शन को कर्म मीमांसा या धर्म मीमांसा भी कहा जाता है। इसके विपरीत वेदान्त वेदों के ज्ञानकाण्ड पर आधारित होने के कारण ब्रह्ममीमांसा भी कहलाता है।
मीमांसा दर्शन का उदय
विद्वानों के अनुसार जब बौद्ध मत का उदय हुआ, तो वैदिक कर्मकाण्ड पर प्रश्नचिह्न लगने लगे। वैदिक कर्मकाण्ड को लेकर शंकाएँ एवं विवाद बढ़ गए। लोगों को सन्देह होने लगा कि वैदिक रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड सब थोथे हैं, इनका कोई मूल्य नहीं है। हवन, बलि, यज्ञ इत्यादि अनावश्यक हैं, इनसे कोई लाभ नहीं होता। ऐसी स्थिति में वैदिक धर्म के अनुयायियों को आवश्यकता महसूस हुई कि वैदिक साहित्य में उपलब्ध ज्ञान का पुनः निरीक्षण एवं पुनर्निर्माण हो, ताकि लोगों के सामने उन्हें निर्दोष रूप में त्रुटिरहित रखा जा सके तथा बताया जा सके कि वैदिक कर्मकाण्ड क्या फल देने की शक्ति रखते हैं। ई. पू. चौथी शताब्दी में आचार्य जैमिनी ने ऐसा प्रयत्न किया। इनका ग्रन्थ जैमिनी सूत्र या मीमांसा सूत्र है। यह मीमांसा दर्शन का आधार है। जैमिनी को ही मीमांसा दर्शन का प्रणेता माना गया है।
मीमांसा दर्शन के आचार्य एवं साहित्य
आचार्य जैमिनी के पश्चात् अनेक महान् आचार्य हुए जिन्होंने मीमांसा सूत्र पर भाष्य एवं टीकाएँ लिखीं। शबर स्वामी ने जैमिनी सूत्र पर शबरभाष्य लिखी जो मीमांसा दर्शन को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। शबरभाष्य पर मीमांसा दर्शन के दो परवर्ती आचार्यों प्रभाकर मिश्र एवं कुमारिल भट्ट ने टीकाएँ लिखीं। इन दोनों आचार्यों का मीमांसा दर्शन में महत्त्व है। इन दोनों के प्रभाव से मीमांसा दर्शन में दो सम्प्रदाय अस्तित्व में आए, जिन्हें भट्ट मीमांसा एवं प्रभाकर मीमांसा के नाम से जाना जाता है। इन्हें क्रमश: भाट्टमत एवं गुरुमत भी कहते हैं।
भाट्टमत के संस्थापक आचार्य कुमारिल ने शबरभाष्य पर तीन विशालकाय वृत्ति ग्रन्थों की रचना की है, जिन्हें श्लोकवर्तिक, तन्त्रवर्तिक और टुप्टीका कहते हैं। पार्थसारथि मिश्र ने श्लोकवर्तिक पर न्याय रत्नाकर नामक टीका लिखी। मिश्रजी द्वारा रचित एक स्वतन्त्र ग्रन्थ 'शास्त्रदीपिका' अत्यन्त प्रसिद्ध है।
गुरुमत के संस्थापक आचार्य प्रभाकर मिश्र हैं। इन्होंने शबरभाष्य पर 'वृहती' और 'लध्वी' नामक भाष्य लिखा। उनके शिष्य शालिकनाथ ने वृहती पर 'ऋजुविमला' नामक टीका लिखी। भावनाथ मिश्र ने 'नयविवेक' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखकर प्रभाकर के विचारों की विस्तृत व्याख्या की। कालान्तर में चार अन्य टीकाएँ वरदराज की दीपिका, शंकर मिश्र की पंचिका, दामोदर सूरि की अलंकार और रन्तिदेव की तत्त्वविवेक लिखी गई। ये चारों टीकाएँ मीमांसा दर्शन को समझने के लिए उपयोगी हैं।
मीमांसीय आचार्य एवं साहित्य
साहित्य |
आचार्य |
मुरारीमत |
मुरारी मिश्र |
त्रिपादी नीतिनयन |
मुरारी मिश्र |
एकाद शाध्याधिकरण |
मुरारी मिश्र |
श्लोकवर्तिक |
कुमारिल भट्ट |
तन्त्र-वर्तिक |
कुमारिल भट्ट |
टुप्टीका |
कुमारिल भट्ट |
वृहती |
प्रभाकर मिश्र |
लध्वी |
प्रभाकर मिश्र |
दीपिका |
वरदराज |
वर्तिका भरण |
वेंकट दीक्षित |
न्याय सुधा |
सोमेश्वर भट्ट |
काशिका |
सुचरित मिश्र |
विधि विवेक |
मण्डन मिश्र |
मीमांसानुक्रमणी |
मण्डन मिश्र |
मीमांसा दर्शन की प्रमाण मीमांसा
मीमांसक, ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करने के कारण अनीश्वरवादी हैं, किन्तु नास्तिक नहीं हैं, क्योंकि ये वेदों को प्रामाणिक मानते हैं। मीमांसा दर्शन का मुख्य उद्देश्य वेदों के प्रामाण्य को स्थापित करना था, फलत: इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रमाण मीमांसा के विभिन्न तत्त्वों की विस्तृत विवेचना की गई है। उल्लेखनीय है कि मीमांसकों की प्रमाण मीमांसा यथार्थवादी है। मीमांसकों के अनुसार 'प्रमा' किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान है। महर्षि जैमिनी ने इस यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द प्रमाणों का विवेचन किया था। जैमिनी के बाद बहुत-से टीकाकार एवं स्वतन्त्र ग्रन्थकार हुए, उनमें दो मुख्य हैं-कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर। इन दोनों के नाम पर मीमांसा में क्रमश: दो सम्प्रदाय चल पड़े-भट्टमीमांसा एवं प्रभाकर मीमांसा।
प्रभाकर ने यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के पाँच प्रमाणों-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द तथा अर्थापत्ति को स्वीकार किया था, जबकि कुमारिल भट्ट ने प्रभाकर के पाँच प्रमाणों के अतिरिक्त अनुपलब्धि को भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के प्रमाण (साधन) के रूप में स्वीकार किया। उल्लेखनीय है कि प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण को नैयायिकों ने जिस रूप में स्वीकार किया वही दृष्टिकोण मीमांसकों का भी है, किन्तु उपमान तथा शब्द प्रमाण नैयायिकों से भिन्न हैं। मीमांसा दर्शन के अन्तर्गत प्रमाणों का विवरण निम्नलिखित है
प्रत्यक्ष
प्रभाकर के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान वह है, जिसमें विषय की साक्षात प्रतीति होती है। (साक्षात्-प्रतीतिः प्रत्यक्षम्)। उनके अनुसार किसी भी विषय के प्रत्यक्षीकरण में आत्मा, ज्ञान और विषय का प्रत्यक्षीकरण होता है। इस प्रकार प्रभाकर त्रिपुटी प्रत्यक्ष' का समर्थक है। प्रत्यक्ष ज्ञान तभी होता है जब इन्द्रिय के साथ विषय का सम्पर्क हो। प्रभाकर और कुमारिल दोनों पाँच बाह्य इन्द्रियाँ तथा एक आन्तरिक इन्द्रिय को मानते हैं। आँख, कान, नाक, जीभ व त्वचा बाह्य इन्द्रियाँ हैं, जबकि मन आन्तरिक इन्द्रिय है।
मीमांसा दर्शन के आचार्य कुमारिल और प्रभाकर दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान की दो अवस्थाएँ मानते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की पहली अवस्था वह है जिसमें विषय की प्रतीति मात्र होती है। हमें इस अवस्था में वस्तु के अस्तित्व मात्र का आभास होता है। वह है -केवल इतना ही ज्ञान होता है उसके स्वरूप का हमें ज्ञान नहीं रहता है। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान को 'निर्विकल्प प्रत्यक्ष' कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की दूसरी अवस्था वह है जिसमें हमें वस्तु का स्वरूप, उसके आकार-प्रकार का ज्ञान होता है। इस अवस्था में हम केवल इतना ही नहीं जानते कि वह वस्तु है, बल्कि यह भी जानते हैं कि वह किस प्रकार की वस्तु है। उदाहरणस्वरूप वह मनुष्य है, वह कुत्ता है, वह राम है इत्यादि। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान को सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं।
अनुमान
मीमांसा का अनुमान प्रमाण न्याय के अनुमान से मिलता है। न्याय में अनुमान का शब्दार्थ किया गया है-पश्चाद्ज्ञान। एक बात से दूसरी बात को देख लेना (अनु + ईशा) या एक बात को जान लेने के बाद दूसरी बात को जान लेना (अनु-मतिकरण) पश्चाद्ज्ञान या अनुमान कहलाता है। धुआँ को वहाँ अग्नि के होने का अनुमान लगाना इस प्रमाण का उदाहरण है। इसलिए प्रत्यक्ष वस्तु (धुआँ) के आधार पर अप्रत्यक्ष वस्तु (अग्नि) का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुमान की प्रक्रिया का आधार है।
उपमान प्रमाण
मीमांसकों का उपमान प्रमाण नैयायिकों से थोड़ा भिन्न है। न्याय दर्शन में उपमान प्रमाण के अन्तर्गत समानता का प्रत्यक्ष करके नाम एवं नामी के बीच सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, किन्तु मीमांसकों का मत है कि उपमान प्रमाण के अन्तर्गत हमें यह ज्ञात होता है कि स्मृत वस्तु प्रत्यक्ष वस्तु की तरह है। यहाँ प्रत्यक्ष वस्तु के बारे में किसी प्रामाणिक व्यक्ति के द्वारा कोई पूर्व सूचना किसी ज्ञाता को नहीं दी जाती है। ज्ञाता अपनी स्मृति के आधार पर स्मृत वस्तु एवं प्रत्यक्ष वस्तु के बीच समानता का ज्ञान प्राप्त करता है; जैसे—माना ज्ञाता को गाय का पूर्व ज्ञान है, जब वह वन में गया तो उसने गाय से सादृश्य (समानता) रखता हुआ एक पशु देखा तो उसे देखते ही उसने अपनी स्मृति के आधार पर यह ज्ञान प्राप्त कर लिया कि अरे गाय तो बिल्कुल उस पशु की तरह है। माना किसी ने उसे बताया कि वह नीलगाय है तब उसे यह ज्ञात हो गया कि गाय नीलगाय की तरह है।
शब्द प्रमाण
नैयायिकों के अनुसार शब्द अनित्य हैं, क्योंकि ये उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं। इसके विपरीत मीमांसक शब्दों को नित्य मानते हैं। इनके अनुसार वेद के शब्द नित्य हैं। इस सन्दर्भ में मीमांसकों की मान्यता थी कि शब्द उत्पन्न एवं नष्ट नहीं होते, बल्कि आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है; जैसे-बोलने से 'ॐ' शब्द उत्पन्न नहीं हुआ, 'ॐ' शब्द तो नित्य है आवाज के द्वारा 'ॐ' को व्यक्त किया गया है, अत: आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है शब्द नहीं, क्योंकि शब्द नित्य है।
नैयायिकों की मान्यता थी कि शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध नित्य है। शब्दों में अर्थ प्रदान करने की जो शक्ति है, नैयायिक उसे 'शब्द शक्ति' कहते हैं तथा बताते हैं कि शब्द शक्ति अनित्य है, क्योंकि यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करती है। इस सन्दर्भ में नैयायिकों का मत था कि चूँकि शब्दों के अर्थ ईश्वर ने निश्चित किए हैं तथा ऐसा हो सकता है कि इस सृष्टि के बाद अगली सृष्टि में ईश्वर शब्दों के अर्थ को बदल दे। अतः शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध अनित्य है, क्योंकि यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है।
मीमांसकों के अनुसार, शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध नित्य है। चूंकि मीमांसक अनीश्वरवादी हैं, इसलिए वे कहते हैं कि जब ईश्वर है ही नहीं तो शब्दों के अर्थ कौन परिवर्तित करेगा? अत: वेद शब्द नित्य हैं, क्योंकि इनकी रचना न तो मनुष्यों ने की है और न ही ईश्वर ने, इसलिए ये अपौरुषेय हैं। मीमांसकों के अनुसार, वेद स्वत: प्रकट हुए हैं। मीमांसकों के अनुसार वेद यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के साधन हैं।
अर्थापत्ति
न्याय दर्शन में अर्थापत्ति को प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु मीमांसक अन्य प्रमाणों की भाँति अर्थापत्ति को भी यथार्थ ज्ञान के प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। मीमांसकों के अनुसार किन्हीं दो तत्त्वों के विरोधाभास को दूर करने के लिए जब एक तीसरे तत्त्व की कल्पना की जाती है तो जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह यथार्थ ज्ञान है तथा इस ज्ञान को प्राप्त करने के प्रमाण को ही 'अर्थापत्ति' कहते हैं। उदाहरणार्थ “देवदत्त दिनभर भूखा रहता है, फिर भी दिनों-दिन मोटा होता जा रहा है। ” इन दो परस्पर विरोधी तत्त्वों के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हमें एक तीसरे तत्त्व की कल्पना करनी पड़ती है कि “देवदत्त रात में क्या खाता है?"
नैयायिक मीमांसकों पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि अर्थापत्ति कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष' ही है। इसके विपरीत मीमांसक कहते हैं कि देवदत्त के रात में खाने का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त नहीं किया गया, क्योंकि देवदत्त को रात में खाते हुए किसी ने नहीं देखा है। पुनः यह अनुमान पर भी आधारित नहीं है, क्योंकि यहाँ इन दोनों तत्त्वों के बीच किसी प्रकार का कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है तथा अनिवार्य सम्बन्ध के अभाव में अनुमान करना भी सम्भव नहीं है।
अनुपलब्धि (कुमारिल भट्ट)
कुमारिल भट्ट का मत है कि “किसी स्थान विशेष एवं काल विशेष में जो वस्तु उपस्थित होने योग्य है, वहाँ उस वस्तु का उपस्थित न होना ही उसके अभाव का सूचक है, इस अभाव का ज्ञान जिस प्रमाण की सहायता से होता है, उसे ही अनुपलब्धि कहते हैं। "
प्रभाकर अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते, जबकि कुमारिल भट्ट तथा अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। उदाहरणार्थ “शाम को छ: बजे मन्दिर में पुजारी उपस्थित होने योग्य है, वह प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त होना चाहिए, किन्तु यदि उसकी प्राप्ति नहीं होती तो हमें यह ज्ञात हो जाता है कि मन्दिर में पुजारी का अभाव है। ''
नैयायिक अनुपलब्धि को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते तथा कहते हैं कि प्राप्त होने योग्य से क्या आशय है? मन्दिर में अभाव तो अनेक वस्तुओं का है, क्या अभाव के आधार पर उन समस्त का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके विपरीत मीमांसकों का प्रत्युत्तर है कि “एक निश्चित स्थान एवं निश्चित समय पर जो वस्तु उपस्थित होने योग्य है, उसके उपस्थित नहीं होने पर ही उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ”
नैयायिकों के अनुसार, अभाव का ज्ञान तो प्रत्यक्ष के द्वारा हो जाता है, तो फिर अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता क्या है? इसके विपरीत मीमांसक कहते हैं कि जो वस्तु नहीं है, उसका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा किस प्रकार किया जा सकता है? अत: अनुपलब्धि एक स्वतन्त्र प्रमाण है।
प्रामाण्यवाद : स्वतःप्रामाण्यवाद तथा परतःप्रामाण्यवाद
ज्ञान प्रमा व अप्रमा दो प्रकार का होता है। प्रामाण्यवाद के अन्तर्गत यह बताने का प्रयास किया गया है कि ज्ञान में प्रामाण्य कैसे उत्पन्न होता है? ज्ञान में प्रामाण्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मुख्यत: दो सिद्धान्त हैं जो एक-दूसरे से विपरीत हैं तथा जिनका प्रतिपादन नैयायिकों तथा मीमांसकों द्वारा किया गया है। इस सम्बन्ध में नैयायिकों द्वारा परत:प्रामाण्यवाद तथा मीमांसकों द्वारा स्वत: प्रामाण्यवाद का प्रतिपादन किया गया है।
स्वतः प्रामाण्यवाद
प्रामाण्य के विषय में जो दर्शन यह स्वीकार करते हैं कि (जैसे-मीमांसा तथा सांख्य) ज्ञान का प्रामाण्य उस ज्ञान से बाहर किसी अन्य ज्ञान से नहीं हो सकता अर्थात् ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि जो ज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह ज्ञान अपनी उत्पत्ति के साथ ही स्वत:प्रामाणिक भी है। इसे ही 'स्वतःप्रामाण्यवाद' कहते हैं; जैसे—'आसमान में काले बादल हैं यह ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा उत्पन्न हुआ है। मीमांसकों की मान्यता है कि प्रमाण के आधार पर जो भी ज्ञान उत्पन्न होता है, उस ज्ञान का प्रामाण्य उसी ज्ञान में स्वत: निहित होता है। अत: आसमान में काले बादल हैं, यह ज्ञान स्वत: प्रमाणित है।
परतः प्रामाण्यवाद
ज्ञान के प्रामाण्य के सन्दर्भ में न्याय दार्शनिक, मीमांसकों के विपरीत परत:प्रामाण्यवाद को स्वीकार करते हैं। नैयायिकों के साथ-साथ बौद्ध दार्शनिक भी परतःप्रामाण्यवादी हैं। परतःप्रामाण्यवाद के सन्दर्भ में नैयायिकों का मत है कि ज्ञान की उत्पत्ति के साथ ही ज्ञान का प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता। क्रिया प्रवृत्ति करने के पश्चात् उस वस्तु से सम्बन्धित जो अन्य ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके आधार पर पूर्व ज्ञान की प्रामाणिकता को सिद्ध किया जाता है। उदाहरणार्थ प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा हमने यह ज्ञान प्राप्त किया कि वहाँ दूर रेगिस्तान में पानी है। प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञान तो उत्पन्न हो गया, किन्तु यह ज्ञान प्रमाणित (सत्) है, अभी यह निश्चित नहीं हुआ। ऐसा नैयायिकों का मत है। नैयायिकों के अनुसार, जब ज्ञान उत्पन्न होता है तो साथ ही क्रिया करने की प्रवृत्ति भी उत्पन्न होती है; जैसे-रेगिस्तान में पानी है तो इस ज्ञान के साथ ही यह क्रिया प्रवृत्ति उत्पन्न हुई कि चलो चलकर हाथ-मुँह धो लें। स्थान पर पहुँचें, यदि पानी मिल गया और हमने हाथ-मुँह धो लिया तो हमारे ज्ञान में प्रामाण्य भी उत्पन्न हो गया और यदि पानी नहीं मिला तो ज्ञान अप्रमाणित हो गया। अत: स्पष्ट है कि नैयायिकों के अनुसार कोई भी ज्ञान क्रिया प्रवृत्ति के सफल होने के पश्चात् ही प्रामाणिकता की कोटि में सम्मिलित होता है।
नैयायिकों के विपरीत मीमांसक कहते हैं कि यदि प्रामाण्य ज्ञान के साथ उत्पन्न नहीं होता, तो वह कभी-भी उत्पन्न हो ही नहीं सकता। इसे सिद्ध करने के लिए मीमांसक नैयायिकों से कहते हैं कि अपने इस ज्ञान को सिद्ध करो कि वहाँ रेगिस्तान में पानी है। नैयायिक कहते हैं कि देखो! हमने हाथ-मुँह धोया है, इससे सिद्ध होता है कि पानी है। मीमांसक पुन: कहते हैं कि सिद्ध करो कि तुमने हाथ-मुँह धोया है। नैयायिक कहते हैं कि कपड़े से हमने अपना मुँह-हाथ पोछा है देखो यह गीला है, अत: पानी है।
इसी प्रकार निरन्तर मीमांसकों व नैयायिकों के बीच तर्क-वितर्क की श्रृंखला चलती रहती है और नैयायिक क्रिया प्रवृत्ति करते रहते हैं तथा प्रत्येक बार क्रिया प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को सत् सिद्ध करने के लिए एक और सफल क्रिया प्रवृत्ति नैयायिकों द्वारा की जाती रहती है। यदि इस बीच नैयायिक रुक जाते हैं तो क्रिया प्रवृत्ति से जो अन्तिम ज्ञान उत्पन्न होता है, मीमांसक नैयायिकों से कहते हैं कि यह अन्तिम ज्ञान स्वत: प्रमाणित है, क्योंकि इसे प्रमाणित करने के लिए किसी क्रिया की आवश्यकता नहीं पड़ी। इसके विपरीत यदि नैयायिकों द्वारा क्रिया की श्रृंखला चलती रहती है, तो ज्ञान की प्रामाणिकता को कभी भी सिद्ध ही नहीं किया जा सकता ऐसा मीमांसकों का मत है।
मीमांसा दर्शन में श्रुति का महत्व
श्रुति
श्रति हिन्दू धर्म के प्राचीन और सर्वोच्च धर्मग्रन्थों का समूह है। श्रुति का शाब्दिक अर्थ है-सुना हुआ यानि ईश्वर की वाणी जो प्राचीनकाल में ऋषियों द्वारा सुनी गई थी और शिष्यों के द्वारा सुनकर जगत् में फैलाई गई थी। श्रुति को वेद भी कहा गया है या वेद को श्रुति भी कहा गया है। इसके अन्तर्गत चार वेद आते हैं-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद फिर सभी वेद के अपने उपवेद, ब्राह्मण उपनिषद् आदि हैं अर्थात् वैदिक साहित्य को श्रुति साहित्य भी कहा जाता है। वेदों को श्रुति दो कारणों से कहा जाता है। इनको परम्-ब्रह्म परमात्मा ने प्राचीन ऋषियों को उनके अन्तर्मन में सुनाया था जब वे ध्यानमग्न थे अर्थात् श्रुति ईश्वर रचित है। वेदों को पहले लिखा नहीं जाता था, इनको गुरु अपने शिष्यों को सुनाकर याद करवा देते थे और इसी तरह परम्परा चलती थी।
भारतीय दर्शन में श्रुति (वेद) का महत्त्व
भारतीय धर्म एवं दर्शन में वेद का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। षड्दर्शन सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा तथा वेदान्त आस्तिक दर्शन हैं अर्थात् ये वेदों में आस्था रखते हैं। इसके विपरीत वेदों में आस्था न रखने वाले दर्शन नास्तिक दर्शन कहलाते हैं। चार्वाक, बौद्ध एवं जैन नास्तिक दर्शन हैं। उपरोक्त षड्दर्शनों में मीमांसा ही एक ऐसा दर्शन है, जो वेदों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। वेदों में आस्था होने के कारण इसे आस्तिक दर्शन की श्रेणी में रखते हैं।
मीमांसा दर्शन में न्याय दर्शन के चार प्रमाण-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द प्रमाण के अतिरिक्त दो अन्य प्रमाण-अर्थापत्ति और अनुपलब्धि जोड़े गए हैं, परन्तु धर्म के निर्धारण के लिए मात्र एक शब्द प्रमाण को ही माना गया है। शब्दों एवं वाक्यों से जो वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है, उसे शब्द कहते हैं। शब्द दो प्रकार के स्वीकार किए गए हैं, परन्तु उसमें केवल वैदिक ग्रन्थ के वचनों को ही प्रमाण माना गया है।
मीमांसा दर्शन में वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। अपौरुषेय का तात्पर्य है जिसकी रचना किसी पुरुष द्वारा न की गई हो। सभी आस्तिक दर्शन वेदों को अपौरुषेय मानते हैं, परन्तु मीमांसा दर्शन का अपना विचार है। न्याय दर्शन भी वेदों को मनुष्य द्वारा रचित नहीं मानता, वह उन्हें सर्वज्ञ परमात्मा के द्वारा सृष्ट मानता है, परन्तु न्याय दर्शन ईश्वर को पुरुष विशेष कहता है अत: वेदों को वह पौरुषेय ही मानता है।
सांख्य दर्शन भी वेदों को अपौरुषेय मानता है। उसकी भी मान्यता है कि किसी पुरुष में वेटों की रचना करने की सामर्थ्य नहीं है। मीमांसा भी वेदों को अपौरुषेय मानता है। मीमांसक तर्क देते हैं कि वेद स्वयं इस बात का प्रमाण है कि उनकी रचना किसी पुरुष ने नहीं की है। वेदों में कहीं भी इसके कर्ता का नामोल्लेख नहीं है।
वेदों में ऋषि के नाम वर्णित हैं, परन्तु ऋषि का अर्थ मन्त्रकर्ता नहीं है। ऋषि का तात्पर्य मन्त्र दृष्टा है। वेदों को अपौरुषेय कहने का आशय कदापि यह नहीं है कि इसकी रचना किसी पुरुष ने नहीं की बल्कि ईश्वर ने की मीमांसा के अनुसार वेद नित्य हैं। वे न तो मनुष्य और न ही ईश्वर द्वारा रचे गए, बल्कि वे नित्य शब्दों का समूह होने के कारण नित्य हैं।
श्रुतिवाक्य
जैमिनी के मीमांसासूत्र के तीसरे अध्याय में वेदों की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए श्रुति आदि प्रमाणों की योजना बताई गई है। 'श्रुति' उस वाक्य को कहते हैं, जो किसी अन्य वाक्य की अपेक्षा नहीं रखता।
श्रुतिवाक्य अथवा वेदवाक्यों को दो भागों में बाँटा गया है
- सिद्धार्थ वाक्य
- विधायक वाक्य
सिद्धार्थ वाक्य
सिद्धार्थ वाक्यों से किसी सिद्ध पुरुष के बारे में ज्ञात होता है। प्रभाकर एवं कुमारिल दोनों की मान्यता है कि कर्त्तव्य निर्देश ही वेद का अन्तिम अर्थ है तथा सिद्धार्थ वाक्यों का अर्थ भी क्रिया के सन्दर्भ में करना चाहिए, वेद में आत्मा तथा ब्रह्म के बारे में जितने भी सिद्धार्थ वाक्य हैं, उनका सम्बन्ध योगादि कर्मों के विधायक वाक्यों से ही है। वे परोक्षत: विहित कर्मों में प्रवृत्त होने तथा निषिद्ध कर्मों से रोकने में सहायक हैं। महर्षि जैमिनी के अनुसार, यदि सिद्धार्थ वाक्य विधिवाक्य का सहायक नहीं है, तो वह निरर्थक है।
विधायक वाक्य
विधायक वाक्य किसी कार्य को करने का आदेश देता है। यज्ञ आदि करने के लिए कर्त्तव्य क्रिया के विधायक वेदवाक्य स्वयं प्रमाण हैं। विधायक वाक्य दो प्रकार के होते हैं-प्रथम उपदेशक वाक्य, जो बताते हैं कि ऐसा करना चाहिए। द्वितीय अतिदेश वाक्य, जो बताते हैं कि पूरे माह दान के द्वारा स्वर्ग का साधन करें। सिद्धार्थ वाक्य विधिवाक्यों के सहायक हैं। विधिवाक्यों से अलग सिद्धार्थ वाक्य व्यर्थ हैं।
वेद (श्रुति) की विषय-वस्तु का वर्गीकरण
वेद की विषय-वस्तु का वर्गीकरण निम्नलिखित है-
विधि
विधिपरक आदेश पुरुष को विशेष फलों की आशा से कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं; जैसे-स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को यज्ञ करना चाहिए। इस प्रकार विधिवाक्य क्रियाप्रेरक वाक्य है। इसलिए मीमांसा दर्शन में विधिवाक्यों को ही धर्म का लक्षण स्वीकार किया गया है।
विधि के प्रकार
विधि के चार प्रकार हैं, जो निम्नलिखित हैं-
- उत्पत्ति विधि यह विधि कर्म के स्वरूपमात्र को बताने वाली है।
- विनियोग विधि यह कर्म के अंग तथा प्रधान विषयों की सम्बोधक है।
- प्रयोग विधि यह कर्म से उत्पन्न फल के स्वामित्व की ओर संकेत करती है।
- अधिकार विधि यह प्रयोग की शीघ्रता की बोधक है।
निषेध
निषेध केवल प्रच्छन्न विधियाँ हैं। अनर्थ हेतु और अनर्थ क्रिया की निवृत्ति करता है। निषेध वाक्य क्या नहीं करना का संकेत देता है; जैसे-झूठ नहीं बोलना चाहिए। निषेध का शाब्दिक अर्थ अवज्ञा के समरूप होता है।
अर्थवाद
अर्थवाद वे वाक्य हैं, जो अदिष्ट कर्मों की प्रशंसा करते हैं और निषिद्ध कर्मों की निन्दा करते हैं। ये वाक्य वर्णात्मक हैं। प्रभाकर के अनुसार अर्थवाद भी कर्म का सहायक बनकर ही प्रामाणिक हो सकता है। अर्थवाद के तीन प्रकार हैं-
- अदिष्ट वस्तुओं की प्रशंसा करते हैं तथा निषिद्ध वस्तुओं की निन्दा करते हैं।
- दूसरे के कर्मों का विवरण देते हैं।
- इतिहास के दृष्टान्त हैं।
मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप
धर्म
मीमांसा दर्शन का प्रधान विषय धर्म है। धर्म की व्याख्या करना ही दर्शन का प्रयोजन बताया गया है। जैमिनी के मीमांसा सूत्र का प्रथम सूत्र ‘अथातो धर्म जिज्ञासा' से स्पष्ट है कि यह दर्शन धर्म का निर्णय करने जा रहा है। मीमांसा के अनुसार क्रिया के प्रवर्तक वचन अर्थात् वेद के विधि वाक्य धर्म हैं। मीमांसा दर्शन में धर्म की सत्यता के निर्धारण के लिए एकमात्र शब्द को ही प्रमाण मानती है। यद्यपि मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान को भी सत्य की प्राप्ति में प्रमाण माना गया है, परन्तु ये प्रमाण धर्म हेतु उपयोगी नहीं हैं, क्योंकि ये अनित्य ज्ञान प्रदान करते हैं और भ्रम की सम्भावना बनी रहती है। धर्म नीति का विषय है, जिसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, न ही अनुभव किया जा सकता है। अतः इस विषय में एकमात्र शब्द प्रमाण ही वास्तविक है। शब्द प्रमाण में भी मीमांसक अपौरुषेय वेद वाक्यों को ही धर्म के प्रमाण मानते हैं, आप्त पुरुषों के वाक्यों को नहीं।
प्रारम्भ में मीमांसा के अनुसार धर्म का लक्ष्य स्वर्ग की प्राप्ति था। जैमिनी एवं शबर का मत सही था, परन्तु बाद में प्रभाकर और कुमारिल तथा अन्य मीमांसकों ने अन्य दर्शनों को मोक्ष चिन्तन करते देख स्वयं भी ऐसा किया तथा इसी को जीवन का पुरुषार्थ माना गया।
मीमांसा में धर्म की प्राप्ति का प्रमुख साधन कर्म माना गया है। यहाँ कर्म आशय वैदिक कर्म से है। इस प्रकार वेदविहित कर्म ही मीमांसा के अनुसार धर्म हैं, करणीय तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इस प्रकार वेद हमें कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य दोनों का ज्ञान देते हैं। मीमांसा दर्शन धर्म के लिए वेदों के ब्राह्मण ग्रन्थों को आधार बनाता है, जहाँ कर्मकाण्ड का विधान है। वैदिक कर्मकाण्ड में यज्ञ मुख्य है। वैदिक धर्म में यज्ञ का महत्त्व शरीर में प्राण की भाँति है। वेदों में यज्ञ को ही धर्म कहा गया है। यज्ञ में देवताओं के लिए हवन एवं बलि दी जाती है, जिससे देवता प्रसन्न होकर भक्त को इष्टफल देते हैं। मीमांसा कर्म का उद्देश्य आत्म शुद्धि भी मानते हैं।
मीमांसा दर्शन में भावना का स्वरूप (शब्द नित्यवाद सिद्धान्त)
भावना
मीमांसकों के अनुसार यज्ञ करने का उद्देश्य पूजा या देवता को सन्तुष्ट करना नहीं, बल्कि अपनी भावना को शुद्ध करना है। वैदिक कर्म इसलिए नहीं करने चाहिए कि वेद ऐसा कहते हैं। कुछ कर्म ऐसे हैं जो हमें नित्य करने चाहिए; जैसे-पूजा, आराधना, यज्ञ, हवन आदि। इनका उद्देश्य आत्मिक शुद्धि भी है।
शब्दनित्यवाद
मीमांसा दर्शन में वेदों की नित्यता को सिद्ध करने के लिए शब्दनित्यवाद का सिद्धान्त दिया गया है। मीमांसा शब्दनित्यवाद का प्रतिपादन करके वेद-वाक्यों के प्रामाण्य का समर्थन करती है। शब्दनित्यवाद से आशय शब्द के नित्य अस्तित्व को स्वीकार करने से है। इस सिद्धान्त के अनुसार, वेद जिन शब्दों से बने हैं, वे शब्द शाश्वत एवं नित्य हैं। ये अनादि एवं अनन्त हैं। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध भी स्वाभाविक है। वह परम्परा द्वारा निर्मित नहीं है। मीमांसक सभी शब्दों को नित्य नहीं मानते हैं। वे शब्दों के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए वर्ण एवं ध्वनि में अन्तर करते हैं। यह अन्तर क्रमश: इस प्रकार है-
- वर्णरूप शब्द
- ध्वनिरूप शब्द
वर्णरूप शब्द
वर्ण एक सार्थक ध्वनि है। वर्ण नित्य है। वह निरवयव और सर्वगत है। किसी वर्ण का अनेक बार या अनेक प्रकार से उच्चारण करने से यह सिद्ध नहीं होता कि अनेक वर्ण विशेष हैं और उनमें एक वर्ण सामान्य व्याप्त होता है। इस प्रकार वर्ण के दिखाई देने वाले अनेक रूप आकस्मिक मात्र हैं, परन्तु मूल वर्ण सदैव नित्य होते हैं। पुन: किसी वर्ण का अनेक बार उच्चारण होने पर भी हम उसे पहचान लेते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि अनेक उच्चारणों की पृष्ठभूमि में वही एक वर्ण होता है। जैसे-प्रायः हम कहते हैं कि क वर्ण का उच्चारण दस बार हुआ। हम यह नहीं कहते कि दस 'क' वर्गों का उच्चारण हुआ। ध्वनि नित्यवर्ण की अभिव्यक्ति का साधन मात्र है। अत: उससे भिन्न है। वर्णरूप शब्द व्यापक है और ये आत्मा की तरह नित्य भी है।
ध्वनिरूप शब्द
वर्ण के विपरीत ध्वनि अनित्य होती है, क्योंकि उसका केवल उसी स्थान पर अस्तित्व होता है, जहाँ वह सुनाई देती है, शब्द दो या अधिक वर्णों का समुदाय मात्र है, अवयवी नहीं। शब्द का अर्थ भी नित्य होता है, क्योंकि वह भी सामान्य होता है। चूंकि शब्द और उसका अर्थ नित्य एवं स्वाभाविक है सांकेतिक नहीं, इसलिए वैदिक वाक्यों से प्राप्त ज्ञान स्वतः प्रमाणित है। उसमें कोई त्रुटि की गुंजाइश नहीं है।
जैमिनी के अनुसार वेद में आने वाले शब्दों में जो विशिष्ट क्रम है, वह अन्य रचनाओं में नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्य रचनाओं में शब्दों का क्रम उनके लेखकों द्वारा निर्धारित है, परन्तु अकर्तृत्त्व के कारण वेद में शब्दों का क्रम स्वनिर्धारित है। वेद की नित्यता का तात्पर्य उसके पाठ के स्थायित्व से है। वेद अनादिकाल से गुरु-शिष्य परम्परा से अखण्ड रूप से सुरक्षित चला आ रहा है। इस प्रकार वेद अपौरुषेय, नित्य एवं स्वत: प्रमाणित है। वे यथार्थ ज्ञान का साधन हैं। शब्द को लेकर न्याय एवं मीमांसा में पर्याप्त अन्तर है। मीमांसक मानते हैं कि शब्द शाश्वत है, जबकि न्याय के अनुसार मनुष्य के शब्द उच्चारण के प्रयत्न से ही शब्द की उत्पत्ति होती है। यह सिद्धान्त स्फोटवाद कहलाता है।
वेदान्त दार्शनिक शंकराचार्य का मत है कि वेदों के अर्थ तो नित्य हैं, परन्तु वैदिक मन्त्र नित्य नहीं हैं, क्योंकि ईश्वर प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में फिर से उनका उच्चारण करता है। ईश्वर, जिसे नित्य रूप से बुद्धि स्वातन्त्र्य प्राप्त है और संकल्प शक्ति भी उसमें स्वतन्त्र रूप से है, इन शब्दों को स्मरण रखता है तथा प्रत्येक सृष्टि युग में इन्हें व्यक्त करता है।
मीमांसा दर्शन में जाति का स्वरूप
जाति
जाति गौणी वृत्ति के मान्य छ: निमित्तों में से एक है। शब्दार्थ जाति है या व्यक्ति इस सम्बन्ध में भी मीमांसा दर्शन का अन्य दर्शनों से मतभेद है। उदाहरण के लिए—'गाय' एक शब्द है। इसके उच्चारण से हमें पहले गोत्व जाति का बोध होता है और अन्त में व्यक्ति विशेष गाय का। इसलिए जाति ही शब्द का अभिप्रेत अर्थ है, व्यक्ति नहीं। क्योंकि जाति का अभिधान किए बिना व्यक्ति का अभिधान व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं है। जाति सामान्य के बिना व्यक्ति विशेष का ग्रहण हो ही नहीं सकता है। अत: शब्दार्थ जाति है, व्यक्ति नहीं।
मीमांसा दर्शन का शक्तिवाद सिद्धान्त
शक्तिवाद
मीमांसा दर्शन में शक्तिवाद सिद्धान्त का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः कार्य-कारण के सम्बन्ध में मीमांसा का नवीन दृष्टिकोण है। मीमांसा दर्शन के अनुसार, संसार के सभी पदार्थों की उत्पत्ति के रूप में एक अदृष्ट शक्ति है, जोकि अतीन्द्रिय होने के कारण अनुभवगम्य है। यह अदृष्ट शक्ति कारण रूप है। जितने भी कार्यरूप जागतिक पदार्थ हैं उनके मूल में यह कारण रूप अदृष्टशक्ति विद्यमान रहती है। इस शक्ति के नष्ट हो जाने पर कार्य की उत्पत्ति भी बन्द हो जाती है। बीज में एक अदृष्ट शक्ति है जिससे उसमें अंकुर उगता है, किन्तु उस अदृश्य शक्ति के नष्ट हो जाने पर अंकुर नहीं उग सकता। कारण रूप इस अदृष्ट शक्ति के बिना कार्यरूप पदार्थ की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है। संसार के सभी बाह्य पदार्थ इस अदृष्ट शक्ति के कारण सत्तावान हैं। अग्नि में दाहकता शक्ति, शब्द में अर्थबोध शक्ति और प्रकाश में दीप्ति शक्ति विद्यमान है। तभी अग्नि, शब्द और प्रकाश की सत्ता है।
कर्म और कर्मफल के व्यवधान को जोड़ने के लिए मीमांसा में जिस अपूर्व की स्थापना की गई है, वह अदृष्ट शक्ति का ही एक रूप है। यह अदृष्ट शक्ति न केवल पदार्थों की वर्तमानकालिक उत्पत्ति का कारण है, अपितु वह त्रिकालव्यापी है। जीव के भूतकालिक कर्मों का फल वर्तमान काल में वर्तमानकालिक कर्मों का फल भविष्य में फलित होने का कारण भी यह अदृष्ट शक्ति है।
वर्तमान में किए गए कर्मों और कालान्तर में प्राप्त होने वाली फलोत्पत्ति के बीच यह अपूर्व शक्ति एक सूत्र का कार्य करती है। इस अदृष्ट शक्ति से ही मीमांसा में 'अपूर्व' का सिद्धान्त स्वीकार किया गया है, जिससे हमारे द्वारा किए गए इस जीवन के यज्ञादि शुभकर्मों और पापादि दुष्कर्मों का परिणाम हमारे पारलौकिक जीवन में घटित होता है। कर्मों का संचय ही अपूर्व है, जोकि अदृश्य शक्ति के द्वारा जन्मान्तर में घटित होता है। इसी के आधार पर स्वर्ग-नरक की सत्यता सिद्ध होती है। इस प्रकार, मीमांसा दर्शन का अदृष्ट शक्ति से सम्बन्धित दर्शन शक्तिवाद कहलाता है।
मीमांसा दर्शन का ज्ञान सिद्धान्त
मीमांसा दर्शन में ज्ञान सिद्धान्त आत्मा से सम्बन्धित है। इन दार्शनिकों की मान्यता है कि आत्मा अनेक है तथा यह नित्य एवं विभुद्रव्य है। मीमांसा दर्शन में ज्ञान के सम्बन्ध में मुख्यत: दो सिद्धान्त प्रचलित हैं-
- त्रिपुटि प्रत्यक्षवाद तथा
- ज्ञाततावाद।
जिनका प्रतिपादन क्रमश: प्रभाकर तथा कुमारिल भट्ट द्वारा किया गया।
त्रिपुटि-संवित (प्रभाकर)
वस्तुत: तीन (ज्ञाता, ज्ञान एवं ज्ञेय) का समूह 'त्रिपुटि' कहलाता है, जबकि संवित का अर्थ चेतना या समझ है। प्रभाकर के अनुसार ज्ञान के तीन आयाम हैं-ज्ञाता, ज्ञेय तथा ज्ञान। प्रत्येक ज्ञान की अभिव्यक्ति में इस त्रिपुटि का प्रत्यक्ष होता है, इसीलिए प्रभाकर का ज्ञान विषयक मत 'त्रिपुटि प्रत्यक्षवाद' कहलाता है।
प्रभाकर के अनुसार ज्ञान स्वप्रकाश है, उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। अत: स्पष्ट है कि ज्ञान की उत्पत्ति तथा उसकी प्रामाणिकता के सन्दर्भ में प्रभाकर परत:प्रामाण्यवाद को स्वीकार न करके स्वत:प्रामाण्यवाद को स्वीकार करते हैं। इनकी मान्यता है कि ज्ञान के प्रामाण्य को सिद्ध करने के लिए अन्य ज्ञान की कल्पना से अनावस्था दोष पैदा होता है। ज्ञान स्वप्रकाश तो है, किन्तु नित्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। अत: यह उत्पत्ति-विनाश धर्मा है। विषय सम्पर्क से आत्मा में ज्ञान उत्पन्न होता है, चूँकि ज्ञान स्वप्रकाश है इसलिए वह स्वयं को प्रकाशित करने के साथ ही ज्ञेय (विषय) एवं ज्ञाता (आत्मा) को भी प्रकाशित करता है। परिणामस्वरूप प्रत्येक ज्ञान में ज्ञाता, ज्ञेय तथा ज्ञान की त्रिपुटि का प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार दीपक का प्रकाश घटपटादि पदार्थ को ज्ञेय के रूप में, स्वयं को ज्ञान के रूप में और अपने आश्रयभूत पात्र को ज्ञाता के रूप में प्रकाशित करता है। ज्ञान स्वप्रकाश है, किन्तु आत्मा स्वप्रकाश नहीं है। आत्मा पदार्थ के समान जड़द्रव्य है, जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए ज्ञान पर निर्भर है। आत्मा ज्ञान का आश्रय है, किन्तु अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वयं ज्ञान पर आश्रित है।
प्रभाकर मत की आलोचना
प्रभाकर मत की आलोचना निम्न प्रकार की गई है-
● प्रभाकर का यह कथन सही है कि ज्ञान स्वप्रकाश है, आत्मा ज्ञाता है और ज्ञाता कभी ज्ञेय नहीं हो सकता, किन्तु ज्ञान को ज्ञाता का स्वरूप न मानकर आगन्तुक धर्म मानना एक प्रकार का अज्ञान है।
● आत्मा को स्वप्रकाश न मानना तथा उसे एक जड़द्रव्य के रूप में स्वीकार करना, आत्मा के स्वरूप का अज्ञान है।
● प्रभाकर मूलतः वस्तुवादी हैं। इसलिए वे आत्मा की अनेकता में विश्वास रखते हैं, किन्तु आत्मा तत्त्वत: व स्वरूपत: अद्वैत तत्त्व है, क्योंकि आत्मा व ब्रह्म में लेशमात्र का भेद नहीं है।
ज्ञाततावाद या ज्ञातता (कुमारिल भट्ट)
कुमारिल का ज्ञान विषयक मत 'ज्ञाततावाद' कहलाता है। कुमारिल का मत है कि ज्ञान सर्वप्रकाश नहीं होता है। ज्ञान न तो स्वयं प्रकाशित होता है और न ही आत्मा को ज्ञाता के रूप में प्रकाशित करता है। ज्ञान केवल ज्ञेय (विषय) को ही प्रकाशित करता है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान किसी अन्य ज्ञान द्वारा प्रकाशित नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि ज्ञान के प्रामाण्य के सन्दर्भ में यहाँ परत:प्रामाण्यवाद को अस्वीकार किया गया है। प्रश्न यह उठता है कि आत्मा तो ज्ञाता है फिर ऐसी स्थिति में आत्मा का ज्ञान कैसे प्राप्त होता है। इस सन्दर्भ में कुमारिल का मत है कि आत्मा स्वयं अपने ही द्वारा अपना ज्ञान प्राप्त करती है तथा इस स्थिति में आत्मा स्वयं ज्ञाता एवं ज्ञेय दोनों होती है।
कुमारिल के समक्ष समस्या यह है कि जब ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता अर्थात् ज्ञान प्राप्त होते समय उसकी कोई अनुभूति नहीं होती तो फिर हमें यह कैसे पता चलता है कि ज्ञान प्राप्त हो गया? इस सन्दर्भ में कुमारिल कहते हैं कि ज्ञातता के आधार पर ज्ञान का अनुमान कर लिया जाता है। कुमारिल के अनुसार, किसी पदार्थ का ज्ञान प्राप्त होने पर उस धर्म में ज्ञातता नामक धर्म का उदय होता है। यहाँ ज्ञातता से तात्पर्य है कि विषय ज्ञाता द्वारा ज्ञात हो चुका है, इसकी प्रतीति होती है। ' इस ज्ञातता के आधार पर यह अनुमान कर लिया जाता है कि आत्मा को विषय का ज्ञान प्राप्त हो गया। उदाहरणार्थ जिस प्रकार पकाने पर चावल में 'पकता' नामक एक नया गुण उत्पन्न हो जाता है और उस गुण को जानकर हम यह ज्ञान प्राप्त करते हैं कि यह पकाया गया है। यद्यपि पकते समय उसे नहीं देखा गया था, ठीक इसी प्रकार जब कोई विषय ज्ञान में प्रकाशित होता है, तो हमें यह पता चलता है कि पहले यह विषय अज्ञात था, अब ज्ञात हो गया। इस विषय में जो यह परिवर्तन आया, जिसने इसे अज्ञात से ज्ञात की कोटि में ला दिया, इसमें किसी नए गुण की उत्पत्ति द्वारा ही सम्भव है। विषय में उत्पन्न इस गुण को ही कुमारिल 'ज्ञातता' का गुण कहते हैं। अत: स्पष्ट है कि पदार्थ के ज्ञात होने पर उसकी ज्ञातता के आधार पर ज्ञान का अनुमान किया जाता है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान आत्मा का अनिवार्य गुण (स्थिर गुण) नहीं बल्कि आगन्तुक गुण है।
कुमारिल के मत की आलोचना
कुमारिल का मत कई दोषों से ग्रस्त है। शंकर ने ज्ञाततावाद पर कई आक्षेप लगाए हैं, जो निम्न हैं-
● शंकर के अनुसार, ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं है, बल्कि यह आत्मा का अनिवार्य लक्षण है। ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण मानना आत्मा के स्वरूप का अज्ञान है।
● शंकर के अनुसार, यदि ज्ञान को प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय न माना जाए तो ऐसी स्थिति में ज्ञान के स्वरूप का निर्धारण नहीं किया जा सकता। ज्ञान के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए हमें यह स्वीकार करना होगा कि ज्ञान साक्षात् प्रत्यक्ष से प्राप्त होता है, किसी ज्ञातता नामक गुण की उत्पत्ति से नहीं।
● शंकर के अनुसार, आत्मा जड़ बोधक नहीं है। आत्मा विशुद्ध ज्ञाता तथा चेतन है। वस्तुवादी होने के कारण कुमारिल आत्मा के स्वरूप की सही व्याख्या नहीं कर सके।
मीमांसा दर्शन का त्रिपुटि-संवित सिद्धान्त
त्रिपुटि-संवित (प्रभाकर)
वस्तुत: तीन (ज्ञाता, ज्ञान एवं ज्ञेय) का समूह 'त्रिपुटि' कहलाता है, जबकि संवित का अर्थ चेतना या समझ है। प्रभाकर के अनुसार ज्ञान के तीन आयाम हैं-ज्ञाता, ज्ञेय तथा ज्ञान। प्रत्येक ज्ञान की अभिव्यक्ति में इस त्रिपुटि का प्रत्यक्ष होता है, इसीलिए प्रभाकर का ज्ञान विषयक मत 'त्रिपुटि प्रत्यक्षवाद' कहलाता है।
प्रभाकर के अनुसार ज्ञान स्वप्रकाश है, उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। अत: स्पष्ट है कि ज्ञान की उत्पत्ति तथा उसकी प्रामाणिकता के सन्दर्भ में प्रभाकर परत:प्रामाण्यवाद को स्वीकार न करके स्वत:प्रामाण्यवाद को स्वीकार करते हैं। इनकी मान्यता है कि ज्ञान के प्रामाण्य को सिद्ध करने के लिए अन्य ज्ञान की कल्पना से अनावस्था दोष पैदा होता है। ज्ञान स्वप्रकाश तो है, किन्तु नित्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। अत: यह उत्पत्ति-विनाश धर्मा है। विषय सम्पर्क से आत्मा में ज्ञान उत्पन्न होता है, चूँकि ज्ञान स्वप्रकाश है इसलिए वह स्वयं को प्रकाशित करने के साथ ही ज्ञेय (विषय) एवं ज्ञाता (आत्मा) को भी प्रकाशित करता है। परिणामस्वरूप प्रत्येक ज्ञान में ज्ञाता, ज्ञेय तथा ज्ञान की त्रिपुटि का प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार दीपक का प्रकाश घटपटादि पदार्थ को ज्ञेय के रूप में, स्वयं को ज्ञान के रूप में और अपने आश्रयभूत पात्र को ज्ञाता के रूप में प्रकाशित करता है। ज्ञान स्वप्रकाश है, किन्तु आत्मा स्वप्रकाश नहीं है। आत्मा पदार्थ के समान जड़द्रव्य है, जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए ज्ञान पर निर्भर है। आत्मा ज्ञान का आश्रय है, किन्तु अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वयं ज्ञान पर आश्रित है।
मीमांसा दर्शन का ज्ञाततावाद या ज्ञातता सिद्धान्त
ज्ञाततावाद या ज्ञातता (कुमारिल भट्ट)
कुमारिल का ज्ञान विषयक मत 'ज्ञाततावाद' कहलाता है। कुमारिल का मत है कि ज्ञान सर्वप्रकाश नहीं होता है। ज्ञान न तो स्वयं प्रकाशित होता है और न ही आत्मा को ज्ञाता के रूप में प्रकाशित करता है। ज्ञान केवल ज्ञेय (विषय) को ही प्रकाशित करता है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान किसी अन्य ज्ञान द्वारा प्रकाशित नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि ज्ञान के प्रामाण्य के सन्दर्भ में यहाँ परत:प्रामाण्यवाद को अस्वीकार किया गया है। प्रश्न यह उठता है कि आत्मा तो ज्ञाता है फिर ऐसी स्थिति में आत्मा का ज्ञान कैसे प्राप्त होता है। इस सन्दर्भ में कुमारिल का मत है कि आत्मा स्वयं अपने ही द्वारा अपना ज्ञान प्राप्त करती है तथा इस स्थिति में आत्मा स्वयं ज्ञाता एवं ज्ञेय दोनों होती है।
कुमारिल के समक्ष समस्या यह है कि जब ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता अर्थात् ज्ञान प्राप्त होते समय उसकी कोई अनुभूति नहीं होती तो फिर हमें यह कैसे पता चलता है कि ज्ञान प्राप्त हो गया? इस सन्दर्भ में कुमारिल कहते हैं कि ज्ञातता के आधार पर ज्ञान का अनुमान कर लिया जाता है। कुमारिल के अनुसार, किसी पदार्थ का ज्ञान प्राप्त होने पर उस धर्म में ज्ञातता नामक धर्म का उदय होता है। यहाँ ज्ञातता से तात्पर्य है कि विषय ज्ञाता द्वारा ज्ञात हो चुका है, इसकी प्रतीति होती है। ' इस ज्ञातता के आधार पर यह अनुमान कर लिया जाता है कि आत्मा को विषय का ज्ञान प्राप्त हो गया। उदाहरणार्थ जिस प्रकार पकाने पर चावल में 'पकता' नामक एक नया गुण उत्पन्न हो जाता है और उस गुण को जानकर हम यह ज्ञान प्राप्त करते हैं कि यह पकाया गया है। यद्यपि पकते समय उसे नहीं देखा गया था, ठीक इसी प्रकार जब कोई विषय ज्ञान में प्रकाशित होता है, तो हमें यह पता चलता है कि पहले यह विषय अज्ञात था, अब ज्ञात हो गया। इस विषय में जो यह परिवर्तन आया, जिसने इसे अज्ञात से ज्ञात की कोटि में ला दिया, इसमें किसी नए गुण की उत्पत्ति द्वारा ही सम्भव है। विषय में उत्पन्न इस गुण को ही कुमारिल 'ज्ञातता' का गुण कहते हैं। अत: स्पष्ट है कि पदार्थ के ज्ञात होने पर उसकी ज्ञातता के आधार पर ज्ञान का अनुमान किया जाता है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान आत्मा का अनिवार्य गुण (स्थिर गुण) नहीं बल्कि आगन्तुक गुण है।
मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा
अभाव और अनुपलब्धि
अभाव और अनुपलब्धि दोनों की विवेचना मीमांसा दर्शन के अन्तर्गत प्रमाण के सन्दर्भ में की जाती है। यद्यपि पूर्व-मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक जैमिनी ने यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द प्रमाणों का विवेचन किया था। जैमिनी के बाद बहुत से टीकाकार एवं स्वतन्त्र ग्रन्थकार हुए, जिनमें दो प्रमुख थे-कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर।
प्रभाकर ने यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के पाँच प्रमाणों-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द तथा अर्थापत्ति को स्वीकार किया था, जबकि कुमारिल भट्ट ने प्रभाकर के पाँच प्रमाणों के अतिरिक्त अनुपलब्धि को भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के प्रमाण (साधन) के रूप में स्वीकार किया। इसी अनुपलब्धि के सन्दर्भ में अभाव की भी चर्चा होती है अर्थात् अभाव एवं अनुपलब्धि को लेकर प्रभाकर एवं कुमारिल सम्प्रदाय में मतभेद भी देखने को मिलता है।
प्रभाकर का मत है कि अभाव नामक कोई वस्तु होती ही नहीं, इसलिए अभाव को ग्रहण करने के लिए अनुपलब्धि को प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है। कुमारिल का मत है किसी स्थान विशेष एवं काल में जो वस्तु उपलब्ध होने योग्य है, उसका वहाँ न होना ही अनुपलब्धि है; जैसे-शाम को छ: बजे मन्दिर में पुजारी उपस्थित होने योग्य है, परन्तु उसका उपस्थित न होना ज्ञात कराना है कि मन्दिर में पूजारी का अभाव है। फिर अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, परन्तु नैयायिक इसे स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। प्रभाकर न तो अभाव को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं और न ही अभाव को ज्ञान के लिए अनुपलब्धि को स्वीकार करते हैं। प्रभाकर के अनुसार, अभाव अधिकरण से भिन्न नहीं है। यदि मन्दिर में पुजारी नहीं है, तो यह पुजारी के अभाव का ज्ञान नहीं केवल मन्दिर का ज्ञान है।
मीमांसा दर्शन का अन्विताभिधानवाद
अन्विताभिधानवाद
यह विचारधारा मीमांसा दर्शन से सम्बन्धित है। इस विचारधारा के समर्थक प्रभाकर का गुरु सम्प्रदाय है। कुमारिल का भट्ट सम्प्रदाय ने इसका समर्थन नहीं किया है। अन्विताभिधानवाद विचारधारा के अनुसार शब्दों के अर्थ केवल उसी अवस्था में जाने जा सकते हैं जबकि वे ऐसे वाक्य में आते हैं, जो किसी कर्तव्य का आदेश करता है। इस प्रकार शब्द पदार्थों को केवल इस प्रकार के वाक्य के अन्य अवयवों से सम्बद्ध रूप से ही घोषित करते हैं। यदि वे एक आदेश से सम्बद्ध नहीं हैं, बल्कि केवल अर्थों के ही स्मरण कराते हैं, तो यह स्मृति का विषय है, जो प्रामाणिक बोध नहीं है। इस प्रकार प्रभाकर का मत है कि भाषा अर्थ का निर्धारण तभी होता है, जब पहले उसमें प्रयुक्त शब्दों का अर्थ ज्ञात हो जाए अर्थात् छोटे-छोटे शब्दों के अर्थों के अन्वय से ही भाषा का अभिधान होता है।
मीमांसा दर्शन का अभिहितान्वयवाद
अभिहितान्वयवाद
यह विचारधारा भी मीमांसा दर्शन से ही सम्बद्ध है। इस विचारधारा के प्रतिपादक भट्ट सम्प्रदाय के कुमारिल हैं। जबकि प्रभाकर का गुरु सम्प्रदाय ने इसका समर्थन नहीं किया है। अभिहितान्वयवाद के अनुसार, अर्थ का ज्ञान शब्दों के ज्ञान के कारण होता है, परन्तु यह ज्ञान स्मरण या बोधग्रहण के कारण नहीं, बल्कि द्योतक के कारण होता है। शब्द, अर्थों को प्रकट करते हैं जो संयुक्त होने पर एक वाक्य का ज्ञान देते हैं। इस सिद्धान्त का यह भी मत है कि वेदवाक्य विधिवाक्य हैं। वेद हमें कर्म करने का या न करने का आदेश देते हैं।
भ्रम के सिद्धान्त (ख्यातिवाद)
ख्याति का शाब्दिक अर्थ है-भ्रम। भ्रम की समस्या अनिवार्यतः वस्तुवाद से सम्बन्धित है। सभी वस्तुवादी इस समस्या को हल करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि यह वस्तुवाद के मूल पर ही कुठाराघात करता है। क्योंकि वस्तुवादियों की मान्यता है कि ज्ञाता से स्वतन्त्र तथा पृथक् बाह्य जगत् में वस्तुओं का अस्तित्व है। जिनका इन्द्रियानुभव के द्वारा साक्षात् ज्ञान प्राप्त किया जाता है अर्थात् वस्तु के अनुरूप ही वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। किन्तु वस्तुवादियों के लिए
समस्या यह है कि इन्द्रियानुभव के द्वारा हमें कभी-कभी अयथार्थ ज्ञान (अप्रमा) की प्राप्ति हो जाती है, परिणामस्वरूप भ्रम की स्थिति उभरती है। इस समस्या को ही ख्यातिवाद के नाम से जाना जाता है। विभिन्न वस्तुवादी दार्शनिकों ने इस समस्या का समाधान करने का प्रयास किया है, किन्तु कोई भी इस समस्या का समुचित समाधान प्रस्तुत नहीं कर सका। भ्रम से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्त जो भिन्न-भिन्न वस्तवादी दार्शनिक सम्प्रदायों द्वारा प्रस्तुत किए गए, उनका उल्लेख निम्नलिखित है-
आत्मख्यातिवाद
यह विज्ञानवादी बौद्धों का सिद्धान्त है। इस दर्शन के अनुसार जिसे हम बाह्य जगत् कहते हैं और जिसे हम भौतिक रूप में अस्तित्ववान मानते हैं, वह वास्तव में भौतिक रूप में अस्तित्व नहीं रखता। बाह्य संसार खरगोश के सींग एवं आकाश कुसुम के समान असत् है। यह स्वप्न के समान है; जैसे-स्वप्न में हमें कई प्रकार के पदार्थों का जगत् दिखता है पर वे सब पदार्थ हमारे भीतर ही होते हैं। इस प्रकार, विज्ञानवादी बाह्य का अस्तित्व नहीं मानते, अब जब सब कुछ आत्म स्थित है तब भ्रम के विषय जैसे साँप भी हमारे मन के प्रत्यय ही हैं। मन के भीतर के प्रत्यय को ही हम बाह्य जगत् में प्रक्षेपित करते हैं। इस प्रकार बाहरी जगत् में सर्प के न होते हुए भी हमें सर्प दिखाई देता है।
आत्मख्यातिवाद की आलोचना
यहाँ भ्रम के लिए कोई निमित्त नहीं है, जबकि बिना निमित्त के मिथ्या विकल्प की सिद्धि होना सम्भव नहीं है। आधुनिक मनोविज्ञान भी यही कहता है कि बिना अधिष्ठान के भ्रम सम्भव नहीं है फिर यदि भ्रम का सर्प एवं वास्तविक सर्प एक ही है तो दोनों को समान यथार्थता क्यों नहीं प्रदान की जाती? फिर भ्रम की अलग एवं सत्य की अलग श्रेणियाँ भी नहीं माननी चाहिए, परन्तु हम सब ऐसा करते हैं।
असख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन शून्यवादी बौद्ध दार्शनिकों द्वारा किया गया। शून्यवादियों के अनुसार, रस्सी तथा साँप दोनों असत् हैं। क्योंकि रस्सी और साँप के बारे में बुद्धि की किसी भी कोटि के द्वारा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, परिणामस्वरूप भ्रम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता अतः भ्रम शून्य है।
सख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक रामानुज द्वारा किया गया। इनके अनुसार भ्रम का विषय सत् है, क्योंकि ब्रह्म सत् है। जितने भी भ्रम के विषय हैं वे समस्त ब्रह्म ही हैं, अत: सत् है। रामानुज के अनुसार 'त्रिवृत्तिकरण' के कारण भ्रम पैदा होता है। त्रिवृत्तिकरण से तात्पर्य है कि संसार की समस्त वस्तुएँ सत्, रज् तथा तम् गुणों से युक्त हैं, इसलिए प्रत्येक वस्तु में प्रत्येक अन्य वस्तु के न्यूनाधिक गुण विद्यमान रहते हैं: जैसे-रस्सी के स्थान पर साँप का भ्रम इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि रस्सी में सर्प के तत्त्व विद्यमान हैं; जैसे-लम्बाई, टेढ़ा-मेढ़ा होना तथा गोल होना आदि।
अन्यथाख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नैयायिकों द्वारा किया गया था। नैयायिकों के अनुसार समस्त ज्ञान यथार्थ है। नैयायिकों के अनुसार भ्रम का विषय वास्तविक है, किन्तु वह वहाँ नहीं है, जहाँ अनुभूत हो रहा है। अतः भ्रम का विषय साँप यहाँ नहीं अन्यथा है। नैयायिक इस भ्रम का कारण स्मृति को मानते हैं।
अनिर्वचनीय ख्यातिवाद
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक शंकराचार्य हैं। अनिर्वचनीय का आशय होता है, जिसका निर्वचन न हो सके अर्थात् जिसके वचन विन्यास के द्वारा स्पष्टत: कुछ कहा न जा सके एवं जो अभिव्यक्ति से परे हो। इनके अनुसार भ्रम का विषय न सत् है न असत्। सत् नहीं है, क्योंकि वह साँप नहीं है, रस्सी है तथा असत् भी नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षतः साँप की अनुभूति हो रही है। चूंकि वचन हमेशा दो ही प्रकार के होते हैं या तो कोई वचन सत् होगा या असत् होगा। चूँकि साँप न तो सत् है और न ही असत् है, इसलिए यह अनिर्वचनीय है।
भ्रम का कारण अविद्या है जो दो रूपों-आवरण एवं विक्षेप में अपना कार्य करती है। आवरण रूप के अनुसार रज्जु-सर्प भ्रम में अविद्या पहले रस्सी पर साँप का आरोप कर उसकी प्रतीति हमें साँप के रूप में कराती है। यह रस्सी का सर्प के रूप में अन्यथाज्ञान या मिथ्या ज्ञान है अथवा सर्प का अध्यारोप है। इस तरह विक्षेप का कार्य है सत्य के स्थान पर मिथ्या वस्तु को प्रस्तुत करना।
इस सिद्धान्त के अनुसार शंकर दर्शन में कहा गया है कि माया ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप पर अज्ञान का आवरण डाल देती है और विक्षेप शक्ति द्वारा ब्रह्म के स्थान पर आकाशादि प्रपंच को प्रस्तुत करती है। जगत् की प्रस्तुति के सम्बन्ध में यही शंकर का विवर्तवाद है।
शंकराचार्य का अनिर्वचनीय ख्यातिवाद वस्तुतः उनके मायावाद को सिद्ध करने का प्रयास है। शंकर का सिद्धान्त अन्य ख्यातिवादों से अन्तर रखता है। यह अख्यातिवाद और असत् ख्यातिवाद से भिन्न इसलिए है, क्योंकि इनके समान यह नहीं कहता कि भ्रम का विषय असत् है या उसका ग्रहण नहीं होता। यह अन्यथा ख्यातिवाद से इसलिए भिन्न है, क्योंकि इसमें किसी का अन्यथा ग्रहण भी नहीं है। यह नवीन अनुभव है, स्मृति नहीं। यह आत्म ख्यातिवाद से भी पृथक् है, क्योंकि इसके अनुसार यहाँ सर्प का अथवा चाँदी का अध्यास या मिथ्या ग्रहण न होकर सत्ता का ग्रहण है।
अनिर्वचनीय ख्यातिवाद की आलोचना
यह सिद्धान्त भ्रम के लिए सत् और असत् से परे अनिर्वचनीय शब्द का प्रयोग करता है, परन्तु व्यवहार में हम सत् और असत् दोनों ही कोटियों का प्रयोग करते हैं। शंकर एक ओर भ्रम को अनिर्वचनीय कहते हैं, तो दूसरी ओर इसकी व्याख्या भी करते हैं, परन्तु जो अनिर्वचनीय है, उसकी व्याख्या कैसे हो सकती है।
उपरोक्त आलोचना के बावजूद भी तार्किक दृष्टि से यह सिद्धान्त बुद्धि को अधिक सन्तुष्ट करता है। यद्यपि दर्शन में कोई भी सिद्धान्त पूर्णत: निर्दोष नहीं है, परन्तु यह सिद्धान्त अधिक तर्कसंगत है।
भ्रम के घटक
शंकराचार्य भ्रम के तीन घटक बताते हैं-
- अधिष्ठान,
- अध्यस्त और
- अध्यास
रज्जु-सर्प में इनकी स्थिति इस प्रकार है
• अधिष्ठान अर्थात् रस्सी, जो सत् है।
• अध्यस्त अर्थात् साँप, जो असत् है।
• अध्यास अर्थात् रस्सी पर साँप का मिथ्यारोप यह न सत् है और न असत् यह अनिर्वचनीय है
यहाँ उल्लेखनीय है कि शंकर भ्रम को सद्सत् अर्थात् सत् और असत् दोनों एकसाथ नहीं कहते हैं, क्योंकि ये दोनों प्रकाश और अन्धकार के समान एकसाथ नहीं रह सकते। इसे केवल अनिर्वचनीय ही कहा जा सकता है।
मीमांसा दर्शन में भ्रम के सिद्धान्त
मीमांसा दर्शन में भ्रम के सिद्धान्त निम्न हैं-
अख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रभाकर द्वारा किया गया। प्रभाकर कट्टर वस्तुवादी हैं, क्योंकि इनके अनुसार भ्रम असत् है। इसके मूल में इनकी यह मान्यता है कि इन्द्रियानुभव के पश्चात् प्राप्त होने वाले समस्त ज्ञान प्रमारूप हैं। प्रभाकर की मान्यता है कि भ्रम के समय मन में दो आंशिक तथा अपूर्ण वृत्तियाँ होती हैं, एक वस्तु का प्रत्यक्ष तथा दूसरी अवस्तु का स्मरण। मन इन दोनों वृत्तियों को आपस में जोड़ देता है। परिणामस्वरूप भ्रम की अवगति होती है। अत: प्रभाकर का मत है कि जब ज्ञान ही नहीं होता तो भ्रम को मिथ्या ज्ञान कह ही नहीं सकते।
विपरीतख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कुमारिल भट्ट द्वारा किया गया। इनके अनुसार, भ्रम इसलिए पैदा होता है, क्योंकि हमारा मन दो आंशिक, अपूर्ण तथा विपरीत वृत्तियों को आपस में जोड़कर निर्णय दे देता है। कुमारिल भट्ट कहते हैं कि जब हम रस्सी में साँप को देखते हैं और कहते हैं कि 'यह साँप है तो यहाँ उद्देश्य तथा विधेय दोनों ही सत् हैं। जो रस्सी उपस्थित है वह मन के द्वारा साँप की श्रेणी में लाई जा सकती है, क्योंकि संसार में इन दोनों की वास्तविक सत्ता है। भ्रम इस बात को लेकर हो जाता है कि हमारा मन दो सत्, किन्तु पृथक् पदार्थों में उद्देश्य तथा विधेय का सम्बन्ध जोड़कर निर्णय दे देता है।
इस प्रकार, यहाँ कुमारिल की दृष्टि वैज्ञानिक है, अत: वे भ्रम के सन्दर्भ में अपने वस्तुवाद का परित्याग कर देते है। भ्रम एक पूर्ण एवं असत् ज्ञान है। यह दो आंशिक एवं अपूर्ण सत् ज्ञान नहीं है यदि भ्रम की स्थिति में दो आंशिक एवं अपूर्ण ज्ञान की अवगति होती है, तो वह वस्तुत: भ्रम ही नहीं है।
ख्यातिवाद से सम्बन्धित उसिद्धान्त एवं सिद्धान्तकार
मत |
सिद्धान्त |
प्रभाकर |
अख्यातिवाद |
कुमारिल |
विपरीतख्यातिवाद |
बौद्ध दर्शन |
आत्मख्यातिवाद |
शून्यवाद |
शून्यख्याति या असत्ख्यातिवाद |
रामानुज |
सत्ख्याति या सद्सख्यातिवाद |
शंकर |
अनिर्वचनीय ख्याति |
न्यायदर्शन |
अन्यथाख्याति |
बौद्धों का आत्मख्यातिवाद
आत्मख्यातिवाद
यह विज्ञानवादी बौद्धों का सिद्धान्त है। इस दर्शन के अनुसार जिसे हम बाह्य जगत् कहते हैं और जिसे हम भौतिक रूप में अस्तित्ववान मानते हैं, वह वास्तव में भौतिक रूप में अस्तित्व नहीं रखता। बाह्य संसार खरगोश के सींग एवं आकाश कुसुम के समान असत् है। यह स्वप्न के समान है; जैसे-स्वप्न में हमें कई प्रकार के पदार्थों का जगत् दिखता है पर वे सब पदार्थ हमारे भीतर ही होते हैं। इस प्रकार, विज्ञानवादी बाह्य का अस्तित्व नहीं मानते, अब जब सब कुछ आत्म स्थित है तब भ्रम के विषय जैसे साँप भी हमारे मन के प्रत्यय ही हैं। मन के भीतर के प्रत्यय को ही हम बाह्य जगत् में प्रक्षेपित करते हैं। इस प्रकार बाहरी जगत् में सर्प के न होते हुए भी हमें सर्प दिखाई देता है।
बौद्धों का असख्यातिवाद
असख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन शून्यवादी बौद्ध दार्शनिकों द्वारा किया गया। शून्यवादियों के अनुसार, रस्सी तथा साँप दोनों असत् हैं। क्योंकि रस्सी और साँप के बारे में बुद्धि की किसी भी कोटि के द्वारा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, परिणामस्वरूप भ्रम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता अतः भ्रम शून्य है।
रामानुज का सत्ख्यातिवाद
सत्ख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक रामानुज द्वारा किया गया। इनके अनुसार भ्रम का विषय सत् है, क्योंकि ब्रह्म सत् है। जितने भी भ्रम के विषय हैं वे समस्त ब्रह्म ही हैं, अत: सत् है। रामानुज के अनुसार 'त्रिवृत्तिकरण' के कारण भ्रम पैदा होता है। त्रिवृत्तिकरण से तात्पर्य है कि संसार की समस्त वस्तुएँ सत्, रज् तथा तम् गुणों से युक्त हैं, इसलिए प्रत्येक वस्तु में प्रत्येक अन्य वस्तु के न्यूनाधिक गुण विद्यमान रहते हैं: जैसे-रस्सी के स्थान पर साँप का भ्रम इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि रस्सी में सर्प के तत्त्व विद्यमान हैं; जैसे-लम्बाई, टेढ़ा-मेढ़ा होना तथा गोल होना आदि।
न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद
अन्यथाख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नैयायिकों द्वारा किया गया था। नैयायिकों के अनुसार समस्त ज्ञान यथार्थ है। नैयायिकों के अनुसार भ्रम का विषय वास्तविक है, किन्तु वह वहाँ नहीं है, जहाँ अनुभूत हो रहा है। अतः भ्रम का विषय साँप यहाँ नहीं अन्यथा है। नैयायिक इस भ्रम का कारण स्मृति को मानते हैं।
आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद
अनिर्वचनीय ख्यातिवाद
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक शंकराचार्य हैं। अनिर्वचनीय का आशय होता है, जिसका निर्वचन न हो सके अर्थात् जिसके वचन विन्यास के द्वारा स्पष्टत: कुछ कहा न जा सके एवं जो अभिव्यक्ति से परे हो। इनके अनुसार भ्रम का विषय न सत् है न असत्। सत् नहीं है, क्योंकि वह साँप नहीं है, रस्सी है तथा असत् भी नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षतः साँप की अनुभूति हो रही है। चूंकि वचन हमेशा दो ही प्रकार के होते हैं या तो कोई वचन सत् होगा या असत् होगा। चूँकि साँप न तो सत् है और न ही असत् है, इसलिए यह अनिर्वचनीय है।
भ्रम का कारण अविद्या है जो दो रूपों-आवरण एवं विक्षेप में अपना कार्य करती है। आवरण रूप के अनुसार रज्जु-सर्प भ्रम में अविद्या पहले रस्सी पर साँप का आरोप कर उसकी प्रतीति हमें साँप के रूप में कराती है। यह रस्सी का सर्प के रूप में अन्यथाज्ञान या मिथ्या ज्ञान है अथवा सर्प का अध्यारोप है। इस तरह विक्षेप का कार्य है सत्य के स्थान पर मिथ्या वस्तु को प्रस्तुत करना।
इस सिद्धान्त के अनुसार शंकर दर्शन में कहा गया है कि माया ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप पर अज्ञान का आवरण डाल देती है और विक्षेप शक्ति द्वारा ब्रह्म के स्थान पर आकाशादि प्रपंच को प्रस्तुत करती है। जगत् की प्रस्तुति के सम्बन्ध में यही शंकर का विवर्तवाद है।
शंकराचार्य का अनिर्वचनीय ख्यातिवाद वस्तुतः उनके मायावाद को सिद्ध करने का प्रयास है। शंकर का सिद्धान्त अन्य ख्यातिवादों से अन्तर रखता है। यह अख्यातिवाद और असत् ख्यातिवाद से भिन्न इसलिए है, क्योंकि इनके समान यह नहीं कहता कि भ्रम का विषय असत् है या उसका ग्रहण नहीं होता। यह अन्यथा ख्यातिवाद से इसलिए भिन्न है, क्योंकि इसमें किसी का अन्यथा ग्रहण भी नहीं है। यह नवीन अनुभव है, स्मृति नहीं। यह आत्म ख्यातिवाद से भी पृथक् है, क्योंकि इसके अनुसार यहाँ सर्प का अथवा चाँदी का अध्यास या मिथ्या ग्रहण न होकर सत्ता का ग्रहण है।
प्रभाकर का अख्यातिवाद
अख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रभाकर द्वारा किया गया। प्रभाकर कट्टर वस्तुवादी हैं, क्योंकि इनके अनुसार भ्रम असत् है। इसके मूल में इनकी यह मान्यता है कि इन्द्रियानुभव के पश्चात् प्राप्त होने वाले समस्त ज्ञान प्रमारूप हैं। प्रभाकर की मान्यता है कि भ्रम के समय मन में दो आंशिक तथा अपूर्ण वृत्तियाँ होती हैं, एक वस्तु का प्रत्यक्ष तथा दूसरी अवस्तु का स्मरण। मन इन दोनों वृत्तियों को आपस में जोड़ देता है। परिणामस्वरूप भ्रम की अवगति होती है। अत: प्रभाकर का मत है कि जब ज्ञान ही नहीं होता तो भ्रम को मिथ्या ज्ञान कह ही नहीं सकते।
कुमारिल भट्ट का विपरीतख्यातिवाद
विपरीतख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कुमारिल भट्ट द्वारा किया गया। इनके अनुसार, भ्रम इसलिए पैदा होता है, क्योंकि हमारा मन दो आंशिक, अपूर्ण तथा विपरीत वृत्तियों को आपस में जोड़कर निर्णय दे देता है। कुमारिल भट्ट कहते हैं कि जब हम रस्सी में साँप को देखते हैं और कहते हैं कि 'यह साँप है तो यहाँ उद्देश्य तथा विधेय दोनों ही सत् हैं। जो रस्सी उपस्थित है वह मन के द्वारा साँप की श्रेणी में लाई जा सकती है, क्योंकि संसार में इन दोनों की वास्तविक सत्ता है। भ्रम इस बात को लेकर हो जाता है कि हमारा मन दो सत्, किन्तु पृथक् पदार्थों में उद्देश्य तथा विधेय का सम्बन्ध जोड़कर निर्णय दे देता है।
इस प्रकार, यहाँ कुमारिल की दृष्टि वैज्ञानिक है, अत: वे भ्रम के सन्दर्भ में अपने वस्तुवाद का परित्याग कर देते है। भ्रम एक पूर्ण एवं असत् ज्ञान है। यह दो आंशिक एवं अपूर्ण सत् ज्ञान नहीं है यदि भ्रम की स्थिति में दो आंशिक एवं अपूर्ण ज्ञान की अवगति होती है, तो वह वस्तुत: भ्रम ही नहीं है।
मीमांसा दर्शन का निरीश्वरवाद
निरीश्वरवाद
पूर्व-मीमांसा दर्शन में ईश्वर का स्थान अत्यन्त ही गौण है। पूर्व-मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक जैमिनी ने ईश्वर का उल्लेख नहीं किया है जो एक अन्तर्यामी और सर्वशक्तिमान हो। इनके अनुसार संसार की सृष्टि के लिए धर्म और अधर्म का पुरस्कार और दण्ड देने के लिए ईश्वर को मानना भ्रान्तिमूलक है। इस प्रकार मीमांसा दर्शन में देवताओं के गुण या धर्म की चर्चा नहीं हुई है। पूर्व-मीमांसा दर्शन में ईश्वर का स्थान नहीं है, लेकिन देवताओं की चर्चा है। देवताओं की कल्पना बलि-प्रदान के सन्दर्भ में है। देवताओं को केवल बलि को ग्रहण करने वाले के रूप में ही माना गया है। उनकी उपयोगिता केवल इसलिए है कि उनके नाम पर होम किया जाता है। चूँकि मीमांसा दर्शन में अनेक देवताओं को माना गया है इसलिए मीमांसा को बहुदेववादी कहा जा सकता है। लेकिन देवताओं का अस्तित्व केवल वैदिक मन्त्रों में ही माना गया है। विश्व में उनका कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है। देवताओं और आत्माओं के बीच क्या सम्बन्ध है यह भी नहीं स्पष्ट किया गया है। इन देवताओं को किसी भी प्रकार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं दी गई है। यहाँ तक कि इन्हें उपासना का विषय भी नहीं माना गया है।
कुमारिल और प्रभाकर ने भी कहा कि जगत की सृष्टि और विनाश में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। ईश्वर को विश्व का स्रष्टा, पालनकर्ता और संहारकर्ता मानना भ्रामक है। कुमारिल ईश्वर को वेद का निर्माता भी नहीं मानते। कुमारिल के अनुसार यदि वेद की रचना ईश्वर के द्वारा मानी जाए तो वेद संदिग्ध भी हो सकते हैं। वेद अपौरुषेय हैं। वे स्वप्रकाश और स्वतः प्रमाण हैं। इसलिए कुछ विद्वानों ने मीमांसा के देवताओं को महाकाव्य के अमर-पात्र की तरह माना है। वे आदर्श पुरुष कहे जा सकते हैं। अतः पूर्व-मीमांसा या मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी है।
बाद के मीमांसा के अनुयायियों ने ईश्वर को स्थान दिया है। उन्होंने ईश्वर को. कर्मफल देने वाला तथा कर्म का संचालक कहा है। पाश्चात्य विद्वान् प्रो. मैक्समूलर ने मीमांसा दर्शन को निरीश्वरवादी कहने में आपत्ति प्रकट की है। इनके अनुसार मीमांसा ने ईश्वर के सृष्टि कार्य के विरुद्ध आक्षेप किया है, परन्तु यह समझना कि मीमांसा अनीश्वरवाद है, गलत है। इसका कारण यह है कि सृष्टि के अभाव में भी ईश्वर को माना जा सकता है। मीमांसा दर्शन वेद पर आधारित है अर्थात् वेद में ईश्वर का पूर्णत: संकेत है। अत: यह मानना कि मीमांसा दर्शन अनीश्वरवादी है सही प्रतीत नहीं होता है। फिर वेदान्तदेशिक ने मीमांसा दर्शन में ईश्वर की कल्पना को और आगे बढ़ाया है।
मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद
कुमारिल एवं प्रभाकर मीमांसा दर्शन के दो प्रमुख आचार्य हुए हैं। दोनों समकालीन थे। कुमारिल प्रभाकर के गुरु थे। दोनों में मीमांसा दर्शन के कुछ सिद्धान्तों को लेकर मतभेद पैदा हो गया था, इसलिए दोनों ने अलग-अलग सम्प्रदाय बना लिए। प्रभाकर का गुरु सम्प्रदाय एवं कुमारिल का भाट्ट सम्प्रदाय कहलाता है। दोनों में मीमांसा दर्शन के जिन सिद्धान्तों को लेकर मतभेद है, उनका वर्णन निम्नलिखित है-
प्रमाणों की संख्या पर मतभेद
कुमारिल छ: प्रमाणों को मानते हैं, जो इस प्रकार हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि। इन छ: प्रमाणों में से अनुपलब्धि को प्रभाकर प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते, वे पाँच ही प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर का मत है कि अभाव की सिद्धि के लिए किसी नवीन प्रमाण को मानने की आवश्यकता नहीं है।
अभाव एवं अनुपलब्धि पर मतभेद
प्रभाकर का मत है कि अभाव नामक कोई वस्तु होती ही नहीं इसलिए अभाव को ग्रहण करने के लिए अनुपलब्धि को प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है। कुमारिल का मत है कि किसी स्थान विशेष एवं काल विशेष में जो वस्तु उपलब्ध होने योग्य है, उसका वहाँ न होना ही अनुपलब्धि है; जैसे-शाम को छ: बजे मन्दिर में पुजारी उपस्थित होने योग्य है, परन्तु उसका उपस्थित न होना ज्ञात कराता है कि मन्दिर में पुजारी का अभाव है।
अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, परन्तु नैयायिक इसे स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। प्रभाकर न तो अभाव को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं और न ही अभाव के ज्ञान के लिए अनुपलब्धि को स्वीकार करते हैं। प्रभाकर का मत है कि अभाव अधिकरण से भिन्न नहीं है। यदि मन्दिर में पुजारी नहीं है तो यह पुजारी के अभाव का ज्ञान नहीं केवल मन्दिर का ज्ञान है।
शब्द प्रमाण पर मतभेद
कुमारिल वेदों के अतिरिक्त ऐसे वाक्यों को भी शब्द प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं, जो विश्वस्त हों, परन्तु प्रभाकर केवल वेदों के वाक्यों को ही शब्द प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं।
पदार्थों की संख्या पर मतभेद
प्रभाकर मीमांसा में आठ पदार्थों को स्वीकार करते हैं। ये आठ पदार्थ हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, शक्ति, सादृश्य और संख्या। द्रव्य, गुण एवं कर्म के विषय में प्रभाकर के विचारों की न्याय-वैशेषिक के विचारों से साम्यता है। प्रभाकर के अनुसार सामान्य यथार्थ है। सामान्य प्रत्येक व्यक्ति में पूर्णत: विद्यमान रहता है।
यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय है। व्यक्ति से पृथक् सामान्य का अस्तित्व नहीं है। सादृश्य का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा न होकर अनुमान एवं उपमान द्वारा होता है। यह द्रव्य, गुण, कर्म एवं सामान्य में रहता है। प्रभाकर संख्या को भी एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। संख्या, द्रव्य एवं गुण में रहती है। प्रभाकर 'अभाव' को पदार्थ नहीं मानते, उनकी दृष्टि में अभाव को किसी पदार्थ की अनुपस्थिति के रूप में समझा जा सकता है।
कुमारिल पाँच पदार्थों में विश्वास करते हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, अभाव। इनमें द्रव्य, गुण, कर्म और सामान्य ये चार भाव पदार्थ हैं और एक अन्य अभाव पदार्थ है। कुमारिल न्याय-वैशेषिक दर्शन द्वारा स्वीकृत विशेष एवं समवाय को पदार्थ नहीं मानते। कुमारिल प्रभाकर द्वारा स्वीकृत समवाय, शक्ति, सादृश्य एवं संख्या को भी पदार्थ नहीं मानते। वे शक्ति और सादृश्य का अन्तर्भाव द्रव्य में करते हैं। संख्या का गुण में समावेश हो जाता है। वे समवाय को भी पदार्थ नहीं मानते, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह स्वयं उन वस्तुओं से भिन्न नहीं है, जिनमें यह रहता है।
द्रव्यों की संख्या पर मतभेद
प्रभाकर द्रव्यों की संख्या 9 मानते हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिक्, काल, आत्मा एवं मानस। ये नौ द्रव्य न्याय-वैशेषिक दर्शन में भी उल्लेखित हैं। कुमारिल प्रभाकर के नौ द्रव्यों के अतिरिक्त तमस एक शब्द की गणना भी करते हैं। इस प्रकार कुमारिल कुल ग्यारह द्रव्यों में विश्वास करते हैं। कुमारिल के अनुसार तमस में गुण एवं कर्म होते हैं। अतः वे तमस को भी द्रव्य मानते हैं। कुमारिल शब्द को भी द्रव्य मानते हैं, क्योंकि साक्षात् इन्द्रिय सम्बन्ध से उसका ग्रहण होता है।
आत्मा पर मतभेद
प्रभाकर आत्मा को एक अचेतन द्रव्य मानकर चेतना को उसका आगन्तुक धर्म मानते हैं, जो अवस्था विशेष में उत्पन्न होती है। प्रभाकर आत्मा को चैतन्य स्वरूप नहीं मानते, क्योकि चेतन स्वरूप होने पर सुषुप्तावस्था में भी चेतन का अनुभव होना चाहिए, परन्तु सुषुप्तावस्था में चेतना का ज्ञान अनुभव विरुद्ध है। उसमें चैतन्य का गुण तब आता है, जब उसका सम्पर्क विषयों से होता है। इसी प्रकार प्रभाकर मोक्ष की अवस्था में चैतन्य का अभाव मानते हैं। प्रभाकर का मत है कि आत्मा ज्ञाता मात्र है, वह ज्ञान का विषय नहीं हो सकती। वे आत्मा को विभु, नित्य, अजर-अमर एवं निर्विकार मानते हैं। उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता।
प्रभाकर त्रिपुटि प्रत्यक्षवाद के आधार पर आत्मा के ज्ञान को स्वीकार करते हैं। वे ज्ञान को स्वप्रकाश मानते हैं, आत्मा को नहीं। जब किसी वस्तु का ज्ञान होता है तब उसके साथ आत्मा का भी ज्ञान हो जाता है। त्रिपुटि प्रत्यक्ष के अनुसार प्रत्येक विषय में ज्ञान के तीन अंग होते हैं-ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान। इन तीनों का ज्ञान एक साथ होता है। इस प्रकार ज्ञान, ज्ञाता एवं ज्ञेय का प्रकाशक होने के साथ स्वयं प्रकाश भी होता है। इस प्रकार विषय ज्ञान की प्रत्येक घटना के आश्रय के रूप में आत्मा की उपलब्धि होती है, जो अहंवित्ति की सामान्य अनुभूति से प्रभावित होती है।
कुमारिल भी आत्मा को विभु एवं नित्य मानते हैं, परन्तु वे प्रभाकर के आत्मविचार को अस्वीकार करते हैं। कुमारिल का मत है कि सुषुप्तावस्था में भी आत्मा में चैतन्य का गुण बना रहता है। सुषुप्ति में चेतना के अभाव की अनुभूति केवल विषयाभाव के कारण होती है। आशय यह है कि सुषुप्ति में ज्ञान की अनुपलब्धि का कारण आत्म चेतना का अभाव न होकर विषय का अभाव है। पुन: कुमारिल आत्मा को ज्ञाता (विषयी) एवं ज्ञेय (विषय) दोनों मानते हैं। इसका आधार उनका मानस प्रत्यक्ष का सिद्धान्त है।
कुमारिल ज्ञान को आत्मा का गुण नहीं मानता है। वह इसे क्रिया कहता है यह आत्मा जैसे सूक्ष्म द्रव्य में उत्पन्न होने के कारण अतीन्द्रिय है। ज्ञान आत्मा का ज्ञात वस्तु से सम्बन्ध बनाता है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान स्वप्रकाश नहीं है। ज्ञान केवल ज्ञेय विषय को प्रकाशित करता है।
मोक्ष के स्वरूप पर मतभेद
कुमारिल मोक्ष को आत्मा के लिए आनन्द की अवस्था मानते हैं, जबकि प्रभाकर के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा में सुख-दुःख आदि सर्वगुणों का क्षय हो जाता है। अत: यह आनन्द की अवस्था नहीं है।
अन्विताभिधानवाद एवं अभिहितान्वयवाद में मतभेद
प्रभाकर अन्विताभिधानवाद के समर्थक हैं, जिसके अनुसार शब्दों के अर्थ केवल उसी अवस्था में जाने जा सकते हैं, जबकि वे ऐसे वाक्य में आते हैं, जो किसी कर्त्तव्य का आदेश करता है। इस प्रकार शब्द पदार्थों को केवल इस प्रकार के वाक्य के अन्य अवयवों से सम्बद्ध रूप से ही द्योतित करते हैं। यदि वे एक आदेश से सम्बद्ध नहीं हैं, बल्कि केवल अर्थों के ही स्मरण कराते हैं तो यह स्मृति का विषय है, जो प्रामाणिक बोध नहीं है। दूसरी ओर कुमारिल अभिहितान्वयवाद के समर्थक हैं, जिसके अनुसार अर्थ का ज्ञान शब्दों के ज्ञान के कारण होता है, परन्तु यह ज्ञान स्मरण या बोधग्रहण के कारण नहीं, बल्कि द्योतक के कारण होता है। शब्द, अर्थों को प्रकट करते हैं जो संयुक्त होने पर एक वाक्य का ज्ञान देते हैं।